रविवार, 18 फ़रवरी 2024

आत्मा के बारे में

 


मान आदि के लिए; दिखावे के लिए और भोग वृत्ति को प्रशमित करने के लिए लोग अधिकाधिक धन कमाने लगते; उन्हें खुद से ही यह पूछना होगा कि इस वृत्ति का क्या कोई ठोस कारण है? क्या ऐसा करने से वे खुद को संतोषी पाया करेंगे? क्या ऐसा करने से देह से अहम् भाव मिट जाय करेगा ? क्या देह का अहंकार से मुक्त किया जाने का कार्य भी हो सकेगा ? वेदांती जन यह क्षणिक सुख की उपलब्धि देनेवाले जीवन से मुक्ति पाने के मार्ग बताया करते हैं } कभी कभी ज्ञान हो जाने के बाद प्रमाद का और देहाभिमान का अंत ही नहीं होता; बिना कर्म के सुखी रह पाने की कल्पना और वैसा करने का प्रयास भी भ्रान्ति से ग्रसित ही रहेगा; कर्म का त्याग न करके उस कर्म में निहित अभिलाषा, आकांक्षा और प्रमाद का त्याग करना जरूरी है |  यह एक ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर दिया करेगा जहाँ हम मान-आमान, प्रशंशा - निंदा, सुख-दुःख आदि विषयों से ग्रसित होकर मन की चंचलता को काम कर सकेंगे; काम करते करते मन को प्रशमित भी कर पाएंगे; प्रशमित मन का धनी होकर आत्मा को उसके सही स्वरुप में (स्वयं प्रभा और स्वयं प्रकाश की स्थिति) अनुभव कर सकेंगे | चैतन्य ही अहम् भाव में सात्विकता को पैदा कर सकेगा और आत्मा के सर्व-व्यापी स्वरुप को उजागर होता हुआ भी महसूस किया जा सकेगा | उस सर्वव्यापी आत्मा को परमात्मा से एकरूप होते हुए भी हम महसूस कर सकेंगे और उसी मार्ग पर क्रमिक उन्नति का साक्षी रूप में पाएंगे | व्यक्ति के दुःखी या सुखी होने में सिर्फ अनुभव ही प्रमाण है; मान पाने के लिए उत्कंठा भी मन को चंचल कर दिया करेगा; वैसा न मिलने की स्थिति में मन दुःखी हो जाता; दुःख या सुख का अनुभव आत्मा तक नहीं पहुंचता |

मिटटी को अगर बार बार याद दिलाया जाये तो वह एक घड़े का आधार है; बात तो सही है पर घड़े के बाहर अन्य अवयवों में भी मिटटी के स्वरुप को अभिव्यक्त होता हुआ देखा जा सकेगा | आत्मा के साथ भी कुछ ऐसा ही अभ्व्यक्ति के व्यापकत्व के विषय को समझें; ज्ञान को हम ज्ञानभास ही समझें; उस ज्ञान को परिपक्व करने के लिए मन का प्रशमित होना बहुत जरूरी है | ज्ञान तो सदा सच्चा ही होता, उसका झूठा होने का प्रश्न ही नहीं ! अगर हम जाग जाएँ तब पता चलता है कि स्वप्नावस्था में प्राप्त जानकारी ज्ञान का आधार नहीं बन सकता; न ही उस आधार पर हम ज्ञान विषयक किसी चिदाभास का अनुभव नहीं कर पाते | वास्तविक ज्ञान कभी समाप्त हो ही नहीं सकता ; अधिकांश जगहों पर ज्ञान का सिर्फ चिदाभास ही होता न कि सम्यक ज्ञान का  होने का अनुभव पाना |

ज्ञान तो अनंत है ; स्वप्न और जाग्रत के अंत को जो देख लेता वो अनंत का सूचक है; जननभास का अंत हो सकता पर ज्ञान का कोई अंत नहीं (उपनिषद् के सन्दर्भ में ) | चेतनता के न रहने का साक्षी चेतन ही होगा; सूर्य और सूर्याभास में एक बुनियादी अंतर है; सूर्य का उदय और अस्त होना सिर्फ सूर्याभास ही है न कि सूर्य के असल स्वरुप का साक्षी | सूर्य का उदय और अस्त सिर्फ पृथ्वी के मर्यादा तक ही परिलक्षित किया जा सकेगा; महाशून्य में धरती कि सीमा से अरे सूर्य के होने का सम्यक ज्ञान हो सकेगा | अतः यह देखा जा रहा है कि सूर्याभास ख़त्म हो सकता पर एक विस्तृत परिसर में सूर्य के होने कि बात सत्यापित कि जा सकेगी; इस सत्य को एक क्रमिक रूप से उजागर होते हुए भी महसूस किया जा सकेगा | विड़म्बना तब देखि जाती जब ज्ञान को अनुभव कर लेनेवाले साधक इन्द्रिय सुख के अधीन मन कि स्थिरता खो बैठते हैं | ऐसा भी देखा जाता है कि वैसे लोग भ्रम और प्रमाद से ग्रसित हो जाया करते; ऐसे व्यक्तियों के ज्ञान को सिर्फ ज्ञानभास कहा जाएगा न कि सम्यक ज्ञान | ज्ञान तो एक सागर कि भाँती है और ज्ञान को पाने कि अभिलाषा रखनेवाला साधक एक नमक का बना पुतला; जिसका ज्ञान सागर में उतरते ही पिघल जाना एक भवितव्य ही मानें; कोई जल्दी पिघले और कोई कुछ देर बाद ! वह अनंत को जान लेने का प्रयास भर हो सकता, उसमें पूर्ण सम्यकत्व पाना कभी संभव ही नहीं; ज्ञान पाने के क्रम में जीवन कि कड़ी ही अंतिम पड़ाव पेपर आ जाय करेगी; देह अभिमान कि सीमा से अगर उभर सकें तो किसी परंपरा के अधीन सम्यकत्व में साधक अपनी कृति को जोड़ सकेंगे | जगत में सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होनेवाले अवयवों की संख्या ज्यादा है; वास्तव में सूर्य खुद के मौजूद होने का प्रमाण प्रकाश के जरिये दे दिया करता; यह ज्ञान के स्वयं प्रकाश विषयक अनुभूति का ही रूपक मानें | हम जगत का अनुभव इन्द्रिय के जरिये ही किया करते; चैतन्य का स्वरुप कुछ ऐसा ही है जिसे इन्द्रिय अनुभव नहीं चाहिए; न ही अन्य किसी अवलम्बन के जरिये जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में चित्त का स्थानांतरण होता रहेगा | चैतन्य ही एक है जो कभी नहीं सोता; वह चिदाभास ही है जो देह को चढ़ाता है और जागने के बाद फिर सक्रियता का जन्म देता | आत्मा कभी इन परिवर्तनों में लिप्त नहीं होता | स्वरुप से द्रष्टा और दृश्य न होते हुए चेतन कल्पित नहीं है | देहाभिमान से मुक्त होकर ही व्यक्ति स्वप्न के अनुभवों को पाया करेगा | एक परमात्मा ही जिसके बारे में हमारे पास परखने की कोई कसौटी नहीं है | हम उसके सही स्वरुप को अनुभव करने के लिए गुरु की  शरणागति लिया करते | ब्रह्म जनानी के लिए खोने या पाने लायक कुछ रहता ही नहीं इसी कारण से उन्हें सुख - दुःख की अनुभूति परेशान नहीं किया करती |

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