भारतीय दर्शन, वेद उपपनिषद आदि श्रोत हर प्रकार से आध्यात्मिक ज्ञान से पुष्ट होने के साथ साथ हर प्रकार से समृद्ध भी है; इसमें समय समय पर संत महात्मा अपना बहुमूल्य योगदान भी देते रहे; आगे भी इस प्रक्रिया में एक प्रकार से निरंतरता बानी रहेगी ऐसी कल्पना भी की जा सकेगी। इसे कुछ ऐसा भी मान सकेंगे जैसे हिमालय से चलनेवाली नदियां साल भर जल से पुष्ट रहते हुए बहा कराती है; जैसे हर अंतराल पर विशेष प्रकार की निर्मल धरा से प्रकृति को भी नहाते हुए हम देख सकेंगे; कुछ ऐसी प्रक्रिया जिसके जरिये जीव के साथ ईष्ट के विशेष रिश्तों और सम्यक एकरूपता का विषय बन जाता है; कुछ ऐसा विधान लजिसके अंतर्गत हम नैसर्गिक तत्व के साथ अविनश्वर आत्मा को मिलते हुए और उस क्रम में समग्र प्रकृति को क्रियाशील रहते हुए भी देख पाएंगे। इस चर्चा में पिरोये जानेवाले आयाम इतने सारे हैं जिसे हर प्रकार से एक क्रमिक रूप में ही आत्मसात करते हुए अपनी समझदारी के क्षेत्र का निर्माण भी करना होगा।
बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती; हमें यह भी समझना है जिस आशय को केंद्र में रखकर विचार प्रवाह की गंगा सदियों से चलती आ रही होगी और क्रमिक रूप से उसमें से विविध मतों और पंथों का निर्माण होता आया; आगे चलकर और भी मतों और पंथों का जन्म होता रहन एक भवितव्य ही मानें। किसी एक मत और पंथ की आलोचना करने के माध्यम से अन्य किसी मतों और पंथों का महिमामंडन करने का विज्ञान भी सदैव ही किसी न किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हुआ करेगा। उस चर्चा में तात्विक या वैधानिक शुद्धता का न होना ही सहज है; हम ऐसा भी नहीं कह सकेंगे कि कोई ख़ास मत या पंथ किसी भी ख़ास मानक के आधार पर पवित्र नहीं माना जा सकता; यह ऐसा ही हुआ जैसे समुद्र ने किसी नदी कि धारा को अपने में मिला
लेने के पहले उस धारा की पवित्रता आदि के विषय में सोचने लगा।
कभी भी हम किसी मत का पोषण करनेवालों से यह आग्रह भी नहीं रख सकते कि वो अपने मतों
और पंथों का परित्याग कर दें और भिन्न किसी मत या पंथ को अपना लें; यहाँ तक कि देवकी
नंदन भी बार बार भगवान को तीनों गुणों के अधीन विकसित होते रहने की बात को मानते आये
और अपने सखा को यह समझाते रहे कि ईष्ट की आराधना के साथ साथ विधायक कर्म से जुड़ा रहना
ही सर्वोत्तम मार्ग है, सब और से श्रेष्ठ मार्ग होने के साथ साथ सर्व समावेशक भी मान
लेना होगा; वही सनातन और सर्वोत्तम भी है।
यहां (श्रीमद्भागवद्गीता में भी) उसी बात
को बार बार कहा गया जिसके अंतर्गत स्वधर्म में बने रहने की प्रेरणा प्राणी मात्र को
मिल जायेगी; हर प्राणी का अपना विशेष गुण धर्म है और उसी गुणधर्म से विवर्तन की धारा
में बने भी रहना होगा; प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर चलना होगा, या फिर मिटना होगा। विवर्तन की धारा में हम विविध प्रकार के जीव को
पनपते भी देखेंगे और विलुप्त होनेवालों की संख्या भी कम नहीं ; विलुप्त होनेवालों को
प्रकृति ने सम्यक रूप से स्वीकार नहीं किया; न ही उन्हें अपने वर्चस्व बनाये रखने के
लिए नैसर्गिक तत्वों का आधार ही मिल पाया।
ऐसा भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकेगा कि मानव उन सभी नियंत्रण की रूपरेखा से
अछूता रहेगा जिसके अंतर्गत अन्य कई जीव सम्प्रदाय
को संसार से मिटना पड़ा। अतः आत्मा, जीवात्मा,
परमात्मा विषयक भेद बुद्धि के लिए वेद, उपनिषद, श्रुति आदि में कोई स्थान है ही नहीं;
न ही ऐसी कोई मान्यता को शरण मिल पाई जिसके अधीन मानव को सर्व नियंता विधायक सत्ता
