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चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता 

अरविंद नगर, बांकुड़ा ( पश्चिम बंगाल ) भारत

पिन -- ७२२१०१ 

ईमेल: senjisc@gmail.com

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इस बात से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता कि सर्वजन हिताय- सर्वजन सुखाय विधायक कर्म को प्रधानता देना कोई विपरीत धारा का द्योतक होता हो; अगर यही युग धर्म हो गया हो और इसे ही समग्र विकास को सुनिश्चित कर पाने की कुंजी मान लिया गया हो तो उसे गीता के आलोक में मान्य करनेआक नित्य कर्म का हिस्सा बनाना होगा और साधक वर्ग को उस क्रिया को अपनाते हुए अध्यात्मिक उत्कर्ष पाने के ध्येय से साधना के मार्ग पर अडिग भी रहना होगा; और, ऐसा मान लेने का कोई कारण शायद ही सत्यापित हो सके कि जिस मनुष्य ने भागवत स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो, जो ब्रह्म स्थिति से पुष्ट चिन्मय अवस्था को पहचानता हो; ईश्वर अनुकंपा से पुष्ट जीव की उपस्थिति को अनुभव कर सकता हो; सनातन परंपरा से संचालित सृष्टि-विनाश के क्रमिक चक्र को समझता हो; चैतन्य अवस्था में, आनंदमय अवस्था मे तथा भागवत सत्ता में रहता हो, उसके कर्म में ये सब बातें हों, जबकि इसे ही सर्वसमावेशक युग धर्म मान लिया गया हो;, ये ही काल-विशेष की सबसे उत्कृष्ट ध्येय वस्तुएं हों, और उस समय इनसे बड़ी और कोई चीज हो, महत् आमूल परिवर्तन को अपनानेलायक कोई विधायक परिवर्तन हुआ हो; किसी समाज को जोड़े जाने की बात प्राथमिकता से अपनाया गया हो; तो ये सब बातें साधक  के विधायक और साध्य कर्म अवश्य ही बनी रहेंगी। कारण, जैसा कि भगवान् अपने शिष्य से कहते हैं, वह श्रेष्ठ पुरुष है और उसे ऐसा आचरण करके दिखाना है जो दूसरों के लिये प्रमाण-स्वरूप हो, और सचमुच  जंग में उतरे और मैदान में दोनों सेनाओं के बीचों बीच खड़े भ्रम, शंका, प्रमाद आदि से ग्रसित एक योद्धा से जो बात कही जा रही है वह यही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट आदर्श और तत्कालीन संस्कृति के अनुसार क्षात्र धर्म के अनुसार कर्तव्य कर्म को अपना ले , आचरण करे, पर ज्ञान युक्त होकर करे, उस वस्तु को जानकर करे जो इन सब के पीछे प्रत्यक्ष या परीक्ष रूप से निहित है; एक विशिष्ट ज्ञान और भक्ति की धारा में स्नात प्रबुद्ध साधक की भाँति; कि  सामान्य मनुष्यों की तरह जो केवल बाह्य धर्म और विधि का ही अनुसरण करते रह जाते हैं और जीवन के अपने ध्येय को समझ ही नहीं पाते।

 

परंतु विचारणीय बात यह है कि आधुनिकता से ग्रस्त व्यक्तिमानस ने, तथा उस परिखा में विचरण करनेवाले तत्वदर्शियों ने,  अपनी व्यावहारिक प्रेरक शक्ति में से जिन दो तत्वों को अर्थात्ईश्वर या सनातन ब्रह्मको औरआध्यात्मिकता या के दिव्य स्वरूप के उत्सर्जन के वैधानिक अनुक्रियाको अपसारित कर दिया है; ऐसा करने का प्रयास भर किया हो; या फिर विषयों को विकृत कर प्रस्तुत करने का प्रयास भर किया हो; सम्यक दृष्टि को धूमिल कर पाने की लालसा लिए शास्त्र में खुद के अरमानों और अभिलाषा को चढ़ाया हो; या फिर उस विधायक तत्व, आत्म तत्व और योग तिवेणी के मंगल कलश को कलुषित करने का प्रयास किया हो; वे दोनों ही तत्व गीता में दर्ज आधारभूत तत्व के रूप में मान्य की गई | उसी मान्यता के परिपन्थि सनातन परंपरा भी चल पड़ी। जिसे हम अभी आधुनिकता या भोगवाद मान रहे हैं उसमें और सनातन परंपरा में कई द्वन्द परिलक्षित होते हैं: यह कहती है मानवता, मानविकता में रहें, क्षार पुरुष में सीमित रहें; प्राण,  और बुद्धि का सम्मेलन करें; सदा परिवर्थन्शील काल प्रवाह के साथ चलें | जबकि गीता का मत है कि देवत्व प्राप्ति की अभिलाषा लिए क्षार  अक्षर के अस्तित्व का ज्ञान रखते हुए आत्मा, परमात्मा और जीवात्मा के अस्तित्व को मानते हुए सनातन परंपरा पर आस्था बनाए रखें कि परिवर्तन की धारा में बहे चलें |

