सोमवार, 19 फ़रवरी 2024

ज्ञान और भक्ति

 

ज्ञान और भक्ति का सही सम्मलेन ही वह पड़ाव है जहाँ से कर्म को एक सही दिशा मिल जाया करेगी और व्यक्ति अपने लिए एक निर्णायक मार्ग कि तलाशी कर सकेगा ; उसे अंतरात्मा के साथ जुड़े हुए परमात्मा का सान्निध्य भी अनुभव होता रहेगा।

कभी कभी हम इस भ्रम में जाते हैं जब मन में यह विचार पनपने लगता है कि धर्मात्मा और महात्मा बनने के लिए शायद सबकुछ छोड़कर सभी विधायक कर्मों का त्याग करके तपस्या करते रहना पड़ेगा ; शायद दिन और रात के बारे में भी जानकारी मिल पाएगी; शायद सभी रिश्ते नातों का त्याग कर देना होगा; ऐसा भी हो सकता कि किसी एकांत में जाकर समाज से हटकर उपायाचक के नाते जीवन जीने के लिए प्रस्तुत होना पड़े।  ऐसे संत महात्मा जरूर हुए जिन्होंने भोग्य वस्तु का त्याग करके ज्ञान मार्ग पर चलकर भक्त वत्सल के लिए मिसाल कायम कर गए। पर ऐसा शायद ही हुआ होगा जिसमें किसी तपस्वी साधक ने भोजन, श्वास वायु और शौच संतोष का त्याग किया हो ; जीवन जीने के प्रयत्न के अंतर्गत हर जीव को भोजन, श्वास वायु, शौच , संतोष आदि का सहारा तो लेना ही होगा।  यहीं से जीव मात्र के लिए यह अनिवार्य बन जाता है कि उन्हें प्रकृति के अधीन रहना पड़े और प्रकृति के कुछ नियमों का पालन करे।  साधना कितनी भी गहन हो बीच में नींद आने लगे तो फिर तपस्या को विराम देना ही होगा।

  तपस्या, ध्यान, प्राण वायु का नियंत्रण, कर्म कि शुद्धता आदि विषयों के बारे में हम कुछ भी अतिशयोक्ति करते समय इतना तो ध्यान अवश्य रखें कि हमें उस सर्व शक्तिमान के अनुकम्पा के अधीन ही जीवन जीना होगा; उसी विधायक कर्म को भी अपनाना होगा जिसके बल पर हमारे जीवन का रथ गतिशील हो सके; उन्हीं लोगों के बीच रहना होगा जिनके बीच हमारे मन को संतोष मिले; उन्हीं लोगों के लिए काम करना होगा जिनसे हमें कुछ उम्मीदें रही हो; उसी तत्व का संरक्षण और सम्प्रचार करना होगा जिसके जरिये हम सार्विक समाधान और समन्वय का सपना देखा करते हों; उन्ही तत्वों को प्रतिफलित होते हुए देखना होगा जिनके बीच दिव्य जीवन कि स्वच्छंद गति सुनिश्चित हो सके।

 तीन प्रकार के लोग अपने चारों और तपस्या और इष्ट चिंतन करते हुआ पाए जा सकेंगे: कुछ ऐसे लोग रहेंगे जिन्हें धन - सम्पदा और पैसा चाहिए, कुछ ऐसे भी लोग रहेंगे जिन्हें पैसों से ज्यादा चिंता प्रतिष्ठा पाने कि रहेगी; तीसरे कुछ ऐसे प्रकार रहेंगे जिन्हें तो पैसा चाहिए और ही प्रतिष्ठा, उन्हें सिर्फ उस दिव्य ज्ञान का अनुसंधान करने कि अभिलाषा रहेगी जिसके आधार पर व्यक्ति के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सके।  वह एक ऐसे मार्ग का पथिक होना चाहेगा जिसपर चलकर जन्म-मृत्यु के द्वन्द से खुद को मुक्त किया जा सके।

 

आध्यात्मिक परिपक्वता    

पहले  पहल  तो एक ऐसी परिस्थिति बनती है जब हम खुद को किसी भी कृति का कर्ता मान लेते हैं और उसी भ्रम जीवन बिता देते हैं कि हमने कुछ किया; कुछ ऐसी कृति जिसका श्रेय हम चाहते हैं कि हमें मिले।  फिर एक ऐसा पड़ाव आता जब हमारी समझ बनती है कि सृष्टि और विनाश तो प्रकृति के नियमों के अधीन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और इसमें पदार्थ और ऊर्जा का आपसी मेल बंधन का विज्ञान क्रियाशील निकाय बना; यह भी एक भवितव्य ही है है कि हर जीव के जीवन में मृत्यु का अनुशाशन कभी भी सकता।  एक पड़ाव ऐसा भी आता है जब व्यक्ति जीवन को काफी मूल्यवान मानते हुए सभी अल्पावधि के सुखों को छोड़कर उस आनंदमय जीवन का पथिक बन जाना पसंद करेगा जिसपर चलकर आत्मा और अरमात्मा के रिश्तों को उनके सही स्वरुप में उपलब्धि किया जा सके और जीव के लिए सम्यक ज्ञान के आधार पर कर्म बंधन से मुक्ति का मार्ग प्रशांत किया जा सके।