मान बैठें। ऐसी मान्यता को पुष्ट करने लायक
कोई तत्व का संचयन भी नहीं मिलता।
एक
सर्वशक्तिमान नियंत्रक सत्ता (परम ब्रह्म ) के अधीन अन्य सभी सत्ता और अभिक्रम को क्रमशः
विकसित होते रहना होगा और एक वैचारिक विवर्तन
की धारा में जीवात्मा, मानवात्मा को विकसित होते होते परमात्मा के उत्कर्ष तक पहुँचाना
होगा; इतना ही नहीं हर प्रकार से परमात्मा को सर्वव्यापी मूल सत्ता मानते हुए अपने
अहम् को भी समेटते रहना होगा ताकि मानवात्मा को परमात्मा के साथ घनसन्निविष्ट किया
जा सके।
अभेद श्रुति
[1] के आधार पर हम यह मानते रहे कि आत्मा, परमात्मा , जीवात्मा और जड़ प्रकृति सबमें ब्रह्म ही का अधिष्ठान होता हुआ परिलक्षित हो सकेगा; सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म परिलक्षित होगा; वही सम्यक ज्ञान है, और विशुद्ध ज्ञान भी।
भेद श्रुति
[2]
का सन्दर्भ जीव और ब्रह्म के बीच सूक्ष्म भेद को प्रतिस्थापित करती है; पर आखिर सभी स्वरूपों में ब्रह्म के अधिष्ठान को स्वीकार कर लिया गया। यह मानव शरीर को अगर हम एक पीपल मान लें ; उस वृक्ष पर ईश्वर और जीव - ये दोनों सदा साथ रहने वाले दो मित्र मानो दो पक्षी हैं। ये दोनों इस शरीररूप पीपल वृक्ष में एक साथ एक ही हृदयरूप घोसले में रहते हैं। शरीर में रहते हुए प्रारब्ध सूर्य से पुष्ट होते हुए सुखद सुखरूप कर्मफल (फल) पाते हैं। जीवात्मारूप एक पक्षी हर्ष - शोक अनुभव करते हुए कर्मफल भोगता है। दूसरा ईश्वररूप पक्षी इन फलों का स्वाद नहीं लेता, बल्कि दूसरे पक्षी को स्वाद लेते हुए देखता रहता है और उसे ऐसा करते हुए आनंद मिलता है। वह (ईश्वर रुपी) पक्षी सिर्फ साक्षी बना रहता है ऐसा ही हम मान सकेंगे। साक्षी ईश्वर सत्ता के बारे में गीता कि भी यही मान्यता रही: "मैं वेद से परे और अक्षर से भी श्रेष्ठ हूँ , इसी कारण से लोक और सर्वश्रेष्ठ नाम से भी प्रसिद्ध भी हूँ। "[3]
दोनों विचारों और मान्यताओं का मेलबंधन भी कई भांति से किया गया।
जो आत्मा में स्थित है, आत्मा का स्वरूप भी तांत्रिक है, आत्मा को जाना नहीं जाता, आत्मा का अर्थ शरीर भी है, जो आत्मा अपने नियमों में स्थापित है, वह अन्तर्यामी (आत्मा) अमृत तेरस है। [4] जो सभी भूतों में स्थित हैं, सभी भूतों की विशेषता आन्त्रिक है, जिनमें से सभी भूतों का पता नहीं है, सभी भूतों के शरीर हैंऔर उनके नियम हैं, वह सर्वान्तर्यामी अमृत (आत्मा) है ।। यह आत्मा के परम सत्ता का ही द्योतक तत्व है। [5]
जो परमात्मा (अद्वितीय और सर्वथा स्वतन्त्र ) सदा सर्वथा अंतरात्मारूपसे स्थित हैं, वे ही सर्वशक्तिमान सर्वभावनसमर्थ भगवान अपने एक ही रूप को अपनी लीला से अनेक प्रकार का बना लिया करेंगे और विश्व चराचर जगत में अवतरित होते रहेंगे । उन परमात्मा को (ज्ञानी महापुरुष ) दृष्टा अपने अन्दर स्थित देखते हैं; वही सही देखते हैं ।
[6] ईष्ट का यह भी कथन संदर्भित होता हुआ देखेंगे: सभी भूतों के हृदय में स्थित आत्मा मैं हूं और मैं ही सभी भूतों का आदि, मध्य और अंत हूं।
[7] मुझसे पृथक् कोई चल या अचल वस्तु है ही नहीं ।[8] सम्पूर्ण जगत अगर आपका शरीर है और एक ही के अधीन हैं। जैसे देही आत्मा के स्वामित्व में है। और जिस प्रकार आत्मा पूर्ण देह में व्याप्त है ठीक उसी प्रकार परमात्मा भी सम्पूर्ण देह में व्याप्त हुआ ऐसा मानेंगे। [9] आत्मा
स्वयं
आनंदमय
है; आनंद प्रत्यक्ष या परोक्ष
रूप से आत्मा का ही विषय है। नींद
से
जागता
है
और
कहता
है,
"आनंद
आ
गया";
यह
क्या
अभिप्राय
है?
