असल में हम इस कथामृत प्रसंग के जरिये तत्व और प्रसंग को एक सूत्र में पिरोते हुए भक्त का भगवान के प्रति विशवास को पक्का होता हुआ महसूस करना चाहेंगे। हम यह भी चाहेंगे कि ह्रदय में जिस विशवास को हृदयंगम करके भक्त साधना के मार्ग पर चल पड़े होंगे उसी विशवास को और अधिक पक्का बनाने के लिए कथामृत प्रसंग की धरा एक निरंतरता के साथ चलनी चाहिए; हमारी जरूरतें पूरी हो जाने के बाद हम गंगाजी को बहाने से मन नहीं कर सकते; न ही उनके बहाव की दिशा बदल देने का प्रयास ही कर सकते; और न ही उन्हें सागर की विशाल चेतना के साथ एकरूप होकर पूर्णता पाने के अभिक्रम में बाधा ही डाल सकते। .
इतना जरूर कर सकते जिससे दिव्य पुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम की वंदना में; जगदम्बा की वंदना में और रूद्र गणों की आरती उतारने में गंगाजी के पवित्र जल का इस्तेमाल कर सकते।
पितृ तर्पण में भी उसी गंगाजी के जल का इस्तेमाल किया जाता है; और फिर क्रमशः हमें
यह भी शायद लगने लगता होगा कि इस प्रकार से आराधना करनेवाले किसी अंध विशवास का शिकार
कुए होंगे। गंगाजी से उठाया जल तो पुनः गंगाजी
में ही जाकर मिल गया होगा; फिर पूजा और आराधना किस बात की ? वस्तुतः अध्यात्म, आराधना,
तत्व चिंतन आदि विषयों में और ईष्ट की आराधना में तर्क की कोई प्रतिष्ठा है ही नहीं।
सात्विक विचार का धनी कभी खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मान लेने की हरकत नहीं कर सकता | वैसी हरकत करने वालों के सात्विक होने को लेकर फिर प्रश्न निर्माण किए जा सकेंगे | यही वह पड़ाव है जहाँ मानव से मानव का भी विचार विनिमय हो सकेगा
| मंगल विचार का धनी ही व्यवस्था और तंत्र से एकरूप हो जाता है | स्वराज और स्वावलंबन से मेरी एकरूपता कुछ हद तक नैसर्गिक होने के साथ साथ कुछ माने में विरासत में मिली चीज़ है | मैं एक क्रांतिकारी के परिवार से भी आने के कारण भी बचपन से ही ऐसे माहौल में ही पाला बढ़ा | मेरी एकरूपता उस विचार और व्यवस्था से है जिसका आप भी कभी न कभी किसी न किसी रूप में अभ्यास कर लेते हैं | इसी बहाने हम करीब भी आ गये | अब सूचना प्रौद्योगिकी के युग में हम एक दूसरे के और करीब आ चुके हैं और अधिक सघन होकर काम करने लग गये हैं
| मैं एक मानसिक प्रस्तुति लेकर चल रहा हूँ हमारा सभी कार्यक्रम सर्वधर्म समभाव और सर्वोदय के विचार से पुष्ट हो | कभी कभी ऐसा लगता है कि आने वाला तूफान शायद सब कुछ तबाह कर देगा और हम कहीं के नहीं रहेंगे | पर हक़ीकत तो यह है कि तूफान भी वनस्पति में निहित चेतना को नष्ट नहीं कर पाता | समझदार जीव थोड़े समय के लिए खुद को छिपा लेते हैं
| एक कीट तक को इस विधा का ज्ञान है;
