गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

भूमिपुत्र

 

अपना देश विविधता में एकता के कारण जाना जाता है | हमें यह भी देखना चाहिए कि प्रत्यन्त ग्रामीण और दुर्गम क्षेत्रों में बसे जनजाति समूह का स्वार्थ और अस्मिता भी संरक्षित हो, संवर्धित हो | कहीं कहीं पर ऐसा होता हुआ परिलक्षित नहीं होता | अपने जंगल महल में बसे भूमिपुत्रों के बारे में भी यह कुछ हद तक एक वास्तविकता ही है | कभी पुर प्रांत में एक बड़े समूह के रूप में बसे इन वीरों की संख्या घटती चली जा रही है | कहीं कहीं पर हम भले ही उन्हें ग़रीबी से ग्रसित पाते हों पर अरण्य को अपना घर और अन्नदाता मानकर सुख चैन का जीवन बसर करनेवाले भूमिपुत्र खुद को ग़रीब नहीं मानते |

संसार में कोई भी जीव व्यर्थ ही अस्तित्व में नहीं आया है | अस्तित्व में आने के लिए उस जीव को विवर्तन के एक क्रम से आना पड़ा | उसके सामने आंतरिक और बाहरी उत्तेजनाओं से संघर्ष का भी क्रम आया | अंततः अपने अस्तित्व को अधिकाधिक सुरक्षित करने हेतु उपयोजनाओं का भी सहारा लेना पड़ा | जिस जीव को  सफलता मिली उन्हीं को हम सन्दर्भित होता हुआ देख सकेंगे | यह थमने वाली एक निरंतर रचना प्रक्रिया है | इस उपयोजनाओं से चाहते हुए भी कोई जीव खुद को अलग नहीं कर सकता है | वैयक्तिक भिन्नताओं के साथ साथ सार्वजनिक कौशलात्मक एकरूपता भी हमारे सम्मुख दृश्यमान है | बाहरी उत्तेजनाओं से संघर्ष इंद्रिय का विषय है और अंदर से व्याप्त उत्तेजनाओं से संघर्ष का विषय हृदय, मन और बुद्धि का विषय है | अंदर से व्याप्त उत्तेजनओं का विषय हमारे लिए जटिलताएँ पैदा करनेवाला हो सकता है; एक व्यक्ति अपने मन की जटिलताओं तथा स्वरूप को छिपा सकता है | यहीं से मानव मन में लघु-गुरु, भला-बुरा, सुख-दुःख आदि भेद बुद्धि का जन्म होता है |

भूमिपुत्रों को अन्य जनजाति से मिलाकर देखने की प्रवृत्ति से भी हमें मुक्त होना होगा | कभी कभी यह भी देखा गया कि मुंडारी संस्कृति के साथ मिलाकर भूमीज़ संप्रदाय को देखा जाता है; यह भी शायद ही उचित हो | कभी कभी सरकार विविधता में एकरूपता लाने के उद्देश्य से संस्कृति और अस्मिता को भी धूमिल करने का प्रयास करने लगती है | बल्कि प्रयास तो यह हो कि भूमिपुत्रों की संख्या कैसे बढ़े !

ग्रामीणों के बीच दुग्ध वितरण की बात हो या फिर आम जनों को औषधि वितरण की बात हो आदिम जनजाति के हृदय सम्राट का दरबार लगता था और सबके लिए निदान की व्यवस्था होती थी | उनके दरबार में मेरी नित्य हाजरी लगती थी और नित्य ही उनके द्वारा भेजे गये मरीजों का इलाज होता था | हृदय सम्राट का यह भी मन था कि ग्रामीणों को विज्ञान और गणित की उत्तम शिक्षा मिले | नये नये उद्योग धंधों की शिक्षा मिले ताकि ग्रामीण युवा अपने पैरों पर खड़ा हो सकें | अपने पास भरपूर अरण्य समपद है , उनका सही उपयोग हो और लोगों को उनके फसल का उचित दाम मिले यह देखना है |

