सोमवार, 19 फ़रवरी 2024

विवर्तन और जीवन संग्राम

 



बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके तत्

परमात्मा चर-अचर सभी प्राणीयों के अन्दर और बाहर भी विद्यमान हैं; अति-सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा नहीं  जाना जा सकता; अत्यन्त दूर होने पर भी सभी प्राणीयों के अत्यन्त पास भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

……………. श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय १३, श्लोक १६.

जन्म लेने के मुहूर्त मात्र से जीव को जीवित रहने के लिए सचेष्ट होना होगा, ऐसा कर पाने की स्थिति उसके जीवनचर्या को जारी रख पाना निहायत ही कठिन हो जाएगा।  समाजबद्ध जीव होने के कारण मनुष्य अपने समुदाय और परिवार में नए सदस्य को बचाये रखने के लिए, निरोगी रखने के लिए और पुष्ट रखने के लिए भी प्रयास करते रहता है ; इसी नियमों के अधीन कर्म-काण्ड और यजन की संस्कृति का भी निर्माण हुआ ; परिवार की छत्रछाया में नए सदस्यों का आगमन, उसे परिवार  की संस्कृति और परंपरा से सुसंस्कृत करना यह सब विधिपूर्वक चलनेवाली प्रक्रिया का ही हिस्सा बना हुआ है।

आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर अगर विचार करें तो दृश्य जगत में भौतिक शरीर को सक्रिय और निरोगी रखने से जीवन संग्राम का अभिप्राय नहीं मन जा सकता; जीवन को सत्याश्रयी और नीतिपरायण होकर धर्म रक्षा के लिए और अधर्म के नाश के लिए क्रियाशील होना होगा: "उसी आशय की पुष्टि करने के लिए गीता में दर्ज एक  कथन था,"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता……… "; योगेश्वर फिर कहते हैं ,"सम्भवामि युगे युगे………. [1]" ; बार बार एक योद्धा को विधायक कर्म से जोड़ते हुए युद्ध करने की प्रेरणा देते रहे।  यद्यपि बड़े परिमंडल के सन्दर्भ में महर्षि वेदव्यास युद्ध, विनाश, हत्या, खून खराबे आदि का समर्थन नहीं करते; पर अगर धर्म रक्षा की बारी गई हो तो योद्धा को छू भी नहीं बैठना चाहिए और ही संन्यास लेने के बहाने हथियार डालकर युद्ध क्षेत्र से पलायन कर जाना चाहिए। भक्त के जीवन संग्राम में सदैव ही भगवान का साथ मिलता आया; भक्त प्रह्लाद की कथा से भी इस बात की पुष्टि हो जाती होगी; जब प्रह्लाद से पुछा गया कि क्या उनका भगवान एक पत्थर के खम्भे में हैं? भक्त ने हाँ कहा; उस बात को सत्यापित करने के लिए नृसिंह अवतार अवतरित हुए और दुष्ट का नाश करने के बाद भक्त की रक्षा कर गए।  

सन्दर्भ : ……

[1] कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः

ऋतेऽपि त्वां भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः 11.32

[2] हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥     

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥

गोस्वामी तुलसीदास (श्री रामचरित मानस)

[3] आशु हृदयग्रन्थिं निर्जिहीर्षु: परात्मन:

विधिनोपचरेद् देवं तन्त्रोक्तेन केशवम् श्री मदभागवत ११..४७

शब्दार्थ: :—जो; आशुशीघ्रता से; हृदय-ग्रन्थिम्हृदय की गाँठ को (भौतिक देह से झूठी पहचान); निर्जिहीर्षु:—काटने का इच्छुक; परात्मन:—दिव्य आत्मा का; विधिनाविधानों से; उपचरेत्उसे पूजा करनी चाहिए; देवम्भगवान्; तन्त्र- उक्तेनतंत्रों द्वारा वर्णित; तथा (वेदोक्तम के अतिरिक्त); केशवम्भगवान् केशव को .