फिर मनुष्य की बात तो है ही निराली | हमें जो ठीक लगता है उसी पर हमारा ध्यान टिक जाता है और वहीं से हमारे अहम का विस्तार शुरू हो जाता है | कोई संत बिल्कुल अहंकार से शून्य हो चुका है ऐसा कहना हमारी मूर्खता होगी
| असल में अहम तो उन गिने चुने तत्वों का हिस्सा है जिसके कारण हम इस शरीर को धारण कर पा रहे हैं | अगर किसी संत के योगक्षेम की व्यवस्था हम नहीं कर पा रहे हों तो इसका कलंक उस समाज और उस व्यवस्था को लगेगा जहाँ संत अपनी सेवा और अपपना विचार संप्रेषित किया करते हैं | संत का स्वाभाव ही होता है कि उन्हें खुद की वकालत करना और खुद के लिए पक्ष लेना आता ही नहीं | उनके साथ विचार का सम्मेलन करने वाले उनका पक्ष लेते हुए पाए जा सकेंगे | अहम अगर सात्विक है तो भी क्रमशः बढ़ेगा और तामसिक है तो भी | सात्विक अहम ही सामूहिक प्रार्थना और सर्वधर्म समभाव की बात करने का प्रयास करेगा और मानव मात्र को रचानधर्मिता से जोड़ने का प्रयास करेगा | ऐसे सात्विक अहम के धारक और
उपासक विरले ही हैं
| उन्हें जोड़ पाने का काम सबसे ज़्यादा कठिन काम है |
कठिन बोलकर छोड़ दें और खुद को दर किनार कर लें यह भी नहीं हो सकता
| हम जहाँ हैं और जितना कर सकते हैं उतना भी करें तो उस लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी जिसका कि बाबा कभी सपना देखा करते थे | बाबा के सूक्ष्म दर्शी होने का प्रमाण हम उनके जीवन से जुड़ी एक छोटी घटना से दे सकेंगे; एकबार किसी कार्यक्रम का पत्र बाँटने के लिए किसी बालक को नज़दीक के गाँव में भेजना था | वह समय भी कड़ी धूप का था | बाबा ने उसे छतरी लेकर जाने के लिए कहा | बालक ने भी छतरी सीधे सिर के ऊपर पकड़ा | बाबा को त्वरित इस बात की कल्पना हो गई कि आते समय और जाते समय भी बालक की पीठ पर धूप लगेगी
| अतः उन्होंने छतरी को थोड़ा नीचे हिलाकर उस बालक को पकड़ा दिया और उसे ऐसे ही पकड़कर आने और जाने का निर्देश दे दिए
| असल में उस बालक को सुबह के समय पश्चिम की दिशा में जाना था और आते समय पूरब की दिशा में आना था | जाहिर सी बात है कि धूप उसके पीठ पर दोनों समय लगने वाली थी |
अनुभव कथन का सिलसिला चल पड़ने के बाद उसमें से कुछ न कुछ तो हासिल हो ही जाएगा | हमें अपने गुरुजनों के अनुभव से भी काफ़ी कुछ सीखना है | कभी कभी कहा जाता है , "श्रद्धावान लभ्यते ज्ञानम | " ज्ञान के साथ श्रद्धा का क्या मेल बंधन है यह भी कभी कभी हमारी समझ के परे रह जाता है | असल में जहाँ श्रद्धा न हो वहाँ हमारा मन भी हमारा ही विरोध करने लग जाता है और हम उसमें से खोट निकालकर अपनी शान दिखाने के काम में जुट जाते हैं | विषय की गंभीरता इस बात से भी समझ सकते हैं कि खोट निकालते निकालते हमारा मन ही दूषित हो उठता है और हम उस विचार धन को ठीक से पा ही नहीं सकते | एक बार अपने परिवार में किसी ब्राह्मण देवता को पूजा के लिए बुलाया गया | हम सब यथावत निर्धारित