 शास्त्र, पुराण, आगम , निगम आदि सभी दिव्य ग्रंथों और संत वाणी का एक ही मकसद रहा कि भक्त को कर्म के बंधन से और माया के संसार से मुक्त किया जा सके; उस मुक्ति के मार्ग पर सबका सम्यक अभिषेक हो सके; यह कुछ ऐसा ही हुआ कि किसी बगीचे में जाकर एक फल खाने के बाद संत सभी भक्तों को बताने लगे और यही आग्रह करते रहे कि बाकी के भक्त वत्सल भी उस बगीचे में दाखिल होकर उस फल का आस्वाद लें और जीवन को धन्य कर लें; यह कुछ ऐसा ही अनुभव मन जाएगा जैसे एक परिंदा ऊंची उड़ान भरते हुए नीले आसमान में गोते लगाता हो; जैसे एक भक्त प्रेम पूर्वक अपने भगवान को भोजन कराता हो और बाकी भक्तों से निवेदन करता हो कि वो भी ऐसा ही करें। इस प्रकार दिव्य जीवन का अनुसंधान करनेवाल साधक कभी भी अकेले मुक्त हो जाने के लिए तपस्या शायद ही करता हो।  उसे समग्र समाज को मुक्त करने कि चिंता सताया करेगी; उसे ऐसा भी लगेगा कि किसी भी भक्त के जीवन में संकट ही रहे; भक्त वत्सल को ईश्वर अनुकम्पा मिले। यह कुछ ऐसी ही परिस्थिति बन जाया  करेगी जिसके अंतर्गत भक्त प्रह्लाद अपने प्रपंचक पिता के लिए इष्ट के पास क्षमा याचना करते रहे; नचिकेता विधाता से यह निवेदन करते रहे कि उनके पिता को यश और प्रतिष्ठा मिले ; शत्रु भाव नष्ट हो जाने के और भी कई प्रमाण गिनाये जा सकेंगे जिसके बल पर इतना तो अवश्य कहा जा सकेगा कि दिव्य जीवन कि अनुसन्धित्सा रखनेवालों के मन से शत्रुभाव नष्ट हो जाता होगा।  इसके अभ्यासी ही और सटीक तरीके से बता सकेंगे कि उनके मन, चित्त और बुद्धि पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें यह तय कर लेना होता है कि ध्रुव सत्य के अनुसंधान में ही जीवन बिताना होगा।  भगवद्गीता में भी कर्म संन्यास और कर्मयोग के बीच हर प्रकार के समानता के बारे में बताई जाती है और यह भी माना गया कि सभी प्रकार के द्वन्द से मुक्त होते होते व्यक्ति माया के बंधनों से मुक्त हो जाया करेगा। केवल अल्पज्ञानी जन इस भ्रम में जकड़े रह जाते हैं कि कर्मयोग और कर्म संन्यास शायद कुछ अलग  अलग विधाएँ हैं।   ( V. -

 

वास्तव में कर्मयोग और कर्म संन्यास को एक सामान ही देखा जाना चाहिए।  भक्ति के साथ कर्म किये बिना उस परिपक्वता को पाना भी संभव ही नहीं।  सभी इन्द्रियों को भली भाँती वश में रखते हुए बुद्धि का प्रयोग करते हुए कर्म करनेवालों को सहजता से ही कर्म बंधन से मुक्ति मिल जाय करेगी; दृढ निश्चय रखनेवाले खुद को कर्ता मानते हुए कर्म करते रहेंगे;  कर्मफल इष्ट को अर्पित करदेनेवालों को पाप कभी भी ग्रसित नहीं कर सकता; योगीजन के लिए कर्म का प्रयोजन सिर्फ आत्म शुद्धि पाने से है; आसक्ति रहित होकर कर्म करते रहने के कारण भी योगी जन कर्म बंधन से खुद को मुक्त रखने में समर्थ हो जाया करेंगे; निरासक्त व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी सभी रकार के कर्मबन्धन से मुक्त रहेंगे (भगवद्गीता V.  -१२)   कर्म फलों के बोध का पनपना प्रकृति के अधीन है; सर्वव्यापी परमात्मा भी पाप-पुण्य के कर्मों से निर्लिप्त ही रहेंगे ; मोहान्ध भक्तों की बुद्धि भी अज्ञान से आच्छादित रहेगी ; ज्ञान तो उस सूर्यप्रभा के सामान ही है जिसकी किरणों से संसार प्रकाशमान और व्यक्त हो उठता है; वह ज्ञान का प्रकाश ही है जिसके प्रभाव से सभी प्रकार के पा कर्मों का नाश हो जाया करेगा, इष्ट के प्रति श्रद्धा  और विशवास बढ़ेगा, विधायक कर्मों में लिप्त रहते हुए मुक्ति पाने के मार्ग पर बढ़ाते रहेंगे  (भगवद्गीता V.  १३ -१६)

