रविवार, 18 फ़रवरी 2024

अवतार के हेतु

 

जिस योग में कर्म, ज्ञान और भक्ति की एकरूपता की बात कही जाती हो; जिसके अधीन आत्मा और परमात्मा को एकरूप हटे हुए, द्रष्टा और दृश्य जगत को परस्पर में विलीन होते हुए देखा जाना संभव माना गया; जिसके अधीन हर जीव में विराजने वाले आत्म स्वरुप परमात्मा ही कृत कर्मों के और साधना के साक्षी बनाते रहे ; उस योग को अनादि, अनंत काल से चला आता हुआ एक सनातन नियमन बताते हुए योगेश्वर बार बार उसी एकेश्वर और ब्रह्म स्वरुप परम निर्णायक और विधायक तत्व को प्रतिष्ठित करते रहे। 

अतः गीता में वर्णित योग को अलग से कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग, पुरुषोत्तम योग आदि से विशेषित करते हुए इसे एक सर्वसमावेशक तत्व के रूप में (ख़ास टूर से आत्म तत्व और ब्रह्म तत्व के रूप में) समझना होगा जिसके अधिकारी जीवन ईष्ट में स्वरूपस्थ होने के निमित्त से पवित्र जीवन के लिए, विधायक कर्म का सम्प्पादन करने के लिए, दृश्य जगत के माया स्वरुप से छूटकर परम सत्ता को जीव मात्र में पिण्डस्थ होता हुआ प्रत्यक्ष करने के लिए प्रवृत्त होते रहेंगे; पहले भी होते रहे और कई बार उस परम तत्व के अधिष्ठान विषयक परम ज्ञान का अधिकारी बनाते हुए पुरुषोत्तम स्वरुप से अवतरित भी हुए; अन्य साधकों के लिए प्रेरणा का श्रोत भी बने। गीता में विभूति का वर्णन करते करते भगवान खुद को भी एक योगी, परम सत्ता में स्वरूपस्थ बताते गए; एक योद्धा से भी कर्म समादन के जरिये, कर्मफल को ईष्ट को अर्पित करने के जरिये; सभी दुःख- आनंद, प्रमाद, लोभ, लालसा आदि का परित्याग कर देने के जरिये उस परम स्वरुप में सवरूपस्थ होने की भी रेरना देते गए; सिर्फ ऐसा करने के लिए कर्तव्य कर्म हो जाने के लिए भी मन कर गए।  किसी भी प्रकार के विधायक कर्म, यज्ञार्थ कर्म और कर्तव्य कर्म से विमुख  होकर  योगी , सन्यासी आदि बन जाने की भी प्रेरणा गीता नहीं देती।

ज्ञान-रहित कर्म के लिए व्यक्ति सहज ही रवितत भी हो जाता होगा और ऐसे कर्म से कुछ प्राप्तियां भी सहज ही हो जाती होगी; पर परम गति पाने के लिए और दिव्य पथ पर चल पड़ने का अधिकार इन्होने केलिए तो जनांगनी दग्ध कर्म ही चाहिए; वह भी कर्मफल त्याग कर पाने लायक (कर्मफल को ईश्वर के प्रति उत्सर्ग कर पाने की अभिलाषा के साथ) अनुरक्त भाव से कर्म में प्रवृत्त होना होगा।  ऐसे सभी कर्म खुद के लिए होकर विश्व चराचर जगत में सबकेलिए ही हुआ करेगा।  जो ऐसा कर पाएंगे वो पुरुषोत्तम स्वरुप ही होंगे; न कि प्रमाद ग्रस्त कोई मानव, मोहान्ध कोई साधक, विलासिता के दलदल में जकड़ा कोई भोक्ता पुरुष, राज धर्म से पतित कोई राजा, कर्तव्य पथ से स्खलित कोई गृही, सम्यकत्व से छूटा कोई साधक या फिर विलास व्यसन में अंध कोई तपस्वी।

आत्मा में परमात्मा अधिष्ठान; या फिर अगर अन्य भाव से कहें तो योगात्मा या फिर ब्रह्मात्मा (जैसे कि महर्षि विश्वामित्र राप्त करने के निमित्त से साधना करते रहे और पा लिए);  योगियों में उत्तम बन जाने के निमित्त से योगेश्वर एक योद्धा को प्रबुद्ध करते रहे; उनके खुद के स्वरुप में स्वरूपस्थ होने के लिए भी प्रबुद्ध करते रहे; संसार वृक्ष के स्वरुप को (गीता के अध्याय १५ के सन्दर्भ में ) उन दिव्य गुणों का आश्रय लेते हुए जीवात्मा से परमात्मा के स्वरुप तक उन्नत होने के लिए भी प्रेरणा देते रहे। नाशवान तत्व में जकड़े अविनाशी परम तत्व को मुक्त होने का मार्ग समझाते रहे ।

