ठाकुर से बात करने के लिए आये आगंतुक जिज्ञासु उन्हें देवस्थान के आस पास बरांडों पर, घाट पर तलाशने लगा ; वो भला इन सब जगहों पर कहाँ मिलते ! उनकी तो वही दशा हो चुकी थी जहां से इहलोक और परलोक का सम्मलेन होता है; जहां आकर साधक परमात्मा का साक्षात्कार कर पाते होंगे; जहां से फिर पवित्र जीवन का दिव्य मार्ग प्रशस्त होता होगा। जिज्ञासु अपने गुरु को इस दशा में देखकर यह सोचने लगा कि क्यों न यह विद्या अभी सीख लें ! जिज्ञासु और गुरु की जब बातचीत शुरू हुई तब भक्त ने भगवान के सामने अपने मन की बात कह दिया। ऐसा कहने मात्र से ठाकुर के चहरे पर मायूसी च गई ; उन्हें लगने लगा कि यह भक्त तो स्वार्थी निकला ! अपनी ही प्रगति चाहता, अन्य समुदाय की प्रगति के बारे में उदासीन ही बना रहता ! अभी से समाधि लेने के लिए तड़प रह है ! अपने गुरु के चहरे पर छानेवाली मायूसी के बारे में भक्त को भी पता चल गया। उसे कुछ अजीब सा लगा, "गुरु शायद नहीं चाहते कि मैं उनके जैसा पारंगत बनूँ! शायद गुरु क लगता होगा कि उनके जैसा पारंगत अगर मैं बना तो फिर उनकी अहमियत ख़त्म ही हो जाएगी। " कुछ भी हो गुरु को असल में लग रह था कि भक्त बरगद का पेड़ बनेगा, डालियाँ बिखेरेगा, शाखाएं चलाएगा, लोगों को मदद मिलेगी; पर यह तो खुद ही बड़ा बन जान चाहता; ठीक जैसे ताड़ का पेड़ !
भक्त और गुरु के बीच इस प्रकार जारी वार्ता से अपने मन में भी प्रश्न उभरते होंगे; क्यों न हम भी भगवद अनुकम्पा से उन्हें के स्वरुप का चिंतन करते कृते उसीमें स्वरूपस्थ हो जाएँ; दिव्य ज्ञान में पिण्डस्थ हो जाएँ; कुछ ऐसा करें जिससे हर प्रकार से हमें ईश्वर अनुराग रुपी धन कीप्राप्ति हो सके। पर विधाता हमें कर्म में लगाकर सृष्टि में निरंतरता लाने का प्रयास करते रहते हैं और एक क्रम से हमें भी उन्नति के मार्ग पर बने रहने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रकृति के गुणों के अधीन ही जीव कर्म के लिए प्रवृत्त होते हैं और विधायक कर्म में लिप्त होते रहते हैं। [1]
वस्तुतः एक क्षण के लिए भी व्यक्ति पूर्ण निष्क्रियता से नहीं रह सकता; यदि सिर्फ बैठे हों तब भी कुछ न कुछ तरंगों से मन अशांत हुआ रहता होगा; गहन निद्रा में भी हम स्वप्नलोक में सक्रिय रहते होंगे। निद्रा में भी श्वास और संवहन की क्रिया के साथ साथ स्वयःक्रिय स्नायु की क्रिया भी चला करेगी।
अतः यह भी कहा जा सकेगा कि पूर्ण समाधि जैसी स्थिति में भी हम सक्रिय रहते होंगे और
विश्व चराचर के इस पार्थिव जगत में चेतना सहित वापस आने के लिए प्रत्न कर लिया करेंगे
; अगर सफलता मिली तो सक्रिय हुए और विफलता मिली तो शरीर छूटा! बीच के अंर्तवर्ती पर्याय
में ही चेतना का आवागमन होता रहेगा। श्रेष्ठ
वही कहलायेंगे जो ज्ञानेन्द्रिय को वश में करके कर्मेन्द्रियों को आसक्ति रहित होकर विधायक कर्म में लगा सकेंगे। [2] प्रजा पालन और प्रजा रक्षण के बारे में कहा जाता
है: ब्रह्मा प्रजापालक हैं और प्रजा के कल्याण के लिए भी तत्पर रहते हैं। [3] पूर्ण कर्मयोगी
तो सभी कर्म यजन के रूप में ही किया करेंगे; [4] भोजन करते
समय भी जठराग्नि रुपी कुंड में भोजन रुपी द्रव्य कि आहूति देंगे। संग्रह वृत्ति से
बचते हुए कर्मयोगी को विधायक कर्म में लगाना चाहिए। [5]
जन्म मृत्यु का अनुशाशन