 

बुद्धि, समझ, श्रद्धा, विशवास और संतोष को किसी भी साधक के जीवन में तभी स्थिर होता हुआ देखा जा सकेगा जब उनके जीवन में  हम दिव्य ज्ञान का उत्सर्जन होता हुआ परिलल्क्षित कर सकें। यह एक ऐसी परिस्थित है जहाँ व्यक्ति सभी नाशवान तत्वों से खुद को मुक्त करते हुए दिव्यज्ञान का साधक बने और ध्रुव सत्य का अनुसंधान करता रहे।  

 

कभी कभी यह भी दावे किये जाते रहे हैं कि दिव्य जीवन और ध्रुव सत्य का अनुसंधान करनेवालों कि गतिविधि से कर्म विमुखता ही पनपेगी और व्यक्ति कर्तव्य कर्म से भाग खड़े होने के लिए मार्ग निकालने लगेंगे; ऐसे कई साधक बनेंगे जो यह कहकर कर्म विमुख हो जाया करेंगे कि उन्हें समय नहीं मिलता; कुछ ऐसे साधक रहेंगे जिन्हें भक्त वत्सल लोगों के पास से सिर्फ दान पाने कि अभिलाषा रहेगी; कई साधक ऐसे भी हो जाया करेंगे जिन्हें धर्म कि एक नयी  पगडण्डी बनाने कि अभिलाषा रहेगी।  वैसे अनेकांतवादी यह भी विचार रख देते हैं कि "जितने मत हैं उतने ही पथ हैं"  ऐसा होना भी चाहिए; तभी तो जलधारा को पहाड़ी से उतर आने के लिए विविध मार्ग का अनुसंधान करते हुए अग्रसर रहना होगा; यह भी मान्यता बन सकेगी: सभी धाराएं गंगाजी कि पवित्र धरा रहे और उतना ही मंगलकारी हो।  यह तो हमारी समझ पर ही टिका रहेगा कि हम उस धरा को क्या समझें और कैसे स्वीकार करें।  यह तो कुछ ऐसा ही हुआ कि एक कटोरा लेकर हमने समुद्र से पानी उठाया , फिर उस पानी को समुद्र के विस्तीर्ण जलराशि में मिला दिया और यह तलाश करने लग गए कि समुद्र में मिलनेवाले पानी का कौन सा हिस्सा उस कटोरे में था ! मौजूदा परिस्थिति में विविध प्रकार से विडम्बना का निर्माण होता आया जब हम किसी समुदाय को मतों और पंथों में बँट जाते हुए देखते आये हैं।  संत महात्मा का यही प्रयास रहेगा कि सभी समुदाय को किसी ख़ास मापदंड पर एक किया जा सके और उन्हें शाश्वत मार्ग का पथिक बनाया जा सके; अब उस मार्ग का कुछ भी नाम हो और उस विचारधारा को किधर से भी बहने दिया जाता हो ; अंततः एक ही पड़ाव पर सबका महा सम्मलेन होना एक भवितव्य ही है।

 

इसमें कोई संदेह नहीं कि वेद, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, पुराण, आगम ,निगम आदि पवित्र ग्रंथों के जरिये संत महात्मा समय समय हमारा दिशा निर्देशित करते आए और ऐसा आगे भी करते ही रहेंगे; फिर भी एक ऐसा विचार बनता है कि अब जलबिंदु को जलबिंदु ही समझा जाय और हमारा मार्ग उस दैवत्व के विशुद्ध तत्व को सही प्रकार से समझने के लिए बने जिसपर चलकर संत महात्मा समग्र मानव समाज को विशुद्ध दैवत्व के उपस्थिति का अनुभव दे सकें।  जीव मात्र के अभिव्यक्त होने की क्रिया में उस देवत्व को सन्निविष्ट  रहते हुए भी देखा जा सकेगा; सिर्फ इतना ही नहीं उस पूर्ण देवत्व का अंशमात्र को जीव चेतना में भी परिलक्षित किया जा सकेगा।