भूमिज (भूमीज़) भारत में गुजर बसर करनेवाली एक जनजाति है | यह मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, झारखंड और बिहार में बसे हुए देखे  जाते हैं | त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और छत्तीसगढ़ में भी इनकी थोड़ी बहुत आबादी है | बहुत कम संख्या में यह बांग्लादेश में भी आकर बसे हैं | जीवन यापन के लिए यह मुख्य रूप से कृषि, पशुपालन, मछली पालन संग्रह, शिकार और वन से मिलनेवाले उत्पादों पर निर्भर हैं | भूमिहीन भूमिज मजदूर के रूप में भी अन्य जगहों पर और दूसरों की भूमि पर काम करते हैं | पर अक्सर देखा गया है भुमिज संप्रदाय के मजदूर किसी दूसरे की भूमि पर काम करना पसंद नहीं करते और ही किसी दूसरे समूहों से दया और करुणा की भीख माँगना पसंद करते हैं | इस संप्रदाय के लोग  मुख्यतःमांसाहारी होते हुए भी सूअर का मांस और बीफ नहीं खाते | इनका इतिहास स्वर्णिम और गौरवशाली है. इनके पूर्वजों ने कभी भी अन्याय और अत्याचार को सहन नहीं किया.  भूमिज विद्रोह के महानायक शहीद वीर गंगा नारायण सिंह, उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी लेकिन अधीनता को स्वीकार नहीं किया.आइए जानते हैं भूमिज जनजाति की इतिहास, भूमिज शब्द की उत्पति कैसे हुई?

आरक्षण व्यवस्था के अंतर्गत इन्हें पश्चिम बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, असम और बिहार में अनुसूचित जनजाति (शेड्यूल ट्राइब, स्ट्रीट) के रूप में वर्गीकृत किया गया है |

भारत में इनकी कुल जनसंख्या लगभग 12 लाख है. इसमें से लगभग 4 लाख पश्चिम बंगाल में, 3 लाख उड़ीसा में, 2.5 लाख असम में और 2.2 लाख झारखंड में निवास करते हैं | पश्चिम बंगाल के मिदनापुर, पुरुलिया, बांकुरा और 24 परगना जिलों में इनकी घनी आबादी है |  उड़ीसा में यह मुख्य रूप से मयूरभंज, सुंदरगढ़, क्योंझर और बालासोर जिलों में केंद्रित हैं | असम में यह मुख्य रूप से असम घाटी में पाए जाते हैं | झारखंड में यह पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला खरसावां, बोकारो, हजारीबाग, रांची और धनबाद जिलों में पाए जाते हैं |

धर्म विश्वास के मामलों में भी इस जनजाति का एक अनोखापन देखा जा सकता है | इन्हें प्रकृति प्रेमिक के रूप में देखा जा सकेगा | प्रकृति देवता की उपासना करते हुए भी हम इन्हें देख सकेंगे | यह हिंदू धर्म और सरना धर्म को मानते हैं | कई मान्यताओं और उपाखयानों के आधार पर इन्हें आदिम जनजाति का हिंदू संस्करण माना जाता है | यह सिंग बोंगा और धरम के नाम से सूर्य देव की भी पूजा करते हैं | दोनों ही उनके सर्वोच्च देवता माने जाते हैं | यह कई अन्य देवी देवताओं की पूजा भी करते हैं | जिनमें प्रमुख हैं- जाहुबुरु, काराकाटा (बारिश और फसल की देवी), ग्राम देवता और देवशाली, बुरु (पर्वत देवता), मनसा (सर्प देवी और महादेव की मानस कन्या), पाओली, जहरबुरी और अतरा देवी |

भूमिजशब्द का अर्थ होता है-“भूमि से उत्पन्नयाभूमि के संतान”. आरंभ में कृषि को मुख्य पेशा के रूप में अपनाने के कारण संभवत इनका यह नाम पड़ा |

 

