बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥
परमात्मा चर-अचर सभी प्राणीयों के अन्दर और बाहर भी विद्यमान हैं; अति-सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा नहीं
जाना
जा
सकता;
अत्यन्त
दूर
होने
पर
भी
सभी
प्राणीयों के अत्यन्त पास भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
……………. श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय १३, श्लोक १६.
जन्म लेने के मुहूर्त मात्र से जीव को जीवित रहने के लिए सचेष्ट होना होगा, ऐसा न कर पाने की स्थिति उसके जीवनचर्या को जारी रख पाना निहायत ही कठिन हो जाएगा। समाजबद्ध जीव होने के कारण मनुष्य अपने समुदाय और परिवार में नए सदस्य को बचाये रखने के लिए, निरोगी रखने के लिए और पुष्ट रखने के लिए भी प्रयास करते रहता है ; इसी नियमों के अधीन कर्म-काण्ड और यजन की संस्कृति का भी निर्माण हुआ ; परिवार की छत्रछाया में नए सदस्यों का आगमन, उसे परिवार की संस्कृति और परंपरा से सुसंस्कृत करना यह सब विधिपूर्वक चलनेवाली प्रक्रिया का ही हिस्सा बना हुआ है।
आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर अगर विचार करें तो दृश्य जगत में भौतिक शरीर को सक्रिय और निरोगी रखने से जीवन संग्राम का अभिप्राय नहीं मन जा सकता; जीवन को सत्याश्रयी और नीतिपरायण होकर धर्म रक्षा के लिए और अधर्म के नाश के लिए क्रियाशील होना होगा: "उसी आशय की पुष्टि करने के लिए गीता में दर्ज एक कथन था,"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता……… "; योगेश्वर फिर कहते हैं ,"सम्भवामि युगे युगे………. [1]" ; बार बार एक योद्धा को विधायक कर्म से जोड़ते हुए युद्ध करने की प्रेरणा देते रहे। यद्यपि बड़े परिमंडल के सन्दर्भ में महर्षि वेदव्यास युद्ध, विनाश, हत्या, खून खराबे आदि का समर्थन नहीं करते; पर अगर धर्म रक्षा की बारी आ गई हो तो योद्धा को छू भी नहीं बैठना चाहिए और न ही संन्यास लेने के बहाने हथियार डालकर युद्ध क्षेत्र से पलायन कर जाना चाहिए। भक्त के जीवन संग्राम में सदैव ही भगवान का साथ मिलता आया; भक्त प्रह्लाद की कथा से भी इस बात की पुष्टि हो जाती होगी; जब प्रह्लाद से पुछा गया कि क्या उनका भगवान एक पत्थर के खम्भे में हैं? भक्त ने हाँ कहा; उस बात को सत्यापित करने के लिए नृसिंह अवतार अवतरित हुए और दुष्ट का नाश करने के बाद भक्त की रक्षा कर गए।
सन्दर्भ : ……
[1] कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥11.32॥
[2] हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
गोस्वामी तुलसीदास (श्री रामचरित मानस)
[3] य आशु हृदयग्रन्थिं निर्जिहीर्षु: परात्मन: ।
विधिनोपचरेद् देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ॥ श्री मदभागवत ११.३.४७ ॥
शब्दार्थ: य:—जो; आशु—शीघ्रता से; हृदय-ग्रन्थिम्—हृदय की गाँठ को (भौतिक देह से झूठी पहचान); निर्जिहीर्षु:—काटने का इच्छुक; परात्मन:—दिव्य आत्मा का; विधिना—विधानों से; उपचरेत्—उसे पूजा करनी चाहिए; देवम्—भगवान्; तन्त्र- उक्तेन—तंत्रों द्वारा वर्णित; च—तथा (वेदोक्तम के अतिरिक्त); केशवम्—भगवान् केशव को ।.