यह आनंद आत्मा का है। जब हम यह कहते हैं कि गाना गाकर आनंद आ गया है; तो इसका अर्थ यह है कि गाना स्वयं ही आनंदपूर्ण था।[10]
आत्मा शाश्वत है। जन्म और मृत्यु का अर्थ शरीर का धारण और परित्याग है। [11] आत्मा
साक्षात
में
है
और
शरीर
के
हृदयग्रन्थि
में
स्थित
है।
[12]
आत्मा मन, बुद्धि, इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है; [13]
अविकार और अपरिवर्तनशील है( अमृताक्षरं हरः ); (सत्त्व, रजस, तमस) का प्रभाव कर्म में होता है। [14]
आत्मा स्वयं ज्ञानमय है और ज्ञानी/ज्ञाता भी; धार्मिक ज्ञान स्वयं आत्मा का स्वरूप है; स्वयं ज्ञान (चेतना) है; धार्मिक ज्ञान हमें जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्त, समाधि आदि स्तरों में स्वरूप का बोध कराता है। यद्दस्त विस्मृत हो जाने पर भी स्वयं को नहीं भूलना चाहिए (धर्मी ज्ञान ) [15]। धार्मिक ज्ञान अनुपयोगी है। धर्म-भूत ज्ञान (स्वयं-प्रकाश)[16]
की
उत्पत्ति
मूलतः
होती
है
और
मुक्तावस्था
में
इसका
पूर्ण
विस्तार
होता
है।
जिसे
आप
स्वयं
नहीं
देख
सकते
हैं; केवल
आत्मा
ही
स्वस्मै-प्रकाश है। पूर्व या सर्वोच्च सत्ता की करुणा की कमी
होने लायक कोई संभावना ही नहीं रहती । जो अच्छा काम करता है वह अच्छा हो जाएगा और बुरे
काम करनेवाला बुरा ; वह शुद्ध कर्मों से पवित्र और बुरे कर्मों से अपवित्र होगा। [17] आख़िर ये सब भूत (दृश्य जगत में व्याट सृष्टि ) उत्पन्न
क्यों होते हैं? उत्पन्न होने वाले आश्रय से ये जीवित रहते हैं ; क्रमिक प्रगति की
धारा से विनाशोन्मुख का आधार विषयक केन्द्रक में ये लीन होते हैं उनके विशेष रूप से
दर्शन की इच्छा से ब्रह्म को प्रत्यक्ष करने
की अभिलाषा समझें । वह ब्रह्म ही है जिससे सारा जगत उत्पन्न हुआ, जिसमें यह प्रलय का
समय लीन होता है और जिसे धारण किया जाता है। [18]
पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण धर्म, पूर्ण यश, पूर्ण ज्ञान और पूर्ण वैराग्य - इन छः का नाम 'भग' है। ये सभी पूर्णता जिसमें
हो,
उनको
ही
भगवान
कहेंगे। [19] उत्पत्ति
और
प्रलय
को,
भूतों
के
आने
और
जाने
को
तथा
विद्या
और
अविद्या
कि
सम्यक
जानकारी रखनेवाले
दिव्यजन
ही
भगवान
कहे
जाएंगे
; मूलतः भगवान का अर्थ सर्वऐश्वर्यसंपन्न, सर्वज्ञ और साक्षात् स्वरुप परमात्व तत्व का आधार विशेष ही होंगे। [20] भगवान
के
प्रमुख
गुण
"अनंत
कल्याण
गुण"
की
जननी
है। [21] आत्मा
, परमात्मा और जीवात्मा के बीच सामंजस्य और एकरूपता का सिद्धांत ही एकांत या अद्वैत
मत का परिचायक होने के साथ साथ केन्द्रक भी बना।
उसी अद्वैत की कुंजी लेकर आचार्य शंकर अपना विचार और भाष्य की रूपरेखा को सजाते
रहे; भाष्य लिखते रहे और ईष्ट की आराधना में तल्लीन रहे; वो भी जीवन पर्यन्त। द्वैत के बारे में यह मत पोषण किया गया कि जबतक
अज्ञान रहेगा तबतक द्वैत भी रह ही जाएगा: मैं (अहम्) को अगर पूरी तरह प्रशमित न किया
जा सके और अगर इस "मैं" को पक्का न बनाई जा सके तो वैसा मैं रहे पर
"मैं दास", "मैं भक्त", "मैं साधक", "मैं शरणागत"
इस भांति (एक पक्का मैं - अपनी सही भूमिका के साथ स्वरूपस्थ और पिण्डस्थ )। नारायण के बारे में भी अपनी धारणा बन जानी चाहिए।
[22] भगवान
का शील (भव्यता), उनकी सहायता के लिए है, जो स्वयं को अविकसित मानते हैं; आर्जवन्