 

आत्म प्रत्यय    

इस कथा का प्रसंग मेरे बनारस प्रवास से जुड़ा हुआ है।  गुरु महाराज की आरती ख़तम होते ही मैं एक रिक्शेवाले से मुझे गंगाजी जी के घाट तक ले जाने के लिए कहा।  रिक्शावाला किराए के बारे में कुछ नहीं कहा और मैंने भी पहले पहल पूछना कुछ मुनासिब नहीं समझा ; बनारस को आधुनिक बनाने का सिलसिला चल पड़ा था; श्री महंतजी को कहीं भी कूड़ा कचरा का पड़ा रहना मंजूर नहीं; परिषद् का मुखिया भी उसी तत्परता से अपने आदमियों को काम पर लगा रखा था।

घाट तक जाने की अनुमति मिल पाने की सूरत में मुख्य गिरजा घर के पास ही उतरना पड़ा और फिर वहां से चहल-कदमी का सिलसिला चल पड़ा।  घाट पर उतरने के पहले एक सार्वजनिक स्थल पर बैठा ; वहां चाय वाले के पास से के प्याला चाय लिया।  बगल में एक और साथी बैठे थे, चेहरा कुछ उतरा हुआ लग रहा था; उन्हें भी चाय दिया गया।  वार्तालाप से पता चला वो महाशय पिछले चार पांच दिन से घाट पर ही हैं और किसी आश्रम आदि में जगह पाने का प्रयास कर रहे हैं।   "एक मठ में गया तो उन्होंने पहले शिष्य बनने के लिए कहा; उनहोंने जो जटा बनाया था उसके साथ उम्र का कोई तालमेल ही नहीं बैठ रहा था।  फिर आगे कैसे बढ़ें !", उसके मन में पनपनेवाले शंका को पूरी तरह से झुठलाया भी नहीं जा सकता।  ऐसे भंड और प्रपंच करनेवालों की संख्या काफी है; पर्ची निकलनेवालों की तो भरमार ही है , और फिर बातों का पतंग तो आसमान में भरा पड़ा ही समझें।  कुछ भी हो मेरा यही मकसद रहा कि वार्तालाप के जरिये उसके घर कि स्थिति का पता लगाया जाए।  घर में एक बेटा, एक बेटी और बूढी माँ के साथ धर्म पत्नी रह रही है।  सबेरे शाम गाय के नाम पहली रोटी और कुत्ते के नाम की आखरी रोटी भी बनती है।  उसे व्यवसाय में सफलता नहीं मिल रही थी; वो जो भी व्यवसाय खोलने की योजना बनाता उसका पडोसी वही बना डालता और स्पर्धा करने लग जाता।  बातचीत से लग रहा था इंसान काफी सुलझा हुआ और नेकदिल था।  महामारी काल में बम्बई का पसारा समेटकर घर चूका था; जड़ से उखाड़ा पौधा फिर से उतना अच्छा जड़ कहाँ पकड़ पाता होगा; पडोसी के लिए तो उसका वापस आना मतलब कुछ बिपरीत धारा में गंगाजी का बहना ही हुआ! वैसे बनारस में तो गंगाजी उत्तर दिशा में ही चल पड़ी हैं।  

 

वो अजनबी इंसान फिरसे बोला, “आपसे मिलकर मुझे अच्छा लग रहा है; मैंने घर छोड़कर ठीक ही किया हूँ?", यह कह पाना मेरे लिए काफी कठिन था कि उसने घर छोड़कर ठीक भी किया होगा या नहीं! उसके बारे में और जानकारी पाने के बाद मुझे लगा उसका अभी घर छोड़ना शायद समस्या से भागने जैसा हुआ; बेटी की  जिंदगी का अहम् पड़ाव, बेटे को होनहार बनाना, माताजी को गंगा यात्रा कराना ऐसे कई काम हैं जिसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदारी उस अजनबी इंसान पर डल चुकी थी।  अब उसका हौसला बढ़ाने के लिए फिर कहा गया कि उसे किसी और व्यवसाय के बारे में प्रयास करना चाहिए, प्रयास करते करते रास्ते मिल ही जाएंगे; समस्या छोड़कर भागने से सभी समस्याओं से पीछा नहीं छूटनेवाला।  लोगों का विशवास भी हासिल करना कठिन ही होगा।

 