[4] लब्ध्वानुग्रह आचार्यात् तेन सन्दर्शितागम: ।
महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतयात्मन: ॥ श्री मदभागवत ११.३.४८ ॥
शब्दार्थ : लब्ध्वा—प्राप्त करके; अनुग्रह:—कृपा; आचार्यात्—गुरु से; तेन—उसके द्वारा; सन्दर्शित—दिखाया जाकर; आगम:—वैष्णव तंत्रों (द्वारा दी गई पूजा-विधि); महा-पुरुषम्—परम पुरुष को; अभ्यर्चेत्—शिष्य को चाहिए कि पूजे; मूर्त्या—विशेष साकार रूप में; अभिमतया—जिसे अच्छा समझा जाय; आत्मन:—अपने से ।
[5] एवमग्न्यर्कतोयादावतिथौ हृदये च य: ।
यजतीश्वरमात्मानमचिरान्मुच्यते हि स: ॥ श्री मदभागवत ११.३. ५५ ॥
शब्दार्थ: एवम्—इस तरह; अग्नि—अग्नि; अर्क—सूर्य; तोय—जल; आदौ—इत्यादि में; अतिथौ—मेहमान में; हृदये—हृदय में; च— भी; य:—जो; यजति—पूजा करता है; ईश्वरम्—ईश्वर को; आत्मानम्—परमात्मा; अचिरात्—बिना विलम्ब किये; मुच्यते— छूट जाता है; हि—निस्सन्देह; स:—वह ।.
[6] क्षुत्तृट्त्रिकालगुणमारुतजैह्वशैष्णानस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित् ।
क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गोर्मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति ॥ श्री मदभागवत ११. ४. ११ ॥
शब्दार्थ: क्षुत्—भूख; तृट्—प्यास; त्रि-काल-गुण—काल की तीन अवस्थाओं की अभिव्यक्ति (यथा गर्मी, सर्दी, वर्षा आदि); मारुत—हवा; जैह्व—जीभ का भोग; शैष्णान्—तथा शिश्न के; अस्मान्—हम; अपार—असंख्य; जल-धीन्—समुद्र; अतितीर्य—पार करके; केचित्—कुछ मनुष्य; क्रोधस्य—क्रोध का; यान्ति—प्राप्त करते हैं; विफलस्य—जो कि व्यर्थ है; वशम्—वेग को; पदे—पाँव या खुर (के चिह्न) में; गो:—गाय के; मज्जन्ति—डूब जाते हैं; दुश्चर—कर पाना कठिन; तप:— तपस्या; च—तथा; वृथा—व्यर्थ; उत्सृजन्ति—वे फेंक देते हैं ।.
[7] दूरे हरिकथा: केचिद् दूरे चाच्युतकीर्तना: ।
स्त्रिय: शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥ श्री मदभागवत ११. ५. ४ ॥
शब्दार्थ : दूरे—बहुत दूर; हन्-कथा:—भगवान् हरि की बातों से; केचित्—कई लोग; दूरे—काफी दूर; च—तथा; अच्युत—त्रुटिरहित; कीर्तना:—कीर्ति; स्त्रिय:—स्त्रियाँ; शूद्र-आदय:—शूद्र तथा अन्य पतित जातियाँ; च—तथा; एव—निस्सन्देह; ते—वे; अनुकम्प्या:—अनुग्रह के पात्र हैं; भवादृशाम्—आप जैसे व्यक्तियों के ।.
[8] विप्रो राजन्यवैश्यौ वा हरे: प्राप्ता: पदान्तिकम् ।
श्रौतेन जन्मनाथापि मुह्यन्त्याम्नायवादिन: ॥ श्री मदभागवत ११. ५. ५ ॥
शब्दार्थ: विप्र:—ब्राह्मण; राजन्य-वैश्यौ—राजसी वर्ग तथा वैश्य लोग; वा—अथवा; हरे:—हरि के; प्राप्ता:—निकट जाने की अनुमति दिये जाने पर; पद-अन्तिकम्—चरणकमलों के पास; श्रौतेन जन्मना—वैदिक दीक्षा का द्वितीय जन्म प्राप्त कर चुकने पर; अथ—तत्पश्चात्; अपि—भी; मुह्यन्ति—मुग्ध हो जाते हैं; आम्नाय-वादिन:—अनेक दर्शनों को स्वीकार करते हुए ।.