(सत्यता), उनकी सहायता के लिए है, जो स्वयं कप्ति तत्व हैं; सहृदयता, जो स्वयं को अच्छा नहीं मानते; मार्धवं (हृदय की
कोमलता), जो भगवान से वियोग सहन नहीं कर सकते; सौलभ्यं (सुलभता), जो सदा उनके दर्शन
करना चाहते हैं।
भगवान के प्रत्येक दिव्य गुण जीवात्मा के लिए
अजनबी हैं।[23] लोकाचार्य
स्वामी कहते हैं कि जो जीवात्मा भगवान के पर्त्वं और स्वातंत्र्य से प्रकट होते हैं,
भगवान के घाट जाने से संकुचाते हैं, उन्हें भगवान के सौलभ्यम् (सुगमता से प्राप्त होने
वाले), सौशिल्य (संतोषुता/उदारता), करुण्य और वात्सल्य (मातृ प्रेम) गुणात्मक हैं;
शरणागत देवताओं के लिए भगवान का जन्म, ज्ञान, कर्म आदि के आधार पर उनका कोई भी दोष
नहीं देखा जाता; पूर्व या सर्वोच्च सत्ता की करुणा की कमी की कोई संभावना नहीं है।
जो अच्छा काम करता है वह अच्छा हो जाता है, जो बुरा काम करता है वह बुरा हो जाता है।
वह शुद्ध कर्मों से पवित्र और बुरे कर्मों से बुरा बनता है। [24] सर्वोच्च
होने की करुणा की कमी का कोई मौका नहीं है। जो अच्छा काम करता है वह अच्छा हो जाता
है, जो बुरा काम करता है वह बुरा हो जाता है। वह कर्मों से शुद्ध होता है और कर्मों
से बुरा होता है।
जिस प्रेम और चिंता से एक गाय अपने नए जन्मों
के लिए बड़े-बड़े शिष्यों को दूर कर देती है उसी प्रकार, भगवान भी नए जीवात्मा के शरणागत
होने पर श्रीमहालक्ष्मीजी और नित्यसूर्यों को पीछे कर देते हैं।
आख़िर ये सब भूत उत्पन्न क्यों होते हैं? उत्पन्न
होने वाले आश्रय से ये जीवित रहते हैं और अंत में विनाशोन्मुख का आधार होता है जिसमें
ये लीन होते हैं उनके विशेष रूप से दर्शन की इच्छा वही ब्रह्म है।[25] जिससे
सारा जगत उत्पन्न हुआ, जिसमें यह प्रलय का समय लीन होता है और इसे धारण किया जाता है;
सत्यत्व (अनन्तता), ज्ञानत्व (ज्ञान से बना रूप), अनंतत्व (समय, स्थान, वस्तु द्वारा
सीमित न होना), आनंदत्व (असीम आनंद), अमलत्व (किसी को भी दोष से मुक्त); निरूपक धर्म
माने जाएंगे । (भाग) पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण धर्म, पूर्ण यश, पूर्ण
ज्ञान और पूर्ण वैराग्य - इन छः का नाम 'भग' है। ये सब जिसमें हो, उसे भगवान कहते हैं।[26] उत्पत्ति और प्रलय को, भूतों के आने और जाने को
तथा विद्या और अविद्या को जो जानता है, वही भगवान है।[27] मूलतः
भगवान का अर्थ सर्वऐश्वर्यसंपन्न, सर्वज्ञ और साक्षात् भगवान है ; 6 प्रमुख गुण अनंत कल्याण गुण (कृपा की तरह) की जननी
है। [28]
भगवान श्री विष्णु का यह अनुभव अत्यंत आनंददायक
है। इस प्रकार जीव भगवान विष्णु के साथ अपने निज व नित्य संबंध को समझकर भगवान के प्रति
समर्पित हो, तब वह जीव सुख व आनंद का अनुभव करता है। ईश्वर अनुकम्पा से किसी भी जीव
को अलग नहीं किया जा सकेगा, बल्कि प्रवृत्ति के अनुसार जीव का कर्म तत्पर होना ही एक भवितव्य मान पाएंगे; हम यह भी महसूस कर
सकेंगे कि जगदीश्वर [29] का
अधिष्ठान विश्व चराचर जगत [30]
के साथ साथ अपना अंतर भी है। उसी सृष्टिकर्ता
सर्वशक्तिमान को अंशरूप से सृष्टि के हर कण में पा सकेंगे। [31] भगवान
दृष्टिगोचर नहीं
होते,
फिर