जिसका जन्म हुआ उसका मृत्यु होना भी एक भवितव्य है; इस आशय की पुष्टि करते हुए शरीर और आत्मा के भेद को भी कई प्रकार से बताया गया। अगर इन्द्रिय ग्राह्य वास्तव
जगत की ही बात करें तो हम पाते हैं कि उस वास्तव इन्द्रियग्राह्य जगत के हर कण में उस परम तत्व का ही अधिष्ठान समझ पाएंगे। हर प्रकार से पदार्थ जगत में जब भी हम किसी तत्व को संदर्भित होता हुआ देखते हैं तब यह प्रतीत होता हैं कि उस एक ही तत्व को जीव जगत और जड़ जगत में अवागमन करते हुए प्रत्यक्ष कर सकेंगे; वायु का एक कण भी जीवित शरीर का हिस्सा बन जाया करेगा और फिर अन्य किसी कण को जीव जगत के जीवित शरीर से मुक्ति भी मिलेगी। यह जीव और जड़ के बीच पदार्थों के कानों का आवागमन विषयक चक्र चलता ही रहेगा और कभी भी किसी एक पक्ष तक सीमित भी नहीं रहेगा। मृत्यु के बाद शरीर का विघटन भी उसी वास्तविक नियमन से और वेद में घोषित यज्ञार्थ कर्म के विधान से अनुशाषित होता रहेगा। अतः शरीर का नाशवान होना कोई कल्पना नहीं बल्कि एक जटिल वास्तव बन गया। रही बात आत्मा की, तो उसे ऊर्जा विज्ञान के नियमों के अधीन पसरता हुआ देखा जाएगा; इसे संक्षिप्त अंश से विस्तृत अंश तक जाते हो और फिर अन्य किसी जीव को चेतना का स्पंदन देते हुए देखा जाएगा; जो जन्म के रहस्य के साथ जुड़ा हुआ देखा जाएगा। जीव का जन्म ही एक कोशिका से हो जाती है; उस एक कोशिका में समाहित गुणसूत्रों के अधीन विकास की प्रक्रिया चलती है, और फिर उस विकास प्रक्रिया में कोशिकाओं का विभाजन रुपी नित्य क्रिया से जीव का संवर्धन और सम्पोषण विषयक कर्म को हम प्रकृति के अधीन होता हुआ देख पाएंगे; प्रकृति अनंत काल के लिए जीव को अन्य सभी पदार्थों और प्रकाश पुंजों को आत्मसात करने की अनुमति नहीं देती; उस प्रक्रिया पर अंकुश लगाने के लिए ही मृत्यु का अनुशाशन बना। जन्म से मृत्यु के अंतराल जीव यह आजादी मिल गई कि वो अपने अनुरूप एक नवीन अवयव को तैयार करे (जन्म, प्रजनन आदि) और फिर जीवन के क्रमिक अवस्थान को जारी रखे; अपने या फिर अपने जैसा किसी नवीन जीव को प्रकृति में बनाये रखे।
इस कर्म की स्वतंत्रता से यह भी नहीं समझना चाहिए कि जीव ही (मुख्यतः अगर मनुष्य के बारे में कहें तो भी) प्रकृति और राकृति के विधान से होनेवाले कर्म का नियंता, विधाता आदि बन गया; इसकी कोई संभावना है ही नहीं; इसी कारण से भगवान खुद को भी गुणातीत नहीं मानते; उन्हें भी समय समय अपर शरीर रचना के साथ प्रकृति का सहारा लेते हुए अवतरित होना पड़ा। योगेश्वर शरीर को एक क्षेत्र मानते हुए उस शरीर में
जिस तत्ववेत्ता ब्रह्म स्वरू आत्मा का अधिष्ठान हो चूका उसे क्षेत्रजन मानते हैं; इस
शरीर से इन्द्रिय, मन, अहंकार, बुद्धि आदि को ही समझना होगा। [6] शास्त्रों
में भी बारी बारी से आत्मा और शरीर के सम्बन्ध और परस्पर सहावस्थान के बारे में प्रतिपादित
किया गया; यह भी कहा गया ईश्वर अनुकम्पा के बिना सृष्टि का चक्र चलना कदापि संभव नहीं,
न ही हम अपनी अभिलाषा के अनुसार उसे चला भी सकेंगे। सिर्फ अनुसन्धित्सा के अधीन मनुष्य दृश्य जगत में
दूर दूर तक का सफर तय करता रहा, आगे भी करता रहेगा; सिर्फ प्रकृति के नियम को समझने
के निमित्त से न कि उस नियम में कोई उलटफेर करने के निमित्त से। यह भी कहा जाता है कि साधना के चरम उत्कर्ष में
कभी भी शरीर का अस्तित्व हो नहीं रहेगा; ठीक जैसे सागर में घुल मिल जाने के बाद नदी