[4] लब्ध्वानुग्रह आचार्यात् तेन सन्दर्शितागम:

महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतयात्मन: श्री मदभागवत ११..४८

शब्दार्थ : लब्ध्वाप्राप्त करके; अनुग्रह:—कृपा; आचार्यात्गुरु से; तेनउसके द्वारा; सन्दर्शितदिखाया जाकर; आगम:—वैष्णव तंत्रों (द्वारा दी गई पूजा-विधि); महा-पुरुषम्परम पुरुष को; अभ्यर्चेत्शिष्य को चाहिए कि पूजे; मूर्त्याविशेष साकार रूप में; अभिमतयाजिसे अच्छा समझा जाय; आत्मन:—अपने से

 [5] एवमग्न्यर्कतोयादावतिथौ हृदये :

यजतीश्वरमात्मानमचिरान्मुच्यते हि : श्री मदभागवत ११.. ५५

शब्दार्थ: एवम्इस तरह; अग्निअग्नि; अर्कसूर्य; तोयजल; आदौइत्यादि में; अतिथौमेहमान में; हृदयेहृदय में; भी; :—जो; यजतिपूजा करता है; ईश्वरम्ईश्वर को; आत्मानम्परमात्मा; अचिरात्बिना विलम्ब किये; मुच्यतेछूट जाता है; हिनिस्सन्देह; :—वह .

[6] क्षुत्तृट्त्रिकालगुणमारुतजैह्वशैष्णानस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित्

क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गोर्मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति श्री मदभागवत ११. . ११

शब्दार्थ: क्षुत्भूख; तृट्प्यास; त्रि-काल-गुणकाल की तीन अवस्थाओं की अभिव्यक्ति (यथा गर्मी, सर्दी, वर्षा आदि); मारुतहवा; जैह्वजीभ का भोग; शैष्णान्तथा शिश्न के; अस्मान्हम; अपारअसंख्य; जल-धीन्समुद्र; अतितीर्यपार करके; केचित्कुछ मनुष्य; क्रोधस्यक्रोध का; यान्तिप्राप्त करते हैं; विफलस्यजो कि व्यर्थ है; वशम्वेग को; पदेपाँव या खुर (के चिह्न) में; गो:—गाय के; मज्जन्तिडूब जाते हैं; दुश्चरकर पाना कठिन; तप:— तपस्या; तथा; वृथाव्यर्थ; उत्सृजन्तिवे फेंक देते हैं .

[7] दूरे हरिकथा: केचिद् दूरे चाच्युतकीर्तना:

स्त्रिय: शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् श्री मदभागवत ११. . 

शब्दार्थ : दूरेबहुत दूर; हन्-कथा:—भगवान् हरि की बातों से; केचित्कई लोग; दूरेकाफी दूर; तथा; अच्युतत्रुटिरहित; कीर्तना:—कीर्ति; स्त्रिय:—स्त्रियाँ; शूद्र-आदय:—शूद्र तथा अन्य पतित जातियाँ; तथा; एवनिस्सन्देह; तेवे; अनुकम्प्या:—अनुग्रह के पात्र हैं; भवादृशाम्आप जैसे व्यक्तियों के .

[8] विप्रो राजन्यवैश्यौ वा हरे: प्राप्ता: पदान्तिकम्

श्रौतेन जन्मनाथापि मुह्यन्त्याम्नायवादिन: श्री मदभागवत ११. .

शब्दार्थ: विप्र:—ब्राह्मण; राजन्य-वैश्यौराजसी वर्ग तथा वैश्य लोग; वाअथवा; हरे:—हरि के; प्राप्ता:—निकट जाने की अनुमति दिये जाने पर; पद-अन्तिकम्चरणकमलों के पास; श्रौतेन जन्मनावैदिक दीक्षा का द्वितीय जन्म प्राप्त कर चुकने पर; अथतत्पश्चात्; अपिभी; मुह्यन्तिमुग्ध हो जाते हैं; आम्नाय-वादिन:—अनेक दर्शनों को स्वीकार करते हुए .