अगर परम सत्ता के अंश को हर जीव में (यहां तक कि विश्व चराचर जगत के हर अंश में ) रहने की बात को सत्य माँ लें तो क्या कारण है कि उस परम तत्व के अधिष्ठान से विश्व चराचर के हर अवयव को सक्रीय होता हुआ हम देख नहीं पाते? हम उस परम पुरुष को देखते हुए भी उसकी अवज्ञा करने लग जाते और कभी कभी दम्भ और प्रमाद से आविष्ट हो जाते! ज्ञान के साथ भक्ति का सहावस्थान न हो पाने की स्थिति में शायद ऐसी परिस्थितीत और भ्रम का निर्माण हो जाता होगा; शायद साधक किसी मोह, माया या प्रमाद में आकर ऐसा कर पाते होंगे। [1]

विज्ञान की अवधारणा के साथ अवतार तत्व और परम पुरुष का दृश्य चराचर जगत में अदिष्ठान विषयक गहन सत्य को समझना कठिन भी होगा; तर्क से परे रख पाना भी दुःसाध्य ही होगा।  आधुनिक मन की मन की अवधारणा सिर्फ दृश्य जगत की पगडण्डी में ही कैद रहा करेगी और विषय वासना से ग्रसित हो जाने के कारण उनके लिए परमात्म स्वरूप की उपस्थिति को अनुभव कर पाना काफी दुष्कर भी होगा।  उन्हें शायद ही तर्क और वाक् वितंडा से बाहर निकालकर परम  स्वरुप तक ले जाने में किसी साधक महात्मा को सफलता मिलेगी। साधक की ध्यान, धारणा और समाधिस्थ स्वरुप को उस परम तत्व के प्रति अनुरक्त कर पाने में तभी सफलता मिल सकेगी जब हमें उस साधक में दिव्य गुणों के अधिष्ठान विषयक प्रमाण या फिर कोई स्वच्छंद स्वीकारोक्ति मिल सके। [2]  समय समय पर सिर्फ दिव्य गुणों और दिव्य कर्मों के लिए प्रवृत्त आत्मा का ही जन्म होता रहेगा ऐसा भी नहीं।  कभी कभी आसुरी वृत्ति का भी विकास हो ही जाता है; ऐसे कई मुहूर्त आये जब बुद्धि और हुनर का व्यवहार करके आसुरी वृत्ति का विकास फलप्रद होता चला गया और उस विकास पर अंकुश पाने के लिए जगदीश्वर को, रूद्र को और ब्रह्म स्वरुप को अवतरित होते हुए देखा गया। उस अवतरण में कारण स्वरुप किसी भी सत्ता को मानें पर अंततः उस आत्मा स्वरुप से पुष्ट प्राण को ही विपरीत गति से ग्रसित पाते हैं।  हम यह भी महसूस कर सकेंगे कि जिस भेद बुद्धि से और प्रमाद आदि से ग्रसित होकर कोई प्राण गात मार्ग का परिपन्थी होता होगा उसे भी परमात्मा में स्वरूपस्थ होने के लिए मौके मिल ही जाएंगे ; और परमात्मा अंततः उन्हें किसी विनाशलीला के माध्यम से स्वाकार करेंगे ,न कि संवर्धित करके; कुछ यही दशा लंका नरेश रावण की भी हुई जहां अवतार स्वरुप मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को हेतु माना जाएगा।[3] 

  तो क्या यह माँ लें कि सिर्फ राक्षसराज रावण के संहार के लिए ही जगदीश्वर को और रूद्र अवतार श्री बजरंग बलि  को अवतरित होना पड़ा? क्या उन्हें सिर्फ इसी कार्य को सफल करने के लिए गुरुगृह में शिक्षा मिली? क्या सीता का हरण, मर्यादा पुरुषोत्तम का वनवास सब पूर्वकल्पित था ?