[9] श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया
त्यागेन
रूपेण बलेन कर्मणा ।
जातस्मयेनान्धधिय: सहेश्वरान्
सतोऽवमन्यन्ति हरिप्रियान् खला: ॥ श्री मदभागवत ११. ५. ९ ॥
शब्दार्थ : श्रिया—अपने ऐश्वर्य (सम्पत्ति आदि) द्वारा; विभूत्या—विशिष्ट क्षमताओं द्वारा; अभिजनेन—उच्च कुल से; विद्यया—शिक्षा से; त्यागेन—त्याग से; रूपेण—सौन्दर्य से; बलेन—बल से; कर्मणा—कर्म द्वारा; जात—उत्पन्न; स्मयेन—ऐसे गर्व से; अन्ध— अन्धा हुआ; धिय:—बुद्धि वाला; सह-ईश्वरान्—भगवान् सहित; सत:—सन्त स्वभाव वाले भक्तगण; अवमन्यन्ति—अनादर करते हैं; हरि-प्रियान्—भगवान् हरि के प्रियजनों को; खला:—दुष्ट व्यक्ति ।.
[10] सर्वेषु शश्वत्तनुभृत्स्ववस्थितं
यथा खमात्मानमभीष्टमीश्वरम् ।
वेदोपगीतं च न शृण्वतेऽबुधा
मनोरथानां प्रवदन्ति वार्तया ॥ श्री मदभागवत ११. ५. १० ॥
शब्दार्थ : सर्वेषु—समस्त; शश्वत्—नित्य; तनु-भृत्सु—देहधारी जीवों में; अवस्थितम्—स्थित; यथा—जिस तरह; खम्—आकाश; आत्मानम्—परमात्मा को; अभीष्टम्—अत्यन्त पूज्य; ईश्वरम्—परम नियन्ता को; वेद-उपगीतम्—वेदों द्वारा प्रशंसित; च—भी; न शृण्वते—नहीं सुनते हैं; अबुधा:—अज्ञानीजन; मन:-रथानाम्—मनमाने आनन्द के; प्रवदन्ति—परस्पर विवाद करते जाते हैं; वार्तया—कथाएँ ।.
[11] धनं च धर्मैकफलं यतो वै ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशान्ति ।
गृहेषु युञ्जन्ति कलेवरस्य मृत्युं न पश्यन्ति दुरन्तवीर्यम् ॥ श्री मदभागवत ११. ५. १२ ॥
शब्दार्थ : धनम्—धन; च—भी; धर्म-एक-फलम्—धार्मिकता ही, जिसका एकमात्र उचित फल है; यत:—जिस (धार्मिक जीवन) से; वै—निस्सन्देह; ज्ञानम्—ज्ञान; स-विज्ञानम्—प्रत्यक्ष अनुभूति सहित; अनुप्रशान्ति—तथा तदुपरान्त कष्ट से मोक्ष; गृहेषु—अपने घरों में; युञ्जन्ति—उपयोग करते हैं; कलेवरस्य—अपने भौतिक शरीर का; मृत्युम्—मृत्यु; न पश्यन्ति—नहीं देख सकते; दुरन्त—दुर्लंघ्य; वीर्यम्—जिसकी शक्ति ।
[12] द्विषन्त: परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम् ।
मृतके सानुबन्धेऽस्मिन् बद्धस्नेहा: पतन्त्यध: ॥ श्री मदभागवत ११. ५. १५ ॥
हित्वात्ममायारचिता गृहापत्यसुहृत्स्त्रिय: ।
तमो विशन्त्यनिच्छन्तो वासुदेवपराङ्मुखा: ॥ श्री मदभागवत ११. ५. १८ ॥
शब्दार्थ: द्विषन्त:—द्वेष करते हुए; पर-कायेषु—अन्यों के शरीरों के भीतर (आत्माएँ); स्व-आत्मानम्—अपने आपको; हरिम् ईश्वरम्— भगवान् हरि को; मृतके—लाश में; स-अनुबन्धे—अपने सम्बन्धियों समेत; अस्मिन्—इस; बद्ध-स्नेहा:—स्थिर स्नेह वाले; पतन्ति—गिरते हैं; अध:—नीचे की ओर ; हित्वा—त्याग कर; आत्म-माया—परमात्मा की माया द्वारा; रचिता:—तैयार किये गये; गृह—घर; अपत्य—बच्चे; सुहृत्— मित्र; स्त्रिय:—पत्नियाँ; तम:—अंधकार में; विशन्ति—प्रवेश करते हैं; अनिच्छन्त:—न चाहते हुए; वसुदेव-पराक्-मुखा:— भगवान् वासुदेव से मुख फेरने वाले ।.