की धरा नहीं रहती, जैसे श्वास में प्रश्वास का और प्रश्वास में श्वास का हवन हो जाता
है; जैसे पानी में अन्य किसी तत्व का विघटन
हो और उस पानी को विघटन सहित फिर समुद्र के विस्तीर्ण जलराशि में मिला दिए जाएँ।
दिव्य जन्म
जब कोई दिव्य पुरुष का जन्म होता है तब क्या कोई ख़ास परिस्थिति के अंतर्गत हम उस जन्म को महसूस कर सकेंगे; या फिर उस जन्म से अन्य सहज रूप से होनेवाले जन्म को मिलाकर ही देखना होगा? दिव्य जन्म विषयक कोई उपाख्यान क्या अपने शास्त्र में उपलब्ध कराये गए ?
वेद उपनिषद् के अधीन ही अगर इस तत्व को समझने का प्रयास करें तो किसी भी जीवन को पूर्ण नहीं माना गया और यही कारण है कि जीवन मात्र को साधना के पथ पर लगे रहने की सीख मिली और वैसा करते हुए उन्हें पूर्णता पाने का प्रयास करते रहना होगा।
वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार
से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, पूर्ण उस पूर्ण
पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ ; पूर्णता से
जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण ही रह जाता है ; उस पूर्ण में से पूर्ण को अलग कर लेनेपर भी ईष्ट
के पूर्णता पर कोई असर नहीं पड़ता; ठीक वैसे ही जैसे समुद्र में मौजूद विस्तीर्ण जलराशि
में से अगर हम एक कटोरा जल अलग कर लें तो भी समुद्र के विस्तार पर कोई असर नहीं पड़ता।[7]
कल्प तरु
नाव पर बैठे बैठे एकबार श्री ठाकुरजी को पसीना आने लगा; भक्तों से घिरे उस महात्मा को देखकर एक फिरंगी कुछ ज्यादा ही परेशान होने लगा। उसे लगाने लगा श्री ठाकुरजी बीमार पद गए; शायद दिल का दौड़ा पड़ा होगा! वस्तीतः श्री ठाकुर एक ऐसी परिस्थिति का सामना कर रहे थे जिस परिस्थिति में आत्मा और परमात्मा का सम्मलेन हो जाता है; कुछ ऐसा विधान जिसके बल पर साधक भौतिक शरीर रहते हुए भी ईष्ट के सान्निध्य विषयक अनुभव का धनि बन पाता है; जैसे कोई जलधारा खुद प्रवाह खोने का आनंद तब पा लेगा जब उसका सम्मलेन सागर की विशालता में और गंभीरता में होगा। उस परिस्थिति का अनुधावन भी हम कई प्रकार से कर पाएंगे; उस परिस्थिति में शरीर का बंधन छोड़कर आत्मा का मुक्त होने का प्रयास एक सहज वृत्ति है; उस वृत्ति के अधीन ही श्री ठाकुरजी को कल्पतरु बनाना पड़ता था। उस कल्पतरु से लाभान्वित होने का अवसर सबको मिलता भी था। जिस परिस्थिति में आत्मा में परमात्मा और परमात्मा में आत्मा का सहावस्थान विषयक तत्व का दर्शन होने लगता;[8]
ज्ञान के चरम उन्नत परिधि के अंतर्गत ही साधक को ईष्ट का अधिष्ठान महसूस होने लगता है। उस परिस्थिति में उनका शरीर छोड़कर विश्व चराचर के विस्तीर्ण परिमंडल में विलीन हो जाना सहज ही एक उत्कंठा पैदा करनेवाली होगी; भगवान को नाटक में देखने से भी जो भाव--विह्वल हो जाते हैं; उनका ज्ञान तो चरम उत्कर्ष का ही मान लेना होगो; और फिर बाहर से क्या अनुभव कर पाएं कि शरीर में अंदर कैसी उथल - पुथल चलती होगी जब ईश्वर के साथ भक्त का मिलन होता होगा! [9]
इसे समझना उतना ही कठिन है जितना की सागर में उतरे बिना सागर की गहराई के बारे में अनुमान लगाना; उस परिस्थिति में हम अनंत कहकर रुक जाते हैं। बनारस में जब कोई भक्त
"सूरज मरिहें, चंदा मरिहें