एक और पड़ाव पर उसे कुछ नकारात्मक उत्तर ही मिला; वहां दाखिल होने के लिए और गेरुवा धारण करने के लिए नौजवान होना होगा, ब्रह्मचारी होना होगा; देश दुनिया से अलग होगर देश दुनिया का काम करना होगा।  कहना तो बड़ा आसान ही समझें पर शायद ही कोई ठीक से कर पाते हों ! यह तो स्पष्ट नहीं हो रहा था कि कुल कितने ठिकानों से उसे में उत्तर मिला होगा, पर मायूसी का परिमाण इस बात कि गवाही जरूर दे रही थी कि कहीं से उसे सकारात्मक उत्तर नहीं मिल पाया।  एक और पता है: क्रिया योगियों का पंडाल; वहां तो घर गृहस्थी देखते हुए तपस्या करने की बात की जाती रही: योगी बाबाजी महाराज  के अनुगामियों और उपासकों का ऐसा ही कुछ पहल भी काफी दिनों से चलता भी रहा होगा।  उस आगंतुक को उस क्रियायोग और उस योग में लगे समूहों के बारे में जानकारी दी गई।  किसी अनजान ठिकानों तक पहुँचने की आशा लिए गंगाजी के घाट पर पड़े रहने से कोई समाधान की उम्मीद ही नहीं लगाई जा सकती।  ईश्वर भी उसी की सहायता किया करता होगा जो सबल और सक्षम है।  

 

अगर हुनर और कौशल की भी बात करें तो हर व्यक्ति कुछ कुछ मामलों में होनहार भी माना जाएगा और कुछ गतिविधियों के लिए कुशल और सक्षम भी माना जाएगा।  फिर कमजोरी व्यक्ति मात्र में रहना एक भवितव्य ही मानें; अर्जुन भी रणभूमि में गांडीव फेंककर रथ पर जा बैठे थे ; उन्हें भी सम्यक ज्ञान के होने और उस कौशल को उपयोग में लाने का पाठ अपने सारथी से सीखना पड़ा।  शंका निरसन के लिए यह भी जरूरी नहीं कि व्यक्ति इधर उधर भटके , बल्कि वक्त की नजाकत को समझते हुए अपनी भूमिका गढ़ेऔर समाज में कार्यरत रहे।  योगिराज अपना शरीर छोड़कर सागर पार किसी देश में कैसे चले जाया करते थे यह विषय कभी भी तर्क का और बहस का नहीं बन सकता; मन की तरंगें और भावनाएं तो कहीं भी जाया कराती है; अगर चाहें तो ब्रम्हांड के अंतिम छोड़तक भी इसे ले जाया जा सकेगा।  भौतिकवाद के पश्चिम के चश्मे से परिस्थिति को देखना कभी भी वेदान्तियों की पहचान नहीं बन सकती।  कभी कभी पश्चिम के लोग रमण महर्षि से भी कुछ ऐसे ही सवाल पूछ लिया करते थे।  सवाल पूछने और शंका निरसन करने के क्रम में भी पता चल ही जाता होगा कि अपने ह्रदय और दिमाग पर दृश्य जगत का कितना प्रभाव रहता होगा।

 

क्या गुरु के बिना साधक का जीवन अधूरा ही माना जाएगा? क्या दिव्य जीवन और देवत्व के अधिष्ठान की अनुभूति कुछ गिने चुने साधकों तक ही सीमित रहनेवाली? यह एक ऐसा विषय है जिसे व्यक्ति विशेष की समझदारी के क्षेत्र के अनुसार कही जा सकेगी: व्याख्यान के कई आयाम भी हो सकेंगे।  कहा जाता श्री रामकृष्ण, योगिराज आदि जैसे साधकों के लिए और चांडाल के लिए पूजा आराधना की कोई आवश्यकता नहीं, पर बीच गंगा में जिनकी नैया डगमगा रही होगी उन्हें तो ईष्ट चिंता में समय भी बिताना होगा और पूजा अर्चना भी करना होगा।

 

समझ की अपनी सीमा और पर्याय भी विविध प्रकार और विविध स्वरुप वाला होता होगा; ऐसे अनुभव कथन की गाथा भी अपने चारों और बिखरी पड़ी। यही कारण समझें कि रामायण काल के बाद से गीता जी पर अरबों पन्नों के व्याख्यान और कथामाला लिखे गए होंगे; पढ़नेवालों से ज्यादा लिखनेवालों को ही संतुष्टि का भान होता होगा! सिर्फ आचार्य शंकर के भाष्य तक हमारी अनुसन्धित्सा कहाँ  रुकनेवाली; हम तो उस तत्व के विविध आयाम तक भी जाना चाहेंगे; यह भी चाहेंगे कि जनता जनार्दन का एक बड़ा समूह उस दिशा में चल पड़े।  हम तो यह भी चाहेंगे कि उस अजनबी इन्सान की भांति हर इंसान अपनी भूमिका के बारे में जागरूक हो और समाज से भागते हुए समस्या का डटकर मुकाबला करे। 