[9] श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया त्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा

जातस्मयेनान्धधिय: सहेश्वरान् सतोऽवमन्यन्ति हरिप्रियान् खला: श्री मदभागवत ११. .

शब्दार्थ : श्रियाअपने ऐश्वर्य (सम्पत्ति आदि) द्वारा; विभूत्याविशिष्ट क्षमताओं द्वारा; अभिजनेनउच्च कुल से; विद्ययाशिक्षा से; त्यागेनत्याग से; रूपेणसौन्दर्य से; बलेनबल से; कर्मणाकर्म द्वारा; जातउत्पन्न; स्मयेनऐसे गर्व से; अन्धअन्धा हुआ; धिय:—बुद्धि वाला; सह-ईश्वरान्भगवान् सहित; सत:—सन्त स्वभाव वाले भक्तगण; अवमन्यन्तिअनादर करते हैं; हरि-प्रियान्भगवान् हरि के प्रियजनों को; खला:—दुष्ट व्यक्ति .

[10] सर्वेषु शश्वत्तनुभृत्स्ववस्थितं

यथा खमात्मानमभीष्टमीश्वरम्

वेदोपगीतं शृण्वतेऽबुधा

मनोरथानां प्रवदन्ति वार्तया श्री मदभागवत ११. . १०

शब्दार्थ : सर्वेषुसमस्त; शश्वत्नित्य; तनु-भृत्सुदेहधारी जीवों में; अवस्थितम्स्थित; यथाजिस तरह; खम्आकाश; आत्मानम्परमात्मा को; अभीष्टम्अत्यन्त पूज्य; ईश्वरम्परम नियन्ता को; वेद-उपगीतम्वेदों द्वारा प्रशंसित; भी; शृण्वतेनहीं सुनते हैं; अबुधा:—अज्ञानीजन; मन:-रथानाम्मनमाने आनन्द के; प्रवदन्तिपरस्पर विवाद करते जाते हैं; वार्तयाकथाएँ .

[11] धनं धर्मैकफलं यतो वै ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशान्ति

गृहेषु युञ्जन्ति कलेवरस्य मृत्युं पश्यन्ति दुरन्तवीर्यम् श्री मदभागवत ११. . १२

शब्दार्थ : धनम्धन; भी; धर्म-एक-फलम्धार्मिकता ही, जिसका एकमात्र उचित फल है; यत:—जिस (धार्मिक जीवन) से; वैनिस्सन्देह; ज्ञानम्ज्ञान; -विज्ञानम्प्रत्यक्ष अनुभूति सहित; अनुप्रशान्तितथा तदुपरान्त कष्ट से मोक्ष; गृहेषुअपने घरों में; युञ्जन्तिउपयोग करते हैं; कलेवरस्यअपने भौतिक शरीर का; मृत्युम्मृत्यु; पश्यन्तिनहीं देख सकते; दुरन्तदुर्लंघ्य; वीर्यम्जिसकी शक्ति

[12] द्विषन्त: परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम्

मृतके सानुबन्धेऽस्मिन् बद्धस्नेहा: पतन्त्यध: श्री मदभागवत ११. . १५

हित्वात्ममायारचिता गृहापत्यसुहृत्स्त्रिय:

तमो विशन्त्यनिच्छन्तो वासुदेवपराङ्मुखा: श्री मदभागवत ११. . १८

शब्दार्थ: द्विषन्त:—द्वेष करते हुए; पर-कायेषुअन्यों के शरीरों के भीतर (आत्माएँ); स्व-आत्मानम्अपने आपको; हरिम् ईश्वरम्भगवान् हरि को; मृतकेलाश में; -अनुबन्धेअपने सम्बन्धियों समेत; अस्मिन्इस; बद्ध-स्नेहा:—स्थिर स्नेह वाले; पतन्तिगिरते हैं; अध:—नीचे की ओर ; हित्वात्याग कर; आत्म-मायापरमात्मा की माया द्वारा; रचिता:—तैयार किये गये; गृहघर; अपत्यबच्चे; सुहृत्मित्र; स्त्रिय:—पत्नियाँ; तम:—अंधकार में; विशन्तिप्रवेश करते हैं; अनिच्छन्त:— चाहते हुए; वसुदेव-पराक्-मुखा:— भगवान् वासुदेव से मुख फेरने वाले .