" करके गए रहा था और झूम रहा था तब उसे सजा देने के लिए सैनिक तलवार उठा लिए , लिखनेवाले को बुलावा भेजा गया, उसने राजा के सामने आकर कहा, "सबको मौत के घाट उतार देने के बाद भी सत्य को बदला नहीं जा सकता; राजा के परिवार में भी जन्म मृत्यु का सिलसिला चल ही रहा है; उसे भी रोका नहीं जा सकता। " काफी विमर्श के बाद आखिर राजा को मान लेना पड़ा कि अंध गायक जो गए रहे हैं वो सत्य ही है।
सत्य आश्रय लेनेवाले
निष्ठावान भक्त, साधना में अविरल भाव से लगे हुए साधक; कर्तव्य पथ पर बिना रुके, बिना
थके चलनेवाले पथिक ये सब कल तरु ही माने जाएंग। उस जगत को कलप्प जगत इसलिए भी कहा जाना
समीचीन होगा कारण उसे हम इन्द्रियग्राह्य किसी अनुक्रिया के अंतर्गत महसूस नहीं कर
पाते; उसे देखने के लिए तो ज्ञान चक्षु ही चाहिए, वो भी अहम् से प्रशमित हुआ हो और
सात्विक अहम् का धनी हो।
----- चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता
[1] न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् | कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: || श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय ३ श्लोक ५ ||
न – नहीं ; नमस्ते - अवश्य ; कश्चित् – कोई भी ; क्षणम् – एक क्षण ; अपि – सम ; जातु – सदैव ; तिष्ठति – रह सकता है ; अकर्म-कृत - कर्म के बिना ; कार्यते – किये जाते हैं ; नमस्ते - अवश्य ; अवशः – असहाय ; कर्म - कार्य ; सर्वः – सभी ; प्रकृति-जैः – भौतिक प्रकृति से उत्पन्न ; गुणैः – गुणों से
[2]
यस्
त्विन्द्रियानि
मनसा
नियम्यारभते
'अर्जुन
कर्मेन्द्रियैः कर्म-योगम् असक्तः स विशिष्यते।। श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय ३ श्लोक ७।।
यः – कौन ; तू - परंतु ; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ ; मनसा – मन से ; नियम्य – नियंत्रण ; अरभते - प्रारंभ होता है ; अर्जुन – अर्जुन ; कर्म-इन्द्रियैः – कर्मेन्द्रियों द्वारा ; कर्म-योगम् - कर्मयोग ; असक्तः – आसक्ति रहित ; सः – वे ; विशिष्यते - श्रेष्ठ हैं;
[3]
सहयज्ञाः
प्रजाः
सृष्ट्वा
पुरोवाच
प्रजापतिः
। अनेन
प्रसविष्यध्वमेष
वोऽस्त्वष्टकामधुक्
।।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं
भावयन्तः
श्रेयः
परमवाप्स्यथ
।।
……………… श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १०, ११ ।।
“प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदिकाल में कर्तव्य-कर्मों के विधान सहित प्रजा की रचना करके उनसे कहा कि तुम लोग इस कर्तव्य के द्वारा सब की वृद्धि करो और वह कर्तव्य-कर्म-रूप यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्य पालन की आवश्यकता सामग्री प्रदान करने वाला हो। अपने कर्तव्य कर्म के द्वारा तुम लोग देवताओं को उन्नत करो और वे देवता लोग अपने कर्तव्य के द्वारा तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।“
[4]
गृहेश्व
अविशतम्
चापि
पुंसाम
कुशल-कर्मणाम् मद-वर्त-यत-यमानं न बंधाय गृह मतः (भागवत ४-३०-१९ (६)
“पूर्ण कर्मयोगी , अपने नित्य क्रिया और कर्तव्यों को पूरा करते हुए भी, ईष्ट को सभी गतिविधियों का भोक्ता जानकर, ईष्ट के लिए अपने सभी कार्य यज्ञ के रूप में करते हैं।
[5]
स
विश्वजितं
अजहरे
यज्ञं
सर्वस्व
दक्षिणम्
अदानं
हि
विसर्गाय
सतां
वारिमुचम
इव
(रघुवंश
४
- ८६
)[ श्लोक
५]