भी,वो इन आँखों से ही दर्शनीय हो जाते हैं (अवतार लेना)। [32] ईष्ट निर्गुण-निराकार; सगुण-साकार प्रकट होते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं: "निर्गुण ब्रह्म सगुण सोइ कैसे, जलु हिम उपल बिलग नहिं जैस॥ अगुण अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥",
"जल
हम
पेय
पदार्थ
द्रव्य
पदार्थ
देख
रहे
हैं।
पानी
और
बर्फ
एक
ही
पदार्थ
के
दो
रूप
भले
ही
हों;
तत्वतः
एक
ही
हैं। ब्रह्मसूत्र का यह भी
प्रतिपादन है जिसमें जीव के कर्तापन के लिए परमात्मा को ही कारण माना गया (२/३/४१)।
जीवात्मा (विभू) का एकदेशित्व शरीर से है, वास्तव में नहीं (२/३/२९)। ज्ञानीजन लोकसंग्रह
के लिए विहित कर्म कर सकेंगे (ब्रह्मसूत्र ४/१/१६-१७)। ब्रह्म विद्या पाने का अधिकार
सभी आश्रमों के अनुगामी को है और ऐसा करते हुए उन सबको ब्रह्म ज्ञान मिल ही जाएगा,
न कि सिर्फ ब्राह्मणों को (ब्रह्मसूत्र ३/४/४९)। शम- दम आदि साधन के साथ साधक को यज्ञादि
आश्रम कर्म भी निश्काम भाव से ही करना चाहिए (ब्रह्मसूत्र ३/४- २६-२७)। ब्रह्मविद्या
कर्मों का मार्ग नहीं, बल्कि भागवत प्राप्ति का मार्ग समझें। (ब्रह्मसूत्र ३/४/२ से
२५); ब्रह्मज्ञान परमात्मा प्राप्ति का हेतु ही है (ब्रह्मसूत्र ३/३/४७ एवं ३/४/१)।
ब्रह्मज्ञान विषयक इन सभी तत्वों को भली भांति
ध्यान में रखकर ही इस ग्रन्थ का बारी बारी से अध्ययन करना होगा। जो भी तत्व सूत्रवत दिए गए होंगे उन सभी तत्वों
को विस्तार के साथ समझना होगा; सिर्फ इतना ही नहीं आत्मा, परमात्मा और विश्व चराचर
जगत की व्याति में भी उस परम सत्ता के अधिष्ठान विषयक तत्व को समझना होगा। इसी आलोक
में अविनश्वरता का सिद्धांत भी समझने का प्रयास कर सकेंगे; क्षर - अक्षर को भी उजागर
किया जाना संभव हो पायेगा; जिस तत्व की पुष्टि करते हुए एक योद्धा को युद्ध करने की,
साधक को विधायक कर्म में लगने की, अकर्ता को कर्तापन का त्याग करने की और भक्त को भक्ति
में तल्लीन रहने की सीख दी गई; विधाता सर्वदा अपने भक्त और ज्ञाता पुरुष के साथ ही
रहेंगे इस तत्व की भी पुष्टि विश्व चराचर के परा और अपरा प्रकृति के परस्पर अनुक्रियात्मक
पहल के आलोक में कही गई। सिर्फ द्वैत ही नहीं,
और सिर्फ अद्वैत भी नहीं; समझदारी के क्षेत्र का जैसे जैसे निर्माण होता चलेगा वैसे
वैसे साधक का द्वैत से अद्वैत तक का सफर होता रहेगा। अंततः तत्वों को हृदयंगम कर लेने के बाद न द्वैत
रहेगा और न ही अद्वैत; सिर्फ एक पक्का मैं अपना "अहम्" का त्याग करके सर्वोत्कृष्ट
साधक की भांति ईष्ट के अधीन खुद को उसी ईष्ट में पूरी तरह समाविष्ट पायेगा। यही वो पड़ाव समझें जहां हर प्रकार से भेद बुद्धि
नष्ट हो जाया करेगी; और फिर ,"सिया-राममय जगत" प्रतिभासित होने लगेगा। जब परमात्मा में दृढ़ विश्वास, मन और इंद्रियों
पर नियंत्रण, विनम्रता पूर्वक कर्म का अनुष्ठान, आत्मा और शरीर को अलग-अलग समझना और
ब्रह्म अवस्था सभी का संयोजन होता है, उस परिस्थिति में व्यक्ति जीवित रहते हुए भी परम आनंद का अनुभव कर पायेगा; इतना कहते हुए गीता
रुक नहीं जाती ; उसमें सार्विक समाधान पाने के लिए उत्तम मार्ग का बीजक है, भक्त के
लिए भक्ति मार्ग की शिक्षा और दीक्षा मन्त्र है (मुख्यतः अध्याय १२ )।
------ द्वारा : चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता
[1]
अभेद
श्रुति
वेदों
के
वो
मंत्र
जो
जीव
और
ब्रह्म
की