[13] स्वपादमूलं भजत: प्रियस्य त्यक्तान्यभावस्य हरि: परेश:

विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद् धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्ट: श्री मदभागवत ११. . ४२

पुंसोऽयुक्तस्य नानार्थो भ्रम: गुणदोषभाक्

कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा श्री मदभागवत ११. .

शब्दार्थ: स्व-पाद-मूलम्भक्तों के शरण, कृष्ण के चरणकमल; भजत:—पूजा में लगा हुआ; प्रियस्यकृष्ण को अत्यन्त प्रिय; त्यक्तत्यागा हुआ; अन्यदूसरों के लिए; भावस्यस्वभाव वाले का; हरि:—भगवान्; पर-ईश:—भगवान्; विकर्मपापकर्म; यत्जो भी; तथा; उत्पतितम्घटित; कथञ्चित्जैसे-तैसे; धुनोतिहटाता है; सर्वम्समस्त; हृदिहृदय में; सन्निविष्ट:—प्रविष्ट ; पुंस:—व्यक्ति का; अयुक्तस्यजिसका मन सत्य से पराङ्मुख है; नानाअनेक; अर्थ:—अर्थ; भ्रम:—सन्देह; :—वह; गुणअच्छाई; दोषबुराई; भाक्देहधारण किये; कर्मअनिवार्य कर्तव्य; अकर्मनियत कर्तव्यों का किया जाना; विकर्मनिषिद्ध कर्म; इतिइस प्रकार; गुणअच्छाइयाँ; दोषबुराइयाँ; धिय:—अनुभव करने वाले की; भिदायह अन्तर

[14] "सम्पूर्ण जगत का कर्ता होते हुए भी ईश्वर अकर्ता ही रहेगा। (गीता -- १३)

[15] एको देव: सर्वभूतेषु गूढ: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा

कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च श्वेता - ११।।

[16] तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् (ब्रह्मसूत्र //)

[17] हेयत्वावचनाच् ( ब्रसू-,. )

[18] 'अव्यक्तोयम् अचिन्त्योयम'-गीता II-25.

[19] 'अविकार्यः अयमुच्यते'- (अविकार्योऽयामुच्यते।) गीता II-25

[20] क्रियमानानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। सर्वविमूढ़ात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।

…….गीता -२७ ।।

[21] लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मायान्घ |

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || अध्याय श्लोक ||

भगवान ने कहा ; लोके - संसार में ; अस्मिनयह ; द्वि-विधादो प्रकार की ; निष्ठाविश्वास ; पुरापहले ; प्रोक्ता - समझाया गया ; मायामेरे द्वारा (श्रीकृष्ण) ; अनघनिष्पाप ; ज्ञान-योगेन - ज्ञान के मार्ग से ; सांख्यनाम्चिंतन की ओर प्रवृत्त लोगों के लिए ; कर्म-योगेन - कर्म के मार्ग से ; योगिनाम् - योगियों का;

[22] ‘अनघ’- अर्जुन के द्वारा अपने श्रेय की बात पूछी जानी ही उनकी निष्पापता और कर्तव्यनिष्ठा का परिचायक समझें ; क्योंकि अपने कल्याण की तीव्र इच्छा होने पर साधक के पाप और अपवित्रता विषयक अपूर्णता नष्ट हो जाते हैं।