[13] स्वपादमूलं भजत: प्रियस्य त्यक्तान्यभावस्य हरि: परेश: ।
विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद् धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्ट: ॥ श्री मदभागवत ११. ५. ४२ ॥
पुंसोऽयुक्तस्य नानार्थो भ्रम: स गुणदोषभाक् ।
कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा ॥ श्री मदभागवत ११. ६. ८ ॥
शब्दार्थ: स्व-पाद-मूलम्—भक्तों के शरण, कृष्ण के चरणकमल; भजत:—पूजा में लगा हुआ; प्रियस्य—कृष्ण को अत्यन्त प्रिय; त्यक्त—त्यागा हुआ; अन्य—दूसरों के लिए; भावस्य—स्वभाव वाले का; हरि:—भगवान्; पर-ईश:—भगवान्; विकर्म— पापकर्म; यत्—जो भी; च—तथा; उत्पतितम्—घटित; कथञ्चित्—जैसे-तैसे; धुनोति—हटाता है; सर्वम्—समस्त; हृदि—हृदय में; सन्निविष्ट:—प्रविष्ट ; पुंस:—व्यक्ति का; अयुक्तस्य—जिसका मन सत्य से पराङ्मुख है; नाना—अनेक; अर्थ:—अर्थ; भ्रम:—सन्देह; स:—वह; गुण—अच्छाई; दोष—बुराई; भाक्—देहधारण किये; कर्म—अनिवार्य कर्तव्य; अकर्म—नियत कर्तव्यों का न किया जाना; विकर्म—निषिद्ध कर्म; इति—इस प्रकार; गुण—अच्छाइयाँ; दोष—बुराइयाँ; धिय:—अनुभव करने वाले की; भिदा—यह अन्तर ।
[14] "सम्पूर्ण जगत का कर्ता होते हुए भी ईश्वर अकर्ता ही रहेगा। (गीता ४-- १३)
[15] एको देव: सर्वभूतेषु गूढ: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥ श्वेता ६ - ११।।
[16] तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् ॥ (ब्रह्मसूत्र १/१/७)
[17] हेयत्वावचनाच् च । ( ब्रसू-१,१.८ । )
[18] 'अव्यक्तोयम् अचिन्त्योयम'-गीता II-25.