एकता
प्रतिपादित
करते
हैं।
अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हूं" (बृहदारण्यक उपनिषद 1/4/10)
तत्वमसि – “वह ब्रह्म तू है” (छान्दोग्य उपनिषद 6/8/7)
अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" (माण्डूक्य उपनिषद 1/2)
प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" (ऐतरेय उपनिषद 1/2)
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" (छांदोग्य उपनिषद 3/14/1)
[2]
नित्योऽनित्यानां
चेतनश्चचेतनानाम्
एको
बहुनां
यो
विधाति
कामान्
।।
क.उ. 2.2.30; श्वे.उ. 6.13 ॥
नित्य चेतन सर्वशक्तिमान् सर्वाधार परमात्मा ही से नित्य चेतन जीवात्माओंके कर्मफलभोगोंका विधान करते हैं। कर्मफल पर साधक और कर्मी का कर्तापन प्रतिष्ठित नहीं होता।
भोक्ता भाग्यं प्रेरणां च मत्वासर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ॥ श्वेताश्वतर उप.1.12 ॥
मनुष्य भोक्ता (जीवात्मा), भोग्य (प्रकृति) और इन दोनों के दार्शनिक (ईश्वर) को जानने के लिए कुछ न कुछ मिलता है जरूर पर कुछ पता नहीं चला। प्रकृति, आत्मा और उन दोनों के आधार और परमपिता परमात्मा - ये त्रिमूर्ति ब्रह्म के ही रूप हैं।
क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानाविशते देव एकः ।। ( श्वेतश्वतर उ.प्र.1.80 )
प्रमुख प्रकृति (अक्षर) की भोक्ता अंजनाली आत्मा का नाम भी अक्षर है। प्रकृति और आत्मा, इन दोनों का शासन एक देवत्व है।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोर्न्यः पिप्पलं स्वादत्यानश्न्नन्न्यो अभिचक्षति।।
( अथर्ववेद काण्ड 9.14.20; ऋग्वेद मण्डल 1.164.20; कठ0 1.3.1; मुण्डक0 3.1.1; श्वेताश्वतर उप. 4.1.6 )
[3]
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमाक्षरादपि
चोत्तमः।
अतोऽस्मि
लोके
वेदे
च
पृथितः
पुरूषोत्तम:
।।
गीता
१५
- १८ ।।
[4] यः पृथिव्यां तिष्ठन्। पृथिव्या अन्तरको यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः - शतपथब्राह्मणम् 14.6.7.[7]
य आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः - शतपथब्राह्मणम् चौदह.6.7.[30]
[5] यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठनसर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदुः। यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतयन्तरो यमयति। एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ( बृहदारण्यक उ0 3.7.15 )
[6] एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेत्रेषम्।। कठोपनिषद् 2.2.12 ।।
[7] अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूतशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।। गीता १० - २० ।।
[8] सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्जनमोहनं च।। गीता 15.15।।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशोऽर्जुन तिष्ठति। ब्रह्मायन् सर्वभूतानि यन्त्ररूधानि मया ।। ( गीता 18.61 )
न तदस्ति विना यत्स्यन्मय भूतं चराचरम्। ( गीता 10.39 )
[9] जगत् सर्वं शरीरं ते ( वाल्मीकि रामायण-युद्धकाण्ड-117/25 )
सन्दर्भ : छांदोग्य यूपी। (4.2.2-3); बृहदारण्यक उ0 (5.7.3); मुंडक (3.1.1); तैत्रीय उप (11.6); श्वेताश्वर उप (1.12, 1.17, 1.22, 6.33); ऐतरिय उपनिषद.