लोकेऽस्मिन्द्विविविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया’- यहाँलोकेपद का अर्थ मनुष्य शरीर समझना चाहिये; क्योंकि ज्ञानयोग और कर्मयोग- दोनों प्रकार की साधना के जरिये मानव शरीर को ही उन्नति का मार्ग मिलेगा।

निष्ठा’ - अर्थात समभाव में स्थिति एक ही है; इसे - ज्ञानयोग से और कर्मयोग से पाया जा सकेगा। इन दोनों योगों का अलग-अलग विभाग करने के लिये  इस समबुद्धि को सांख्ययोग के विषय में कह दिया गया ( गीता में दूसरे अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में); इसे कर्मयोग के विषय में कहा जाना शेष था  - ‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु

पुरापद का अर्थअनादिकालभी होता है औरअभी से कुछ पहलेभी समझा जाएगा यहाँ इस पद का अर्थ है- अभी से कुछ पहले अर्थात पिछला अध्याय, जिस पर अर्जुन की शंका है। यद्यपि दोनों निष्ठाएँ पहले बारी बार  से कही  जा चुकी है, तथापि किसी भी निष्ठा में कर्मत्याग की बात नहीं कही गई।

[23] यज्ञशिष्टशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बषैः भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।

………. श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय श्लोक १३ ।।

यज्ञ-शिष्ठयज्ञ में अर्पित भोजन के अवशेष ; अशिनःखाने वाले ; सन्तः - साधु व्यक्ति ; मुच्यन्तेमुक्त हो जाते हैं ; सर्वसभी प्रकार के ; किल्बिषैःपापों से ; भुञ्जतेआनंद लो ; ते - वे ; तू - परंतु ; अघमपाप ; पापःपापी ; तु - कौन ; पचन्तिपकाना (भोजन) ; आत्म-कारणात् - अपने स्वयं के लिए;

यज्ञशिष्टाशिनः संतः’- कर्तव्यकर्मों का निष्काम भाव से विधिपूर्वक पालन करने पर[3] योग अथवा समता ही शेष रहती है। यज्ञशेष का अनुभव करने पर मनुष्य में किसी भी प्रकार का बंधन नहीं रहता।

[24] स्मार्तम् अतद्धर्माभिलापाच् छारीरश् ( ब्रसू-,.२० ) ब्रह्मसूत्र //२०

"लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षणिकल्मशाः। छिन्नद्वैघा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।" , "जिसका संदेह नष्ट हो गया है, जो परमात्मा में दृढ़ है, जो सभी जीवों के कल्याण में तल्लीन है, ऐसा ऋषि पापों से मुक्त हो जाता है और ब्रह्मधाम पाने का अधिकारी बन जाता है। " (श्रीमद्भागवद्गीता .२५)

[25] “एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनं प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृत्युचति॥“ , “जो लक्षण स्थितप्रज्ञ साधक के बताये गए हैं, जैसा की उल्लिखित श्लोक के पहले गीता में दर्ज की गई , वह ब्रह्म अवस्था है;जिसे  एक बार पा लेने  के बाद व्यक्ति कभी भी मोह के वशीभूत नहीं होता। यदि यह अवस्था अन्तिम श्वास में भी प्राप्त की  जाय तो उसे ब्रह्मधाम की ही प्राप्ति होगी " (गीता .७२) [ब्रह्मनिर्वाण अर्थात विदेहमुक्ति]

[26] अन्नद भवन्ति भूतानि पर्जन्याद अन्न-सम्भवः।

यज्ञाद भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म-समुद्भवः।। श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय , श्लोक १४ ||

अन्नतभोजन से ; भवन्ति - निर्वाह ; भूतानिजीवित प्राणी ; पर्जन्यात्वर्षा से ; अन्नअन्न का ; संभवःउत्पादन ; यज्ञात्यज्ञ करने से ; भवतिसंभव हो जाता है ; पर्जन्यःवर्षा ; यज्ञः - यज्ञ करना ; कर्म - निर्धारित कर्तव्य ; समुद्भवः - से उत्पन्न;