 

त्याग और वैराग्य का यह भी अर्थ नहीं कि विधायक कर्म से दूर भागें।  गीता, रामायण , वेद , उपनिषद् आदि में भी इस विषय पर भरपूर स्पष्टीकरण दर्ज होता आया, आगे भी दर्ज होता ही रहेगा।  "ज्ञानाग्निदग्ध कर्म ………."  यह भी कुछ वैसा ही विषय मानें जिसपर संत महात्मा सदियों से कहते रहे होंगे।

 

धर्म दर्शन कि चर्चा में तर्क कि कोई प्रतिष्ठा है भी नहीं और तर्क का पल्ला किसी भी तरफ झुक जाया करेगा ; फिर उस तर्क में कोई अंतिम पड़ाव भी नहीं सकता , ही हम इसके जरिये किसी अंजाम तक पहुँचने का प्रयास ही कर सकेंगे।  उस अजनबी इंसान को मेरे बनारस प्रवास के तीनों दिन देखते आया; बाकी के दो दिन ज्यादा बात तो नहीं हो सकी, पर उसके मन कि स्थिरता विषयक संकेत मिलने लगा।  उसकी नपी तुली बात में भी यही परिलक्षित हो रहा था कि उसके मानस पटल पर बात जम गई कि मुसीबतों से भागनेवालों को दुनिया पसंद नहीं करती ,और ऐसा करना भी समीचीन भी होगा।  सिर्फ इस बात का ध्यान जरूर रखना होगा कि समाज से दूर हटकर समाज कार्य में लगने के लिए दृष्टि में सम्यकत्व के साथ साथ व्यापकत्व भी रहे।

 

गंगाजी के घाट पर उस अजनबी इंसान से बातचीत हुई जरूर, पर उसी एक पक्ष को ध्यान में रखकर शायद ही हम कुशलतापूर्वक इस विषय पर बात कर पाएं ; कई और ऐसे व्यक्ति मिले जो किसी किसी कारण से घाट पर आये थे और बैठकर कई प्रकार से साधना भी कर रहे थे।  एक ऐसे व्यक्ति भी मिले जो गंगाजी को गीता पाठ करके सुना रहे थे।  उनसे कारण पूछे जाने पर उनहोंने कोई उत्तर देना , या फिर कर्म से विरत होकर हमसे बात करना उचित नहीं समझा।  साधन का वह भी एक उत्कर्ष ही था जिसपर आसीन होकर साधक अपने ईष्ट का दर्शन कर रहे थे।  हमें इस बात का भी ज्ञान हो ही रहा था कि वो साधक खुद को प्रकृति के साथ एकरूप कर पाने के लिए प्रयास किये जा रहे थे।  यह भी स्पष्ट नहीं हो रहा था कि वो साधक नाथ पंथी थे, या अनाथपंथी।  जो भी हो उनका दृढ़ निश्चय यह था कि उन्हें अपना काम पूरा कर लेना होगा।  संस्कार के अधीन जिस व्यक्ति कि परवरिश हुई होगी उसके चित्त आकाश में उन संस्कारों का बीजक और विचार का तंग व्याप्त रहता है; उसी के अनुसार व्यक्ति साधना का मार्ग भी अपना लिया करता होगा।  साधना अहम् तो है ही, पर साधना की दिशा तय हो पाने की स्थिति में मन में पनानेवाला द्वन्द किसी भी हालत में मंगलकारी नहीं हो सकता।

देहाभिमान    

अनुभव कथन का सिलसिला चल पड़ा है और परत दर परत उसमें से कई गुत्थियां सुलझती जा रही है।  यह कथन अपने बनारस प्रवास से जुड़ा होने के कारण और भी महत्त्व का समझा जायेगा ऐसा विश्वास हम जरूर रखेंगे।  हम चार पांच सेवक , ब्रम्हचारी विरागी अश्वमेध घात से चौसठ घाट की ओर चहल कदमी करते हुए जा रहे थे।  वहीँ अपने बगल से एक अंग्रेज दम्पति यह कहते हुए निकल रहे थे कि अब धर्म का व्यापारीकरण हो रहा है; महादेव से ज्यादा लोगों को सैर सपाटे कि पड़ी है, और संत महात्मा कतार में खड़ा होकर उदर पूर्ति के प्रयास में लगे हुए हैं; वहां खिचड़ी बाबा भी सबको बुला बुलाकर प्रसाद बांटे जा रहे हैं; पूरे घाट पर चहल पहल का ही वातावरण था और लोग काफी सुलखे हुए भी थे ता कि किसी समूह के जरिये ठगे जाएँ ! हम क्या देखने आये थे यह तो कह पाना कठिन ही समझे: असल में हमें यह देखना था कि सभी कर्म कांडों के जरिये काशी में धर्म जीवित है भी या फिर पाखण्ड का ही मातम पसरा !