[10] वेद इसकी पुष्टि करते हैं- " ज्ञानानन्दमयस्त्वात्मा "; “ ज्ञानानन्दलक्षणं ”; "निर्वाणमय अवायम् आत्मा"।
[11] न जायते मृयते वा विपश्चित् (गीता 2.20)
[12]
उत्कान्तिगत्यागतिनाम्
(ब्रह्म-सूत्र)। बालग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च। भागो जीवस्य विज्ञानेयः ।। एसोऽनुर्नात्मा ।।
[13]
अव्यक्तोऽयम्
अचिन्त्योऽयम्
(गीता
2.25)।
[14]
सांख्य
दर्शन
का
मत
है
कि
आत्मा
का
गुण
नहीं
है।
यदि
ऐसा
होता
है
तो
शास्त्र
हमें
कर्म
के
नियम
क्यों
सिखाते
हैं?
( कर्ता
शास्त्रार्थवात्
(ब्रह्म-सूत्र))
[15]
धर्म-भूत ज्ञान वह है, जो आत्मा को उजागर करता है।
[16]
अत्रायं
पुरुषः
स्वयंज्योतिः
भवति
। स्वस्मै-प्रकाश का अर्थ
है स्वयं को प्रकाशित करना।
[17]
वैषम्यनैघृण्ये
न
सापेक्षत्वात्
(ब्रह्म
सूत्र
2.1.34)
[18]
यतो
वा
इमानि
भूतानि
जायन्ते।
येन
जन्मनि
जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।
तद्विजिज्ञस्व.
तद्ब्रह्मेति।
तैतारियोपनिषद
(3.1.1)
[19]
ऐश्वर्यस्य
समग्रस्य
धर्मस्य
यशसः
श्रियः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव
शन्नं
भग
इतिराना।।
(विष्णु
पुराण
6.5.74)
[20]
उत्तपतिं
प्रलयं
चैव
भूतानमगतिं
गतिम्।
वेत्ति
विद्याम्विद्याम्
च
स
वाच्यो
भगवानिति।।
(विष्णु
पुराण
6.5.78)
[21]
प्रवरगुणाष्टकं प्रथमजं गुणानानिसिम्नां गणनाविगुणानां पूर्वभूः । (वरदारराजस्तव.15)
[22]
ब्रह्मशब्देन
च
स्वभावतः
पितानिखिलदोषः
अनधिकाशय
अगेन्तेय
कल्याणगुणगणः
उत्तमो
अभिधीयते
(श्रीभाष्य)।क्रॉप्ड-श्रीरंगम-रंगनाथस्वामी-पेरियापेरुमल.