[27] कर्म ब्रह्मोद्भवम् विद्धि ब्रह्मक्षर-समुद्भवम्।

तस्मात् सर्व-गतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।  श्री मद्भागवद्गीता अध्याय श्लोक १५।।

 

कर्म - कर्तव्य ; ब्रह्मा - वेदों में ; उद्भवम्प्रकट ; विद्धि - तुम्हें पता होना चाहिए ; ब्रह्मावेद ; अक्षर - अविनाशी (ईश्वर) से ; समुद्भवम्प्रत्यक्ष रूप से प्रकट ; तस्मात् - इसलिये ; सर्व- गतम्सर्वव्यापी ; ब्रह्मा - भगवान ; नित्यम्सदैव ; यज्ञेयज्ञ में ; प्रतिष्ठितम् - स्थापित

[28] ' ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्ष्यमश्नुते' - ' ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षय्यमश्नुते' - 'जो ब्रह्म की संगति प्राप्त करता है वह शाश्वत आनंद प्राप्त करता है' (गीता .२२ ) ब्रह्म की संगति (अक्षरब्रह्मस्वरूप गुरु की संगति); जो मन, वचन और कर्म से अक्षरब्रह्म गुरु की संगति करता है, वह योग को धारण करने वाला आत्मा ही होगा।

'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥' , 'जिसने ज्ञान के द्वारा आत्मा के अज्ञान को नष्ट कर दिया , उसके लिए वह ज्ञान, सूर्य की तरह परमात्मा को प्रकट करनेवाला ही होगा  (गीता .१६ )

[29] “अस्य महतो भूतस्य नि श्वासितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो 'थवंगिरसः  (बृहदारण्यक उपनिषद . .११ ) [श्लोक ]

"चार वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-सभी सर्वोच्च दिव्य स्वरुप  व्यक्तित्व की सांस से निकले हैं।" वह दिव्य स्वरुप नियंता ईश्वर ही होंगे।  इन सनातन वेदों में मनुष्य के कर्तव्य स्वयं ईश्वर ने बताये हैं।

[30] यज्ञो यज्ञ पुमांश्च चैव यज्ञशो यज्ञ यज्ञभवनः यज्ञभुक् चेति पंचात्मा यज्ञेष्विज्यो हरिः स्वयम् [ श्लोक १० ]

भागवतम (११ .१९ .३९ ) में, श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं : यज्ञो 'हं भगवत्तमः [ श्लोक ११ ] "मैं, वासुदेव का पुत्र, यज्ञ हूं " वेद कहते हैं: यज्ञो वै विष्णुः [ श्लोक १२] " यज्ञ वास्तव में स्वयं भगवान विष्णु ही हैं।"

 

---- द्वारा चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता



[1] परित्राणाय साधूनां विनाशाय दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।४ . ।।

परित्राणाय परिरक्षणाय साधूनां सन्मार्गस्थानाम् विनाशाय दुष्कृतां पापकारिणाम् किञ्च धर्मसंस्थापनार्थाय धर्मस्य सम्यक् स्थापनं तदर्थं संभवामि युगे युगे प्रतियुगम्।।तत्

साधु पुरुषों के रक्षण,  दुष्कृत्य करने वालों के नाश,  तथा धर्म संस्थापना के लिये,  भगवान  प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ।। यहां युग से अभिप्राय सत्य त्रेता आदि का नहीं, बल्कि जब भी धर्म की हानि हो और अधर्म का वर्चस्व हो उसी वक्त; वो वक्त कभी भी सकता; इसके पहले आता ही रहा होगा; समय समय पर युग पुरुष को अवतार की भूमिका में अवतरित होते हुए दिखा गया; इसके विविध उपाख्यान और पुराणोक्त के व्याख्यान भी उपलब्ध मिलेंगे।

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