स्थान पर खड़े हो गये | ब्राह्मण देवता कुछ ग़लत मंत्र बोलने लगे | नतीजा यह हुआ कि हमारा मन कुछ कहने के लिए उतावला हो उठा, पर सामने खड़ी दादी ने बड़ी बड़ी आँखें दिखाकर हमें मना कर दिया | दान आदि देकर उस ब्राह्मण देवता की विदाई होने के बाद दादी ने कहा, "ग़लती निकालने में तुम्हारी कोई शान नहीं मानी जाएगी | उस ग़लत मंत्र को सही करके बोल पाने का अभ्यास कर लो |"
जाहिर सी बात है कि उनका आशय हमारे विवेकवान होने के साथ साथ श्रद्धावान् होने के लेकर भी था | अन्य विचार और तत्व पर भी हमारी उतनी ही श्रद्धा होनी चाहिए जितनी कि अपने ज्ञान पर | ज्ञान को दर्शन का नेत्र चाहिए और दर्शन को ज्ञान का आश्रय | दोनो को एक ही रथ के दो पहिए भी मानकर चल सकते हैं | अपने रामायण में भी ऐसे दिव्य रथ का प्रसंग आता है जिसपर सवार होकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम को जीत मिली | रण भूमि में श्री राम को देखकर श्री विभीषण काफ़ी चिंतित हो गये; रामजी के पास कोई रथ है ही नहीं फिर भला इतने भयानक राक्षासों का मुकाबला वो कैसे कर सकेंगे ! श्री
रामजी
अपने
रथ
का
विवरण
देते
हुए
बताते
हैं,
"मेरे
पास
भी
दिव्य
रथ
है
और
उसके
दो
ही
पहिए
हैं:
पहला
शौर्य
और
दूसरा
धैर्य
| यह
रथ
अन्य
रथ
से
एक
और
माने
में
भिन्न
है
| युद्ध
भूमि
में
ज़रूरत
पड़ने
पड़
यह
रथ
भी
सभी
सैनिकों
के
समरूप
युद्ध
कर
सकेगा
|" श्री रामजी का इशारा उस रुद्र अवतार की ओर था जिसने हर पल श्री रामजी के कार्य सिद्ध करने में सहायक होने के संकल्प का व्रती हो चुका था | हमारे सामने प्रसंगों की कमी नहीं होगी , जिसके बल पर हम आत्मा और परमात्मा के मिलन से कार्य सिद्धि के समीकरण को वास्तव दृष्टि से प्रत्यक्ष कर पाएँ | अंततः इतना कहना होगा कि यह सात्विक अहम ही है जो हमें अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहने की सीख देता है |
आजकल हम एक विकट परिस्थति का सामना कर रहे हैं | एक तरफ तो कई जगहों पर जंग या तो शुरू हो चुका या फिर वैसी परिस्थितियाँ बनाई जा रही है | हथियार बनाने की होड़ और बने बनाए हथियारों को चमकाने की स्पर्धा में लोग पैसे पानी
की
तरह
बहा
रहे
है
| कई
विकसित
देशों
को
लगता
है
कि
नासमझ
संप्रदायों
को
आपस
में
लड़ाकार
खूब
धन
कमाया
जा
सकेगा
| इस
जंगी
सनक
के
पास
पास
एक
और
सनक
के
कारण
इन
दिनों
भारत
काफ़ी
चर्चा
में
आ
गया
; वह
सनक
ज़ुबानी
जंग
और
मजहबी
फ़साद
को
लेकर
आए
दिन
बढ़ता
जा
रहा
है
| इसे
राजनैतिक
और
संप्रदाय
के
रंग
में
रंगे
जाने
के
प्रयास
भी
हो
रहे
हैं
|सबके
पास
अपनी
दलीलें
हैं
और
बना
बनाया
तर्क
भी
सन्दर्भित
किए
जाएँगे
| संचार
माध्यमों
के
ज़रिए
बच्चों
की
भाँति
किए
जानेवाले
ज़ुबानी
जंग
को
शान
से
दिखाया
भी
जा
रहा
है
और
लोग
देख
भी
रहे
हैं
|