भूमिज मुंडा की एक शाखा मानी जाती है. कर्नल डाल्टन ने इन्हें कोलेरियन समूह का माना है. भाषा की दृष्टि से यह कोलेरियन हैं | हर्बट होप रिस्ले इन्हें मुंडा जनजाति की एक शाखा मात्र मानते हैं, जो पूरब की ओर बढ़ गई और फैल गई | रिस्ले ने 1890 में उल्लेख किया है कि भूमिज स्वर्णरेखा नदी के दोनों किनारों पर स्थित क्षेत्रों में निवास करते थे | काल की गति के साथ  भूमिज के पूर्वी शाखा ने अपने मूल भाषा से संबंध खो दिया और बंगाली बोलने लगे | ऐसी भी मान्यता चल पड़ी कि यह मुंडा जनजाति के एक समूह थे जो पूर्व में चले गए और अन्य मुंडाओं के साथ संबंध खो दिए, और बाद में गैर आदिवासी क्षेत्रों में आने पर हिंदू रीति-रिवाजों को अपना लिया |  ब्रिटिश शासन के दौरान और उससे पहले, कई भूमिज परिवार जमींदार बन गए |. उनमें से कुछ ने राजा और सरदार की उपाधि भी हासिल कर ली | भूमिजों का मानना है कि उनका मूल पेशा सैन्य सेवा के साथ साथ आम नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना था |  बाद में अधिकांश परिवार  कृषि, पशुपालन और छोटे मोटे व्यवसाय मे लग गए |  उनमें से कुछ असम के चाय बागानों के आसपास आकर बस गए | . अपनी सामाजिक स्थिति को बेहतर करने के उद्देश्य से उन्होंने खुद को क्षत्रिय घोषित कर दिया | कहते हैं कि धनुष वाण के व्यवहार में कई भुमिज नायक काफ़ी कुशल थे ; यहाँ तक कि गंभीर सिंह जैसे सेना नायक तो एक ही बारी में पाँच पाँच तीर दाग दिया करते थे |

भुमिज संप्रदाय के प्रमुख . श्री शंकरी प्रसाद सिंह पात्र यह मानते थे कि अंग्रेज सरकार द्वारा जंगल क़ानून लागू किए जाने के बाद से ही भुमिज संप्रदाय के लोगों के जीवन में संकट के दिन आने लगे | मुख्य कारण यही रहा कि इस संप्रदाय के लोग अरण्य को ही अपना जीवन मानते हैं और अरण्य के साथ घुल मिलकर जीना पसंद करते हैं | आज के प्रगाते के योग में जो शहरीकरण हो रहा है भुमिज जनमानस उसे प्रगती नहीं मानती और ही उस प्रकार की प्रगती में कोई समाधान मिलने की संभावना है |

छोटा नागपुर के पठार के पास रहने वाले लोग अभी भी भूमिज भाषा के साथ भाषाई संबंध बनाए हुए हैं, आगे पूर्व में रहने वालों ने बंगाली को अपनी भाषा के रूप में अपनाया है। जंगल महल के भूमिज को चुआड़ कहा जाता था। ब्रिटिश शासन के पहले से ही कई भूमिज जमींदार बन गए थे और कुछ ने राजा की उपाधि भी हासिल कर ली थी। दूसरों को सरदार कहा जाता था। कुछ भूमिज जमींदारों के यहां घाटवाल और पाईक के रूप में कार्यरत थे। धलभूम, बड़ाभूम,बाघमुंडी और पातकुम राज भूमिज वंशज थे, इसके अलावा धलभूम, बड़ाभूम, मानभूम, शिखरभूम क्षेत्रों में अनेक छोटे-बड़े भूमिज जमीनदार और सरदार हुआ करते थे। जो पंच-सरदारी-घटवाल और मुंडा-मानकी व्यवस्था के अंतर्गत राज्य पर शासन करते थे। हालांकि, उन सभी ने, सामाजिक सीढ़ी पर चढ़कर, क्षेत्र के रुझानों को ध्यान में रखते हुए क्षत्रिय शैली को अपनाया था। जिस कारण 'राजा लोक' कहा जाता था और क्षत्रिय के समान आदर और सम्मान दिया जाता था।

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

ओ दुनिया के रखवाले .....

 भगवान, भगवान ... भगवान ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले सुन दर्द भरे मेरे नाले आश निराश के दो रंगों से,  दुनिया तूने सजाई नय्या स...