गोस्वामी तुलसीदास इस भ्रम को दूर करते हुए लिखते हैं, "राम जनम जग मंगल हेतु "; [4] इस आशय की पुष्टि के लिए कई व्याख्यान, विविध उद्धरण और उपाख्यान रचे गए; भाष्य लिखे गए; संतों के बीच चर्चा चली और भक्ति की शाश्वत धारा भी बही।  अतः उस अवतरण के विषय को किसी भी हालत में किसी संकुचित दायरे में रहकर नहीं देखा , या फिर महसूस किया, जा सकता। 

अतः अवतार के किसी ख़ास हेतु की पुष्टि के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, परम रतापी परशुराम आदि दिव्य पुरुषों को अवतरित होना पड़ा, इस कथन को भी एक संकुचित वर्ग विभाजन या फिर सम्प्रदाय विभाजन के दायरे में रहकर सत्यापित नहीं किया जा सकता। उनके अवतरित होने के कई हेतु हैं और प्रत्येक हेतु को सामान रूप से दिव्य पथ पर चलने की प्रेरणा देने लायक शिक्षणीय माना गया। 

इस विषय पर चर्चा को जारी रखते हुए हम कुछ संदर्भित होनेवाली घटना के बारे में भी विमर्श करेंगे।  उन सभी दिव्य प्रसंगों से भी इस बात की पुष्टि की जा सकेगी कि अवतार स्वरुप हमारे जाने अनजाने में ही सतत अवतरित होते ही रहते हैं; क्रियाशील तभी हो पाते हैं जब वैसी क्रियाशीलता की भूमिका बनती होगी। 

कालिंदी और नाग देवता

एक आश्रम संस्था के प्रमुख थे ; उनको लोग स्वामी बुद्धानन्द कहा करते थे।  उनकी गाड़ी झाड़खंड और ओडिशा की सीमा पर बसे एक जंगल के बीच से गुजर रहा था।  उसी जगह कुछ ऐसे जनजाति बसे थे जिनका कोई स्थायी ठिकाना ही नहीं था; ही हम उन्हें किसी जगह पर स्थायी रूप से बसते हुए देख ही पा रहे थे। ऐसे ही एक स्थानांतरण के मुहूर्त में उसी रास्ते से स्वामीजी और उनके कुछ साथी गुजर रहे थे, जबकि एक जनजाति महिला दर्द से कराह रही थी।  जैसे ही सन्यासी महाराज का काफिला रुका वैसे ही अन्य सभी जनजाति के लोग वो जगह चढ़कर और उस पीड़िता को भी छोड़कर चल दिए; आखिर उस पीड़िता का इलाज करने के लिए चिकित्सकों को उतारा गया; भोजन की व्यवस्था की गई; कुछ भोजन वहीँ छोड़कर वो लोग चले गए।  से पहुंचाने का यह सिलसिला कई महीनों तक चलता रहा ताकि बिरहोड़ समुदाय के उस जनजाति का विशवास जीता जा सके।  स्वामी बुद्धानन्द और उनके साथी सम्प्रदाय को छोड़कर अन्य किसी सम्प्रदाय को उस जनजाति का विशवास जीतने में सफलता नहीं मिली। 

उसी जनजाति के नजदीक एक कालिंदी टोला भी था जहां नागदेवता को पकड़ने और बेचने के व्यवसाय से जुड़ा एक कालिंदी बूढ़ा भी रहता था।  एकदिन आश्रम के लोगों के साथ काम में हाथ लगाते हुए खंडहर से निकलनेवाले एक नागदेवता को पकड़ने के लिए उसी कालिंदी बूढ़ा को बुलावा भेजा गया।  उसने ख़ुशी ख़ुशी उस नागदेवता को अपने पास रखी टोकर में डाल दिया।

"इस नागदेवता का क्या करोगे?" स्वामीजी का सहज ही पूछना था ।

"पहले तो दांत निकालना होगा, स्वामीजी", कालिंदी "दांत" शब्द पर कुछ ज्यादा ही बल देकर अपने मन की बात कह रहा था ; और भी काफी कुछ कहा।

"ऐसा क्या किया जाय, जिसके करने पर इसे तुम गहन वन में जाकर छोड़ दोगे?"

यह तो उस कालिंदी के लिए काफी कठिन एक विषय बन गया। मन ही मन सोचा इस संत महात्मा से भी क्या कुछ लेना उचित होगा! पर उसे पैसा टी चाहिए, और फिर यह जो उसका व्यवसाय ठहरा!