बात बढ़ते बढ़ते यहाँ तक बढ़ चली कि सफाई देने केलिए सरकार बहादुर को भी हुकूमत की तलवार उठाने पड़े | सरकार की तलवार है ही ख़ास जिसके चलने से जमात , जमाती और जनता सबका नुकसान होगा ; ऐसा होता हुआ परिलक्षित भी हो रहा है |
आज परिस्थिति ही कुछ ऐसी है जहाँ नागरिकों को खुशहाल रखने के लिए हर देश को काफ़ी मशक्कत करने पड़ेंगे ; भारत के बारे में भी यह बात सच है | जमातों और जमातियों को लड़ने दें और हम मूक दर्शक बने रहें तो इसमें हमारी शान नहीं बढ़ेगी | शांति कामी मुल्क भारत की पहचान दुनिया में बन चुकी है और भारत भूमि से कोई बचकाने हरकत की बात अगर सन्दर्भित हो तो लोग सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं |
विचार प्रचार के कई माध्यम इन दिनों सक्रिय पाए जा रहे हैं | इसी क्रम में सामाजिक संचार माध्यम के ज़रिए लोग अपने विचार के अनुकूल गुट बना भी रहे हैं और उसे नियंत्रित करने का प्रयास भी कर रहे हैं | हर व्यक्ति तक पहुँच पाने की ताक़त का भान करानेवाले किसी प्रचार माध्यम का सहारा लेकर व्यक्ति के विचार बुद्धि को मोड़ने का भी प्रयास होता हुआ दिखेगा | इस क्रम में भी कभी कभी ऐसा दिख जा रहा है कि लोग अपना संयम खो बैठते हैं और उसमें
वाक
संयम
खोने
का
भी
प्रमाण
मिलता
हैं
| अगर
सनातन
विचारधारा
के
आधार
पर
इस
बात
का
विश्लेषण करें
तो
संयम
खोनेवाले
का
जीवन
व्रत
पहेल
क्रम
में
ही
कलंकित
हो
गया
ऐसा
माना
जाएगा ; फिर
दूसरे
क्रम
में
जाकर
शौच,
संतोष,
तपस्या,
स्वाध्याय
और
ईश्वर
प्रणिधान
के
नियमों
में
खुद
को
बाँधने
की
बात
तो
दूर
की
सोच
है
|
पुरानी एक मान्यता यह भी है कि किसी भी हिंसा या हिंसक कारनामों को हिंसा से दबाया या कुचला नहीं जा सकता; सम्यक विराम दिया जा सकेगा | उस प्रतिस्पर्धा और हिंसक कारनामों को पूरी तरह ख़त्म करने के लिए अहिंसा और संयम के रास्ते से ही हमें गुज़रना होगा |
सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय: जब एक मजदूर घर से बाहर निकलता है तो यही उम्मीद रहती है कि उसे रोज़गार मिलेंगे और घर आकर अपने परिवार जनों का पेट भरा जा सकेगा | एक समझदारी रखनेवाला नागरिक कभी नहीं चाहेगा कि उपद्रवियों के कारण मजदूरों के रोज़गार छिन जाय और कभी समाधान न किए जाने वाले मुद्दों पर ज़ुबानी तीर कमान चलते रहे | जिन्होंने मंज़िल हासिल कर लिए हों उन्हें भी लगता है कि उनका महल सर्वदा सुरक्षित ही रहेगा, पर काल के दरबार में सदा ही महाकाल का क़ानून चलता है | लोक संख्या और जन मानस की समझ बनने के साथ साथ समग्र जन समुदाय का मतों और पंथों में विभाजित होते हुए देखना कोई अचरज की बात नहीं है |
हम यह भी जानकारी रखना चाहते हैं कि कौन हित चिंतक है और कौन उपद्रवी| असल में हम जिसे उपद्रवी मान लेते हैं उसे कुछ और जमात के
लोग
लोग
अपना
मित्र
मानते