 

यह वही स्थान था जहाँ कभी त्रैलंग स्वामी जल समाधि ले लिया करते थे, यहाँ तक कि उनके उम्र को लेकर भी लोगों में संदेह का बादल है; वही त्रैलंग स्वामी ठाकुर रामकृष्ण को देखकर ख़ुशी के मारे दौड़ पड़े थे और दोनों में अजीब भाषा में संवाद भी हुई; जैसे मानो हजारों साल के अंतराल पर दो सहोदर फिर से मिल रहे थे; पहले पहल देखते ही दोनों एक दूसरे को जगदम्बा के साधक के रूप में पहचान भी गए और ख़ुशी का इजहार करने लगे! यह कोई कथा कहानी नहीं है , बल्कि इतिहास का हिस्सा बन चूका जिसकी गवाही देने के लिए सैकड़ों भक्त अपने अपने अनुभव दर्ज कर चुके हैं।  यहाँ तर्क कि कोई संभावना बचती ही नहीं।

 

चर्चा के केंद्रीय पक्ष पर आते हुए फिर एक और भक्त वत्सल की बात करें जो धर्म की तलाश करते हुए काशी के घाट पर चुके थे और उन्हीं पक्षों की तलाश करने लगे जिसपर उनके गुरु दृष्टी डाल चुके थे; वही घाट, वही कर्म काण्ड, वही जल समाधि, वही संत महात्माओं का पंडाल और वही चहल कदमी! फर्क सिर्फ इतना था कि ये सन्यासी महात्मा धर्म दर्शन के अभ्यासी होने के साथ साथ आधुनिक शिक्षा के धनी  थे और अपने  गुरु में अवतार पुरुष के होने की पहचान कर चुके थे।  मठ में कुछ तर्क और असंतोष होने के कारण मठ छोड़कर निकल चुके थे: उपयाचक -- परिव्राजक!  कहना तो आसान ही मानें पर उस मार्ग पर चल पड़ने का सत साहस दिखाने वाला कोई वीर विरागी शायद ही मिले।  यहाँ तक कि उनके गुरु माता को भी इस बारे में संदेह ही था।  वही वीर सन्यासी त्रैलंग स्वामी के जल समाधि लेने के विषय को महसूस करना चाह रहे थे, पर उनके मन में कोई भक्ति और आकर्षण का उद्भव नहीं हुआ; और उन्हें बनावटी भक्ति पर उतना विश्वास भी शायद ही रहा होगा।  उनके समय से ही विश्वनाथ (जिन्हें हम स्वयंभू विश्वनाथ मानते आये हैं) कहीं उस नगरी कि भूल भुलैया  में दब चुके थे पर बिलकुल शांत और संतोषी ही रहे; जिसके शरीर पर नाग देवता ही चढ़कर नाचते हों उन्हें भला आदमी के कारनामों की क्या पड़ी! वो तो जब चाहे वीरभद्र को उतार भी सकेंगे और फरमान भी निकाल सकेंगे।  वीर सन्यासी (तब तक अपना चिर परिचित नाम नहीं ले पाए थे ) वहां से आगे अपने अगले किसी पड़ाव की और चल पड़े; पर उनहोंने देश माता की पीड़ा को जरूर समझा, और अकेले होने पर एकांत में रो लिया करते थे। 

 

हम सब एकसाथ कुछ देर के लिए चौसठ घाट से आगे बने चबूतरे पर बैठे रहे।  उसके आगे फिर ऐसा पड़ाव था जहां से दिवंगत आत्माओं के नाम अंजलि आदि देने का सिलसिला चल रहा था; और आगे तो वह स्थान भी था जहाँ श्री हरिश्चंद्र कभी अपने ही पुत्र की चिता सजाने के लिए पैसा मांगते हुए पाए गए थे।  छोड़ने के बाद भी फिर अपना क्या! व्यक्ति सबकुछ छोड़ दे पर धर्म कहाँ छूटेगा ! वह तो जीवन की कड़ी का एक अटूट हिस्सा है और सबपर सामान रूप से लागू हो जाता है।  यह नैसर्गिक होने के साथ साथ ईष्ट का विधान भी मानें।  हमें फिर से उस वीर सन्यासी के कहे पर ध्यान जा रहा है; एकबार कुछ भक्त उसी घाट पर बैठे अपने गुरु से निवेदन कर रहे थे और इस इंतज़ार में थे कि उनके गुरु कुछ सुनाएँ।  "गुरूजी गीता से बोलिये, नहीं गुरूजी वेद, उपनिषद्, रामायण , महाभारत, नहीं गुरूजी तंत्र विद्या ….  " , कई प्रकार से भक्त काफी कुछ सुनना चाह रहे थे।  और गुरूजी अपना मौन बनाये हुए थे "