ज्यादे देर तक कालिंदी को चुप्पी साढ़े देख महाराज समझ गए कि इसे कुछ बड़े रकम की उम्मीद रही होगी और उसके माँगने में भी कुंठा हो रही होगी।  वो स्वयं ही उनके पिछले महीने के संग्रह में से आधी जे ज्यादे की रकम निकालकर कालिंदी को देने के लिए कहे और यह बोलकर गए कि नागदेवता को कुछ गभीर वन में जाकर प्रकृति की गोद में छोड़ दिया जाय; नैसर्गिक रूप से उसे जो जहर की झोली और विषदंत जैसे मिला होगा उसे भी चढ़ दिया जाय।

पैसों में रखा ही क्या है! भक्तों के पास जाने से और अनुभव कथन कहने से फिर दान मिलाने की संभावना जरूर बनेगी।  सामने चलनेवाला वीर सन्यासी भला तूफ़ान से और जोखिमों से कभी घबराया है, ता फिर आगे कभी घबराएगा ! नागवता को सिर्फ इसलिए भी कैद में रखना उन्हें मंजूर नहीं था को वो जहरीलेल हैं, अनायास ही अन्य जीवों का नाश भी कर देते हैं; नैसर्गिक रूप से मिले विष से वो शिकार भी करते होंगे, भोज्य को भी मौत के घात उतारते होंगे और वैसे प्राणी की जनसंख्या को भी नियंत्रण में भी रखते होंगे; यह तत्व कालिंदी के समझ से परे रहा होगा, पर स्वामीजी भली भाँती समझ रहे थे; स्वामीजी प्राण संचार और संहार वृत्ति का विषय भी समझ रहे थे जिसमे अनाधिकार हस्ताक्षिओ कर दिन मनुष्य का धर्म नहीं माना जाता; अतः ऐसा अधर्म करने की वृत्ति से स्वामीजी ने उस कालिंदी को रोका।  .



[1] समस्त भूतों के महान् ईश्वर रूप मेरे परम भाव को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मनुष्य शरीरधारी मुझ परमात्मा का अनादर करते हैं।।

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।गीता .११ ।।

शंकर भाष्य : अवजानन्ति अवज्ञां परिभवं कुर्वन्ति मां मूढाः अविवेकिनः मानुषीं मनुष्यसंबन्धिनीं तनुं देहम् आश्रितम्? मनुष्यदेहेन व्यवहरन्तमित्येतत्? परं प्रकृष्टं भावं परमात्मतत्त्वम् आकाशकल्पम् आकाशादपि अन्तरतमम् अजानन्तो मम भूतमहेश्वरं सर्वभूतानां महान्तम् ईश्वरं स्वात्मानम्। ततश्च तस्य मम अवज्ञानभावनेन आहताः ते वराकाः।।कथम्;

[2] दिव्य गुणों के बारे में और उन गुणों के अधिष्ठान होपाने के बारे में श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय १६ में विस्तार से चर्चा की गई। 

[3] आसुरी वृत्ति विकसित होने के बारे में शंकर भाष्य : [गीता अध्याय , श्लोक १२ ]

मोघाशाः वृथा आशाः आशिषः येषां ते मोघाशाः? तथा मोघकर्माणः यानि अग्निहोत्रादीनि तैः अनुष्ठीयमानानि कर्माणि तानि ? तेषां भगवत्परिभवात्? स्वात्मभूतस्य अवज्ञानात्? मोघान्येव निष्फलानि कर्माणि भवन्तीति मोघकर्माणः। तथा मोघज्ञानाः मोघं निष्फलं ज्ञानं येषां ते मोघज्ञानाः? ज्ञानमपि तेषां निष्फलमेव स्यात्। विचेतसः विगतविवेकाश्च ते भवन्ति इत्यभिप्रायः। किञ्च -- ते भवन्ति राक्षसीं रक्षसां प्रकृतिं स्वभावम् आसुरीम् असुराणां प्रकृतिं मोहिनीं मोहकरीं देहात्मवादिनीं श्रिताः आश्रिताः? छिन्द्धि? भिन्द्धि? पिब? खाद? परस्वमपहर? इत्येवं वदनशीलाः क्रूरकर्माणो भवन्ति इत्यर्थः? असुर्या नाम ते लोकाः (0 0 3) इति श्रुतेः।।ये पुनः श्रद्दधानाः भगवद्भक्तिलक्षणे मोक्षमार्गे प्रवृत्ताः --,

[4] धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू।।

सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू।।

गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी।।

नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ राम सम जान जथारथु।।

बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला।।

अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई।।

करि बिचार जिंयँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें।।

…………… श्रीरामचरितमानस - २५४

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