"रघु ने विश्वजीत यज्ञ इस सोच के साथ किया था कि जैसे बादल पृथ्वी से पानी इकट्ठा करते हैं, अपने आनंद के लिए नहीं, बल्कि उसे वापस पृथ्वी पर बरसाने के लिए, उसी तरह, एक राजा के रूप में उनके पास जो कुछ भी था, वह जनता से कर के रूप में एकत्र किया गया था, अपनी ख़ुशी के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर की ख़ुशी के लिए। अतः उन सभी संग्रहों को प्रजा हितार्थ खर्च करके फिर से भिक्षा पात्र लेकर योगक्षेम का इंतजाम करने के लिए निकल पड़े ।“
[6]
क्षेत्रज्ञं
चापि
मां
विद्धि
सर्वक्षेत्रेषु
भारत
।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥ (श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय १३ श्लोक ३)
इन सभी शरीर रूपी क्षेत्रों का ज्ञाता निश्चित रूप से ईष्ट को ही समझना होगा
और
इस
शरीर
तथा
इसके
ज्ञाता
को
जान
लेना
ही
वास्तविक
ज्ञान
समझना
चाहिए
।
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥
श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय १३, श्लोक ६ एवं ७
यह क्षेत्र पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति के अव्यक्त तीनों गुण (सत, रज, और तम), दस इन्द्रियाँ (कान, त्वचा, आँख, जीभ, नाक, हाथ, पैर, मुख, उपस्थ और गुदा), एक मन, पाँच इन्द्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध); इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, चेतना और धारणा वाला समग्र समूह ही शरीर (विकारों वाला पिण्ड रूप ) है ।
[7]
ॐ
पूर्णमदः
पूर्णमिदं
पूर्णात्
पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य
पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ
शांति,
शांति,
शांतिः
- [बृहदारण्यकोपनिषद
/ पञ्चमोऽध्यायः]
[8]
"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा
क्षान्तिरार्जवम्
।
आचार्योपासनं
शौचं
स्थैर्यमात्मविनिग्रहः
॥
",
"विनम्रता (मान-अपमान के भाव का न होना), दम्भहीनता (कर्तापन के भाव का न होना), अहिंसा (किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचाना ), क्षमाशीलता (सभी अपराधों के लिये क्षमा कर देना), सरलता (सत्य को न छिपाने का भाव), पवित्रता, गुरु-भक्ति , दृड़ता और आत्म-संयम (इन्द्रियों को वश में रखने का प्रयास )।" श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय १३ श्लोक ८
[9]
इन्द्रियार्थेषु
वैराग्यमनहङ्कार
एव
च
।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्
॥
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय १३ श्लोक ९ से १२
इन्द्रिय-विषयों (शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श) के प्रति वैराग्य, मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वरूप समझना) न करना, जन्म, मृत्यु, बुढा़पा, रोग, दुःख और अपनी बुराईयों का बार-बार चिन्तन करते रहना; पुत्र, स्त्री, घर और अन्य भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्त न होना, शुभ और अशुभ की प्राप्ति पर भी निरन्तर अविचलित रहना; ईष्ट के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को न पाना, बिना विचलित हुए ईष्ट भक्ति में स्थिर रहना, शुद्ध एकान्त स्थान में रहने का भाव और सांसारिक भोगों में लिप्त मनुष्यों के प्रति आसक्ति के भाव का न होना; निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब ज्ञान ही है; इसके अतिरिक्त अन्य सभी विषयों को अज्ञान समझा जाना चाहिए (१२).
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