 

व्यवहार में हमारे अंदर कुछ संकीर्णता और कुटिलता अगर रह भी गये होंगे तो उन सबको हटाते हुए और गीता के आत्म तत्व के सिद्धांतों को प्रतिस्थापित करते हुए भक्त वत्सल से कुछ उच स्तर के कार्य करा लिए जाएँ, या उन्हें ऐसा कर पाने के मार्ग में सहायक बनें; उत्साह और उद्दीपन के तरंग के आधार पर यह भी मान्य करें कि व्यक्ति मात्र के चैतन्य में उच्च आदर्श का उद्दीपक और सकारात्मक पक्ष है; भले ही भक्त वत्सल किसी भी देवता, किसी भी अवतार , या फिर किसी भी धर्मादर्श का अनुसरण करते हों | इसी आलोक में यह भी प्रतिपाद्य विषय मान लेना होगा कि गीता सेर्फ निस्वार्थ भाव से कर्म करते रहने की शिक्षा दिलाने लायक विधायक कर्म तत्व का विज्ञान नहीं ; अपितु यह विधायक कर्म के साथ साथ परमार्थ के लिए कर्तव्य पथ पर बिना रुके बिना थके और निडर होकर लगे रहने का उत्तम विज्ञान है|

 

गीता के समग्र संकलन में से कुछ श्लोक चुनकर यह साबित कर देना बहुत ही आसान है कि इसमें निस्वार्थ भाव से सेवा करते रहने को श्रेष्ठ माना गया; कहीं शुद्ध भक्ति की वंदना दर्ज की गई; कहीं पर ज्ञान से पुष्ट कर्म की बात कही गई; यह भी प्रतिपाद्य की गई कि क्षार पुरुष के साथ अक्षर पुरुष भी एक ही ब्रह्म के प्रतिफलक, उद्योजक और क्रियात्मक स्वरूप होंगे (अद्वैत का सिद्धांत) जिसे गीता का केंद्रक भी माना जा सकेगा | यह भी प्रतिपादित टा आया कि गीतापुरुषोत्तम को सभी प्रकार से पूर्ण मानते हुए यह प्रतिस्थापना रखती है कि साधक का ध्येय उस पूर्णता की प्राप्ति का ही रहे और उसी मार्ग के लिए परिपूरक सिद्धांतों और विचारों का संकालन गीता का आधार स्वरूप है |

 

गीता का प्रायोजन तभी सन्दर्भित होता हुआ पाया गया जब कर्तव्य बुद्धि से भटका हुआ एक योद्धा ईश्वर शरणागती लेते हुए यह सुनिश्चित करना चाहा की रण भूमि के बीचों बीच एक योद्धा की क्या भूमिका हो सकती: और वो भी तब जब यह पता चले कि उसी के रिश्तेदार, सगे संबंधी, गुरु और पितामह शत्रुपक्ष में खड़े हो जाएँ; वो भी तब जब धर्म, नीति, तत्व और कर्तव्य नामक विधाओं पर इंद्रिय उत्पीड़ण, अज्ञान और भ्रम का आच्छादन बन जाए! यह एक ऐसी परिस्थिति के आलोक में ईश्वर द्वारा प्रतिपादित की गई जब धर्म रक्षा को सुनिश्चित करने के निमित्त से एक योद्धा जंग की भूमि में उतर चुका था और वैराग्य, त्याग, सन्यास आदि की बातें करने लग गया था |