 

इस आचरण से दो ही संभावना निकल रही थी, या तो गुरूजी को उतना कुछ आता नहीं था जिसकी अपेक्षा उनके भक्त कर रहे थे, या फिर गुरूजी इस बात से परेशान थे कि ऐसा क्या कहें जिससे भक्तों को संतुष्ट किया जा सके ; अतः मौन सबसे बड़ी शक्ति है।

 

वहीँ बैठे बैठे हमने देखा एक महात्मा अपने भक्तों के साथ बैठे बैठे इस बात का इंतज़ार कर रहे थे कि कब कैमरे वाला और चैनल वाला आए और उनके चहल कदमी का चलचित्र निकाले ताकि सभी भक्तों को वो चलचित्र भेजे जा सकें; उन्हें गीता के कुछ श्लोक भी याद करवाए जा रहे थे ताकि लोग कमसे काम उन्हें पंडित , महात्मा आदि समझें; आजकल तो एकाध गीता का श्लोक भी अगर बोल पाएं तो भला कोई पंडित कहाँ माना जायेगा! "कर्मण्येवाधिकारस्ते ………… " समझें या समझें, बोल देने में क्या बिगड़ता है! दान आदि भी बिना कुछ ख़ास प्रयत्न किये कहाँ मिलता होगा ! कुछ और दूर पर हमें एक और महात्मा दिखे, शरीर से कुछ कमजोर से थे, एक घाव भी था, गंगाजी में उतरे और तन, मन के सभी मैल धोने के लिए प्रयास करने लगे; जल में उतरने के पहले अपना दंड भार एकमेव भक्त - सेवक के हाथ में थमा दिए।  "गुरूजी और आगे मत जाइये, कम पानी में ही रहिये, मैं दंड भार रखकर अभी आया ……….." , भक्त कि पुकार हमें भी संज्ञान में ही रहा था, कभी कभी नजरें भी जा रही थी; भक्त वत्सल के कारनामे भी संदर्भित हो रहे थे; फिर कुछ देर के अंतराल पर हमारी नजर उधर गई, काफी देर तक वो महात्मा जल में ही बैठे रहे और उनका सेवक कपड़ा धोने में व्यस्त हो गया।  पर महात्मा का नहाने का सिलसिला कुछ ज्यादे देर तक चल रहा था; वो कभी कमंडल का पानी अपने बाहों पर डालते , कभी सर पर तो कभी मुंह धो लेते;  कभी कभी अपनी नजरें भी उनपर जाकर टिक जाया करती।  अचानक उनहोंने कमंडल को घाट कि और फेंका और "हर हर गंगे ………  " , कहकर डुबकी लगाने लगे; दो तीन डुबकी के बाद पानी में उठने वाली तरंगें पानी के बहाव से जाकर मिल जाने लगी; भक्त वत्सल समझ गया।  जो गुरूजी कहा करते थे आज उन्हें वही करना है: शरीर छोड़ना है, माता गंगा के हाथ में सौंप देना है।  इस बात की जानकारी पाकर हम काफी देर तक चुप रहे; नाव उतारो,पानी खंगालो, तैराकी उतारो, हवलदार को कहो;  इन सभी कारनामों से भक्त वत्सल ने हमें दूर रखने का परामर्श दिया; गुरूजी पानी में उतरकर काफी देर तक सांस रोक लेंगे और धीरे धीरे शरीर छोड़ देंगे, इसके पहले श्री गुरु इस बारे में कह चुके हैं, कमंडल फेंककर उनहोंने इस निर्णय के बारे में फिर से बता चुके थे।

 

शरीर तो संत महात्मा ही छोड़ते होंगे, लोगों से तो शरीर छुड़ा लिया जाता है, छोड़ने की बात तो दूर की रही।  यह तो देहाभिमान से परे किसी महात्मा की ही पहल थी।

 

जन्म से लेकर मृत्यु तक के सफर के सभी कर्मकांड का प्रतिफलन बनारस की घाट पर सहज ही परिलक्षित होगा ; परिवर्तन तो वक्त की मांग है ही: पिंड दान हो तो रहा है, पिंड के अकार दिन प्रति दिन छोटे होते जा रहे हैं।

 

……. चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता

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