ब्रह्म को परिभाषित करते हुए रामानुज स्वामीजी कहते हैं: जो सभी दोष से अनुपयुक्त हैं। ( पूर्ण हे प्रत्यायनिक) । निर्गुण शब्द का अर्थ सर्व दूषण और रज, तम गुण से अनुपयोगी होता है। जो अनंत कल्याण गुणों से युक्त हैं जैसे सत्यकाम, सत्यसंकल्प, करुणा, ज्ञान, बल, आदि। ( कल्याण अनंत गुणाकर्म) ।
सृष्टिस्थितिसंघत्वं: जो सृष्टि की उत्पत्ति, पोषण और संहार को पूर्णतः नियंत्रित करते हैं।
ज्ञानानंदस्वरूपं: संपूर्ण ज्ञान और अनुपम आनंद का भंडार है। वह जो श्रीदेवीजी, भूदेवीजी और नीलादेवीजी के प्राण प्रिय नाथ हैं।
“यस्मात् सर्वेश्वरात्
निखिलहेयप्रत्यनिकप्राप्ति”,
भगवान के समय/काल के सन्दर्भ में (नित्य/अनादि)
और स्थान के सन्दर्भ में (सर्वसहयोग) स्वरूप असीमित हैं; प्रत्येक जीवात्मा में अन्तर्यामी
परमात्मा ( दिव्य-आत्म स्वरूप ) हैं; नित्यविभूति और लीला विभूति भगवान की प्रतिज्ञा
है; अविनाशी सात्विक हैं; पवित्र हैं और न
होने वाले शुभ के स्वामी हैं; भगवान विभु हैं जबकि जीवात्मा अधर्म हैं; कभी कलंकित
नहीं हो सकते; विभिन्न अवतार अकलंकित, एवं अकल्पनीय दिव्य हैं; वह पारलौकिक है तो मोक्षदाता
भी है ; वह मोक्षदाता और मोक्षप्रदायक के रूप में प्रकाशमान है। श्रीराम का गुल्ला,
हनुमान आदि में हिलना और श्रीकृष्ण का ग्वाल-बालों के संग हिलना, भगवान के सौल्य और
सौशील्य के गुण के उदाहरण हैं। भगवान इस संसार में पीड़ित जीवात्माओं के दुःख को देखकर
व्यथित/चिंतित रहते हैं और सदा उनके कल्याण के लिए सोचते हैं ( परदुःख असहत्वं )।
“लोकवत्तु लीलाकैवल्यं” , “भगवान लीला के अवतार लिए जाते हैं। लीला विभूति में बद्ध जीवात्माओं का निवास होता है।”
“अशेष - चिद् - अचिद् - वस्तु – शेषिन्” , “संपूर्ण चेतन और अचेतन का स्वामी है।“
[23]
(ब्रह्म)
नमोखिलकारणाय
निष्करणायद्भुत्करणाय|
सर्वागम्मनायमहार्णाय
नमोऽपवर्गायपरायणाय||
[24]
वैषम्यनैघृण्ये
न
सापेक्षत्वात्
(ब्रह्म
सूत्र
2.1.34)
[25]
यतो
वा
इमानि
भूतानि
जायन्ते।
येन
जन्मनि
जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।
तद्विजिज्ञस्व.
तद्ब्रह्मेति।
तैतारियोपनिषद
(3.1.1)
[26]
ऐश्वर्यस्य
समग्रस्य
धर्मस्य
यशसः
श्रियः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव
शन्नं
भग
इतिराना।।
(विष्णु
पुराण
6.5.74)
[27]
उत्तपतिं
प्रलयं
चैव
भूतानमगतिं
गतिम्।
वेत्ति
विद्याम्विद्याम्
च
स
वाच्यो
भगवानिति।।
(विष्णु
पुराण
6.5.78)
[28]
प्रवरगुणाष्टकं
प्रथमजं
गुणानानिसिम्नां
गणनाविगुणानां
पूर्वभूः
।
(वरदारराजस्तव.15)
[29]
"नार
= नर
का
बहुवचन,
नरों
का
समूह
अर्थात्
जगत्";
"नार
+ अयन
= नारायण
(संधि)";
"नारायणम्
अयनं
नारायणम्
(तत्पुरुष
समास)"
, "नारायण
ही
समस्त
जगत,
विश्व
चराचर
और
सृष्टि के आधार हैं (बहिरव्याप्ति) और साथ ही साथ हर नर जगत के आधार स्वरूप अंतर्यामी परमात्मा हैं (अंतरव्याप्ति)। "
[30]
"नारः
अयनं
यस्य
सः
नारायणं
(बहुब्रीहि
समास)",
"संपूर्ण
जगत
(नाराः)
अन्योन्याश्रय
(अयनं)
है
और
जो
जगत
की
आत्माएं
हैं,
वो
नारायण
हैं
(शरीर-आत्मा भाव)।"
[31]
नारायण:
नाराणं
नित्यनाम
अयनं
इति
नारायण
| (नर
= न
+ र)
", "कभी
क्षय
न
हो,
जो
शाश्वत
(नित्य)
है,
उसे
नर
कहते
हैं।
"
[32]
मर्त्यावतारस्तिवः
मर्त्यशिक्षणम्,
रक्षो
बधायै
वा
सज्जनाय
केवलंविभोः।