 

                व्यक्ति जीवन में कभी कभी किसी किसी रूप में संघर्ष सदा ही चलते रहता है | कई ऐसे पड़ाव भी आते हैं जब व्यवहार ज्ञान, तत्व ज्ञान और कर्तव्य बुद्धि का सही सम्मेलन ही नहीं हो पाता; ही भ्रम के भंवर से व्यक्ति सही तरीके से निकल पाता; ही यह तय कर पाता कि ईश्वर शरणागति लें भी तो कैसे; अंतर मन और चित्त को बसेरा किए दिव्य पुरुष का सान्निध्य महसूस कर पाने लायक स्थिति बनते बनते बिगड़ जया करती; कभी कभी व्यक्ति इंद्रिय उत्पीड़न का शिकार हो जाता और चेतना का उन्नत तरंग अनुभव ही नहीं कर पाता; ऐसा होते होते कभी कभी जीवन की अनुक्रिया ही मंगल प्रभात की ओर बढ़ी जाती जहाँ से अगला सफ़र कैसा होगा इस बारे में किसी को भी सम्यक ज्ञान नहीं हो आता | यह वही पड़ाव है जहाँ साधक एक सामान्य जीवन चर्या से उभरते हुए दिव्य जीवन की ओर चल पड़ते हैं और अपने सभी इंद्रियों पर नियंत्रण स्थापित करते हुए उस दिव्य सनातन शक्ति को खुद के करीब पाते रहेंगे और क्रमिक उन्नति की ओर बढ़े चलेंगे | द्विविधा और भ्रम की स्थिति से उभर पाने के निमित्त से कोई भी व्यक्ति एक योद्धा रूप से खुद की भूमिका काफ़ी सरलता पूर्वक ही तय कर सकेगा यही अभिप्रेत हो | इसी ध्येय से पुष्ट गीता में समय समय पर और स्थान स्थान पर योग विद्याओं का सम्मेलन प्रतिभासित होता आया |

 

गीता कर्म को अकर्म से श्रेष्ठ मानते हुए भी कर्म सन्यास को अहम मानती ती ; अपितु कर्म को ईश्वर अनुकंपा पाने के मार्ग में लगाने ने लायक एक साधन स्वरूप मानती ती; यहाँ तक कि भक्त वत्सल को उस विधा में लगे रहने और सातत्य बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करती;

 

एक योद्धा को उसके ज्ञान के मुताबिक और कर्तव्य पालन कर पाने के अनुकूल शिक्षा मिलती रही; वह भी तब जब सर्व शक्तिमान स्वयं ही मित्र भाव से उसके करीब आकर एक सारथि के रूप में भूमिका अदा करते रहे और एक योद्धा को उसके शक्ति, कौशल, आत्मबल के साथ साथ कर्तव्य और धर्म रक्षा के संकल्प की याद दिलाते रहे; उसे ध्येय मार्ग पर बने रहने के लिए प्रेरित करते रहे; समग्रता का भान से खुद भी पूरी प्रक्रिया में भाग लेते हुए भी प्रक्रिया को काफ़ी हद तक प्रभावित करते रहे |

 