हों
| इस
प्रकार
का
सूक्ष्म
विभाजन
किसी
भी
राष्ट्र
के
लिए
मंगलकारी
नहीं
हो
सकता,
न
ही
दूरगामी
परिणाम
देनेवाला
| मत,
पंत
और
मज़हबी
भेद
को
भूलकर
राष्ट्र
निर्माण
में
अपनी
भूमिका
अदा कर
पाने
में
ही
सार्विक
समाधान
तलाशे
जाने
चाहिए
|
सर्वोदय विचार से प्रेरित होने का अर्थ यह भी नहीं निकाला जाना चाहिए कि किसी एक गुट का वर्चस्व अन्य गुटों पर होता हुआ दिखे और उसे बढ़ावा देने का प्रयास हो | अगर सर्वोदय एक विज्ञान है तो सर्व धर्म समभाव उसकी आत्मा है, और हम उस आत्मा को किसी एक राष्ट्र का स्पंदन भी बना सकते हैं |
अगर हमें किसी सार्वजनिक मंच पर कुछ कहने के लिए आग्रह किया जाय तो हम सर्वोपरि राष्ट्र के प्रति एक नागरिक के कर्तव्य को ही गिना दें, न कि ईष्ट के प्रति एक भक्त के कर्तव्य और निष्ठा को | ईष्ट की उपासना और धार्मिक विश्वास किसी भी व्यक्ति का निजी धर्म है न कि राष्ट्र धर्म | व्यक्ति का राष्ट्र धर्म वही हो सकता है जिसके बल पर नागरिक मात्र के हितों और विचारों का पोषण हो |
आज दुनिया में तीन सामाजिक गुटों का स्पष्ट विभाजन होता हुआ दिख जाएगा: पहले गुट के पक्षधर धर्म को ही राष्ट्र निर्माण का आधार मानते हैं और उसी प्रकार के चरित्र से राष्ट्र का भी चरित्र चित्रित होता है, दूसरे गुटों के लोग लोकतंत्र में विश्वास रखते हुए प्रजातांत्रिक नियमों को राष्ट्र का चरित्र बनाना पसंद करते हैं, तीसरे गुट के लोग धर्म से और लोकतांत्रिक नियमों से बिल्कुल अलग एक समाजतांत्रिक व्यवस्था को राष्ट्र का धर्म बनाना पसंद करते हैं और उसी आधार पर अपनी भूमिका अदा करते हैं | धर्म कोई भी हो उसके व्यक्ति
के
विश्वास
और
मान्यताओं
के
खिलाफ
जाने
से
ही
संघर्ष
की
स्थिति
पैदा
होगी
| वैसी
स्थिति
का
मुकाबला
कर
पाने
की
हैसियत
किसी
भी
देश
के
पास
नहीं
है
| अतीत
में
कई
बार
धर्म
पर
और
धार्मिक
स्थलों
पर
आक्रमण
हुए
भी
होंगे,
इसके
कई
प्रमाण
भी
मिलते
होंगे
, पर
उस
आक्रमण
का
जवाब
प्रति
आक्रमण
से
नहीं
दिया
जा
सकता
| धर्म
पर
आक्रमण
और
प्रति-आक्रमण का सबसे बड़ा प्रमाण जेरुजालेम में आसानी से दिख जाएगा | तलाशे जाने पर हज़ारों की संख्या में ऐसे प्रमाण मिल ही जाएँगे | किसी भी समुदाय के पास पानी से
कीचड़
और
नमक
को
अलग
करने
का
समय
नहीं
है
| विचार
पनप
सकेंगे
: या
तो
धर्म
को
माने
और
किसी
एक
समुदाय
का
पक्ष
लें,
या
फिर
किसी
भी
धर्म
को
न
मानते
हुए
अपने
समाजवादी
विचारधारा
को
बनाए
रखें
| विचार
व्यक्त
करने
की
आज़ादी
के
साथ
साथ
धर्म
को
मान
लेने
या
न
मानने
की
आज़ादी
भी
मानव
मात्र
का
धर्म
है
| मानव
का
यह
भी
धर्म
है
कि
प्रकृति
का
विरुद्धाचरण
न
हो
| पर
ऐसा
हो
भी
रहा
है
और
उसके
कारण
प्रकृति
के
प्रकोप
का
भी
हमें
सामना
करना
पड़ रहा
है
|
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