[19] 'अविकार्यः अयमुच्यते'- (अविकार्योऽयामुच्यते।) गीता II-25।
[20] क्रियमानानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। सर्वविमूढ़ात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।
…….गीता ३ -२७ ।।
[21] लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मायान्घ |
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || अध्याय ३ श्लोक ३ ||
भगवान ने कहा ; लोके - संसार में ; अस्मिन – यह ; द्वि-विधा – दो प्रकार की ; निष्ठा – विश्वास ; पुरा – पहले ; प्रोक्ता - समझाया गया ; माया – मेरे द्वारा (श्रीकृष्ण) ; अनघ – निष्पाप ; ज्ञान-योगेन - ज्ञान के मार्ग से ; सांख्यनाम् – चिंतन की ओर प्रवृत्त लोगों के लिए ; कर्म-योगेन - कर्म के मार्ग से ; योगिनाम् - योगियों का;
[22] ‘अनघ’- अर्जुन के द्वारा अपने श्रेय की बात पूछी जानी ही उनकी निष्पापता और कर्तव्यनिष्ठा का परिचायक समझें ; क्योंकि अपने कल्याण की तीव्र इच्छा होने पर साधक के पाप और अपवित्रता विषयक अपूर्णता नष्ट हो जाते हैं।
‘लोकेऽस्मिन्द्विविविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया’- यहाँ ‘लोके’ पद का अर्थ मनुष्य शरीर समझना चाहिये; क्योंकि ज्ञानयोग और कर्मयोग- दोनों प्रकार की साधना के जरिये मानव शरीर को ही उन्नति का मार्ग मिलेगा।
‘निष्ठा’ - अर्थात समभाव में स्थिति एक ही है; इसे - ज्ञानयोग से और कर्मयोग से पाया जा सकेगा। इन दोनों योगों का अलग-अलग विभाग करने के लिये इस समबुद्धि को सांख्ययोग के विषय में कह दिया गया ( गीता में दूसरे अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में); इसे कर्मयोग के विषय में कहा जाना शेष था - ‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।‘
“पुरा” पद का अर्थ ‘अनादिकाल’ भी होता है और ‘अभी से कुछ पहले’ भी समझा जाएगा । यहाँ इस पद का अर्थ है- अभी से कुछ पहले अर्थात पिछला अध्याय, जिस पर अर्जुन की शंका है। यद्यपि दोनों निष्ठाएँ पहले बारी बार से कही जा चुकी है, तथापि किसी भी निष्ठा में कर्मत्याग की बात नहीं कही गई।
[23] यज्ञशिष्टशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।
………. श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १३ ।।
यज्ञ-शिष्ठ – यज्ञ में अर्पित भोजन के अवशेष ; अशिनः – खाने वाले ; सन्तः - साधु व्यक्ति ; मुच्यन्ते – मुक्त हो जाते हैं ; सर्व – सभी प्रकार के ; किल्बिषैः – पापों से ; भुञ्जते – आनंद लो ; ते - वे ; तू - परंतु ; अघम – पाप ; पापः – पापी ; तु - कौन ; पचन्ति – पकाना (भोजन) ; आत्म-कारणात् - अपने स्वयं के लिए;
‘यज्ञशिष्टाशिनः संतः’- कर्तव्यकर्मों का निष्काम भाव से विधिपूर्वक पालन करने पर[3] योग अथवा समता ही शेष रहती है। यज्ञशेष का अनुभव करने पर मनुष्य में किसी भी प्रकार का बंधन नहीं रहता।
[24] न च स्मार्तम् अतद्धर्माभिलापाच् छारीरश् च । ( ब्रसू-१,२.२० । ) ब्रह्मसूत्र १/२/२०
"लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षणिकल्मशाः। छिन्नद्वैघा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।" , "जिसका संदेह नष्ट हो गया है, जो परमात्मा में दृढ़ है, जो सभी जीवों के कल्याण में तल्लीन है, ऐसा ऋषि पापों से मुक्त हो जाता है और ब्रह्मधाम पाने का अधिकारी बन जाता है। " (श्रीमद्भागवद्गीता ५.२५)।
[25] “एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनं प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृत्युचति॥“ , “जो लक्षण स्थितप्रज्ञ साधक के बताये गए हैं, जैसा की उल्लिखित श्लोक के पहले गीता में दर्ज की गई , वह ब्रह्म अवस्था है;जिसे एक बार पा लेने के बाद व्यक्ति कभी भी मोह के वशीभूत नहीं होता। यदि यह अवस्था अन्तिम श्वास में भी प्राप्त की जाय तो उसे ब्रह्मधाम की ही प्राप्ति होगी " (गीता २ .७२)। [ब्रह्मनिर्वाण अर्थात विदेहमुक्ति]