उस परिस्थिति में अवतार योद्धा बनकर नहीं बल्कि युद्ध को अंजाम तक पहुँचाने के निमित्त से एक सारथि बनकर मैदान में उतरे; समग्र परिस्थिति में हथियार उठाकर, संहार वृत्ति का अभ्यास करते हुए धर्म विजय को सुनिश्चित करने के मार्ग में एक योद्धा और उनके वर्गों का समुचित प्रबोधन करते रहे; उन सबके करीब उस सर्व शक्तिमान के सान्निध्य का भी आभास दिलाते रहे; यह भी सुनिश्चित करते रहे कि धर्म विजय सुनिश्चित करने के निमित्त से मैदान में उतर्नेवाले किसी भी योद्धा का आत्मबल धूमिल होने पाए; ही उन्हेंईश्वर अनुकंपा किसी अन्य अनुकंपा के मुखापेक्षी रहना पड़े | मधुसूदन यह भी प्रतिपादित करने लगे कि उसी ईश्वर अनुराग का अंश प्रत्येक जीव में विराजमान समझी जाय; उसी के मुताविक आत्मा के अविनश्वरता का सिद्धांत भी समझी जाए और तदनुरूप अपनी भूमिका बनाकर रणभूमि में शत्रु का डटकर मुकाबला की जाए; कि पीठ दिखाकर भागने का प्रयास हो | भक्त वत्सल जिज्ञासु प्रवृत्ति का होने के साथ साथ आनुगत्य भी प्रकट कर दिया करेगा और यह भी समझाना चाहेगा कि उसके मन में पनपनेवाले शंकाओं और द्विविधाओं को जड़ मूल से समाप्त की जाय; उत्साह, उद्दीपन, अग्रगामी की वृत्ति के साथ साथ चित्त, मन और बुद्धि की स्थिरता भी बनी रहे | योद्धा का यह भी तर्क था कि भले ही हम न्याय, नीति और धर्म का पक्ष लेकर संघर्ष की वृत्ति अपनाते हों पर न्याय को सुनिश्चित करने और धर्म प्रतिष्ठा के साथ साथ अधर्म मिटाने के लिए निर्दयता के साथ रक्तपात की जाए, हत्याएँ की जाए यह कहाँ तक समीचीन हो सकता! ऐसा शायद ही उचित हो कि इतने रक्तपात के बाद एक सुंदर और विकास मुखी शासन प्रणाली की नींव रखी का सके; शंका यह भी बनी रही कि अत्यधिक रक्तपात के बाद शायद वर्णसंकार पनपने का भी मार्ग खुल जाए और जनजाति के गुणवत्ता कलुषित हो जाने की आशंका बनी रहे | गीता में भी ममता, करुणा, प्रेम और भाईचारे के साथ साथ अहिंसा और शांति की शिक्षा अवश्य रहेगी पर वैसी शिक्षा उन महान आत्माओं के लिए माना जा सकेगा जो व्यक्ति जीवन की संकिर्णता और स्वार्थ सिद्धि के संकुचित नियमन से ऊपर उठकर शाश्वत मार्ग पर चलते हुए श्रेयार्थ मार्ग पर बने रहें और मोक्ष प्राप्ति की ओर बढ़ता चले| सामान्य जीवन को चरितार्थ करने के निमित्त से कर्तव्य कर्म को स्वीकार करते समय एक सैनिक को यह भी लग सकता कि सभी हत्याओं के लिए उसे पाप लगेगा और नरक भोगने पड़ेंगे; पर पा-पुण्य के ज्ञान से उभरकर धर्म रक्षणा र्थ सेवा करते रहने की तमन्ना लिए युद्ध भूमि पर उतरने वाला कोई योद्धा अवश्य ही दिव्य ज्ञान का धनी और ईश्वर अनुकंपा का धारक होगा; कि संकीर्णता और स्वार्थ सिद्धि के आवेश में कर्तव्य कर्म से विमुखता रखनेवाला कोई सामान्य सिपाही | कर्तव्य वह भावना है जो व्यवहार में सामाजिक धारणाओं पर निर्भर है, इस सामान्य अर्थ से हम इस शब्द को और अधिक व्यापक करके यह कह सकते हैं कि अमुक कर्म हमारा अपने प्रति कर्तव्य है अथवा इस व्याप्ति से भी आगे बढ़कर यह कह सकते हैं कि सर्वस्व का त्याग करना बुद्ध का कर्तव्य था या यह भी कह सकते हैं कि गुहा में स्थिर होकर बैठना यती का कर्तव्य है; सीता माता के बारे में पता लगाकर वापस आना और उसी संदेश से मर्यादा पुरुषोत्तम को अवगत कराना महाबली बजरंगी का कर्तव्य था ; अपने गुरु की महिमा का गायन करते हुए उपायाचक और परिव्राजक की भूमिका में उतारकर संसार का चक्कर लगाना एक वीर सन्यासी का कर्तव्य था; कर्तव्य परायणता के आधार पर ही माता खुद खाकर अपने संतान के सामने भोजन परोसा करती होगी; एक गाय अपने बछड़े को दूध पिलाती होगी; एक किसान अपने फसल की सिंचाई करता होगा; एक दाता भिक्षु को दान देता होगा; एक पुजारी मंदिर में विग्रहों को सजाता होगा और पूजा अर्चना करता होगा |


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