[26] अन्नद भवन्ति भूतानि पर्जन्याद अन्न-सम्भवः।
यज्ञाद भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म-समुद्भवः।। श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय ३, श्लोक १४ ||
अन्नत – भोजन से ; भवन्ति - निर्वाह ; भूतानि – जीवित प्राणी ; पर्जन्यात् – वर्षा से ; अन्न – अन्न का ; संभवः – उत्पादन ; यज्ञात् – यज्ञ करने से ; भवति – संभव हो जाता है ; पर्जन्यः – वर्षा ; यज्ञः - यज्ञ करना ; कर्म - निर्धारित कर्तव्य ; समुद्भवः - से उत्पन्न;
[27] कर्म ब्रह्मोद्भवम् विद्धि ब्रह्मक्षर-समुद्भवम्।
तस्मात् सर्व-गतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। श्री मद्भागवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १५।।
कर्म - कर्तव्य ; ब्रह्मा - वेदों में ; उद्भवम् – प्रकट ; विद्धि - तुम्हें पता होना चाहिए ; ब्रह्मा – वेद ; अक्षर - अविनाशी (ईश्वर) से ; समुद्भवम् – प्रत्यक्ष रूप से प्रकट ; तस्मात् - इसलिये ; सर्व- गतम् – सर्वव्यापी ; ब्रह्मा - भगवान ; नित्यम् – सदैव ; यज्ञे – यज्ञ में ; प्रतिष्ठितम् - स्थापित
[28] 'स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्ष्यमश्नुते' - 'स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षय्यमश्नुते' - 'जो ब्रह्म की संगति प्राप्त करता है वह शाश्वत आनंद प्राप्त करता है' (गीता ५ .२२ )। ब्रह्म की संगति (अक्षरब्रह्मस्वरूप गुरु की संगति); जो मन, वचन और कर्म से अक्षरब्रह्म गुरु की संगति करता है, वह योग को धारण करने वाला आत्मा ही होगा।
'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥' , 'जिसने ज्ञान के द्वारा आत्मा के अज्ञान को नष्ट कर दिया , उसके लिए वह ज्ञान, सूर्य की तरह परमात्मा को प्रकट करनेवाला ही होगा (गीता ५ .१६ )।
[29] “अस्य महतो भूतस्य नि श्वासितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो 'थवंगिरसः” (बृहदारण्यक उपनिषद ४ .५ .११ ) [श्लोक ९]
"चार वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-सभी सर्वोच्च दिव्य स्वरुप व्यक्तित्व की सांस से निकले हैं।" वह दिव्य स्वरुप नियंता ईश्वर ही होंगे। इन सनातन वेदों में मनुष्य के कर्तव्य स्वयं ईश्वर ने बताये हैं।
[30] यज्ञो यज्ञ पुमांश्च चैव यज्ञशो यज्ञ यज्ञभवनः यज्ञभुक् चेति पंचात्मा यज्ञेष्विज्यो हरिः स्वयम् [ श्लोक १० ]
भागवतम (११ .१९ .३९ ) में, श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं : यज्ञो 'हं भगवत्तमः [ श्लोक ११ ] "मैं, वासुदेव का पुत्र, यज्ञ हूं ।" वेद कहते हैं: यज्ञो वै विष्णुः [ श्लोक १२] " यज्ञ वास्तव में स्वयं भगवान विष्णु ही हैं।"
---- द्वारा चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता
[1]
परित्राणाय
साधूनां
विनाशाय
च
दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।४ .८ ।।
परित्राणाय परिरक्षणाय साधूनां सन्मार्गस्थानाम् विनाशाय च दुष्कृतां पापकारिणाम् किञ्च धर्मसंस्थापनार्थाय धर्मस्य सम्यक् स्थापनं तदर्थं संभवामि युगे युगे प्रतियुगम्।।तत्
साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म संस्थापना के लिये, भगवान
प्रत्येक
युग
में
प्रगट
होता
हूँ।।
यहां
युग
से
अभिप्राय
सत्य
त्रेता
आदि
का
नहीं,
बल्कि
जब
भी
धर्म
की
हानि
हो
और
अधर्म
का
वर्चस्व
हो
उसी
वक्त;
वो
वक्त
कभी
भी
आ
सकता;
इसके
पहले
आता
ही
रहा
होगा;
समय
समय
पर
युग
पुरुष
को
अवतार
की
भूमिका
में
अवतरित
होते
हुए
दिखा
गया;
इसके
विविध
उपाख्यान
और
पुराणोक्त
के
व्याख्यान
भी
उपलब्ध
मिलेंगे।
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