श्री
भगवदगीता
में
भक्ति
योग
से
मुक्ति
का
मार्ग
प्रशस्त
होने
की
बात
कही
गई
| एक
भक्त
के
गुणों
का
भी
विवरण
दिया
गया
और
एक
क्रियाशील
व्यक्ति
को
उसका
परिचय
भी
बताया
गया
| एक
भक्त
को
विश्वास
का
आधार
मिलता
है
और
विश्वास
को
हृदय
का
संरक्षण
प्राप्त
होता
रहता
है
| एक
भक्त
अपने
गुरु
और
मित्र
के
सभी
बातों
और नियामकों
को
मान्य करते
हुए
जीवन
पथ
पर
अग्रसर
होता
रहता
है
| भक्ति
मार्ग
में
एक
सर्वशक्तिमान
को
अस्तित्व
में
सक्रिय
मानकर
मन
में
समर्पण
की
भावना
रखते
हुए
भक्त
कर्तव्य
किए
जाता
है
और
उस
सर्व
शक्तिमान
पर
भरोसा
रखते
हुए
आगे की
गतिविधियों
के
लिए
खुद
को
तैयार
भी
कर
लेता
है
|
समर्पण
की
भावना
समझने
के
लिए
सिर्फ़
शब्दों
पर
ही
ध्यान
टीका
लें
तो
ज़्यादा
कुछ
समझ
में
नहीं
भी
आ
सकता
है
| हमें
लगता
है
कि
सर्व
शक्तिमान
को
हमसे
रुपया
, पैसा
या फिर ज़मीन
या
देवस्थान
चाहिए
| कीमती मंदिर
बना
लें
और
उसी देवस्थान के
बाहर
अगर
दीन दरिद्र
लोगों
की
कतार
लगने
लगे
तो
यह
हमें
समझ
लेना
होगा
कि
उस
देवस्थान
में
देवता
का
अधिष्ठान
हो
ही
नहीं
पाया
| इस
विषय
को
और
अधिक
स्पष्टता
से
समझने
के
लिए
हम
एक
प्रचलित
कथा
का
सहारा
ले
सकते
हैं
|
एक
समय
की
बात
है,
दीनों
में अति
दीन
एक
भिक्षु
काफ़ी
कुछ
पाने
की
अश्
लगाए
एक
ऐसे
राजपथ
के
किनारे
खड़ा
था
जिस पथ
से
राजाओं
का
राजा
गुज़रता
था
और
इतना
देता
था
जिससे समग्र
जीवन
का
गुज़ारा
हो
सके
| यथावत
कांक्षित
समय
तथा
निर्धारित
पथ
से
राजाओं
का
राजा
आने
लगा
| भिक्षु
का
हृदय
पुलकित
हो
उठा,
चेहरे
पर
मुस्कान
दिखने
लगा,
खुद
को
व्यवस्थित
करते
हुए
उसी
मार्ग
के
किनारे
खड़ा
हो
गया
| राजाधिराज
आए,
सम्मुख
खड़े
भी
हो
गये
और
मुस्कुराते
हुए
उस
भिक्षु
से
ही
भीख
माँगा
! भीक्षु
बड़ा
ही
मायूस
हुआ
| उसी
मायूसी
में
कुछ
गिने
चुने
अन्न
के
दाने
उस
राजाधिराज
के
हथेली
पर
रखा
| भीख
पाकर
राजाधिराज
बहुत
प्रसन्न
हुए
और
अपने
रथ पर
सवार
होकर
उसी
धूल
से
भरे
शाश्वत
मार्ग
पर
चल
पड़े
| दिन
ढलने
के
बाद
मायूस
तथा
थका
हुआ
भिक्षु
अपनी
कुटिया
में
आया
और
दिन
भर
के
संग्रहों
को
छाँटने
लगा
| उसमें
से
कुछ
चमकने
वाले
दाने
कुछ
ख़ास
ही
थे
| संयोगवश
चमकने
वाले दाने
उतने
ही
थे
जितना
की
भिक्षु
ने
राजाधिराज
को
दिया
था
|
इस
घटना
से
भिक्षु
और
ज़्यादा
मायूस
हो
गया
| उसे
अपनी
कंजूसी
पर
रोना
आया,
अपने
कुंठा
को
उसने
दूर
ना
कर
पाने
के
लिए
भी
लज्जित
हुआ
| अब
अगर
राजाधिराज
सामने
आए
तो
सर्वस्व
देने
का
विचार
बनाया
| फिर
से
उस
मार्ग
पर
आश्
लगाए
बैठा
रहा
| संकीर्णता दूर
कर
भक्ति
मार्ग
पर
टिके
रहने
के
लिए उसने
अपने
जीवन
मंत्र
को
अग्रगन्य
माना
|
कभी
कभी
हम
यह
नहीं
समझ
पाते
हैं
कि
सर्वशक्तिमान
अगर
हमसे
कुछ
माँगता
है
तो
क्या
वो कोई
भौतिक
वस्तु
होगा,
या
कोई
रोचक
वस्तु
होगा
! उसे
भला
इन
वस्तुओं
की
क्या
आवश्यकता
आन
पड़ी
? उसे
तो
सभी
सुख
सुविधाओं
की
प्राप्ति
अनायास
ही
हो
सकती
है
| हमसे
उसे
सिर्फ़
समर्पण
की
उम्मीद
रहती
है
| समर्पित
व्यक्ति
को
ही
सर्वशक्तिमान
ज़िम्मेदारियों
से
सफल
जीवन
जीने
हेतु
प्रेरित
करता
है
| सच्चा
भक्त
वही
है
जो
सर्वशक्तिमान
के
पास
खुद
को
समर्पित
करे
और
उसके
द्वारा
दिए
जाने
वाले
दायित्व
का
पालन
करे
| उसे
तो
जीवन
प्रक्रिया
से
मुक्त
हो
पाने
का
मंत्र
भी
अपने
ईष्ट
देवता
से
निरंतर
मिलता
ही
रहेगा
| इसमें
शंका,
भ्रम,
कमज़ोरी
आदि
का
कोई
स्थान
हो
ही
नहीं
सकता
|
भक्ति
धारा
यहीं
तक
सीमित
नहीं
है
जिसमें
हम
मान
लें
की
भगवान
भक्त
की
रक्षा करने
हेतु
तत्पर
होते
हैं
| उनपर
भक्ति
बनाए
रखने
वालों
का
विश्वास
भी
बनाकर
रखते
हैं
| शास्त्र
में
तर्क
को
कोई
प्रतिष्ठा
नहीं
मिली
है
| इसका
यही
कारण
है
की
तर्क
का
कोई
अंतिम
छोड़
नहीं
है
| यह
पक्ष
और
विपक्ष
दोनों
ओर
लग
सकता
है
|
भक्ति
का
सीधा
संबंध
प्रेम
से
है,
शुद्ध
प्रेम
से
सिंचित
मन
की
भूमि
पर
ही
भक्ति
का
पौधा
अपने
पूर्ण
हरियाली
के
साथ
पनपता और
बढ़ता
रहेगा
रहेगा
| भक्त
को
अपने
ईष्ट
से
प्रेम
रहने
के
क्रम
में
ही
ईष्ट
के
गुणों
को
खुद
में
उतारने
का
प्रयास
करता
रहता
है
| ईष्ट
के
गुणों
की
वंदना
भी
करता
है
| शुद्ध
प्रेम
सिंचित
होने
के
कारण
ही
गोस्वामी
तुलसीदास
रामचरित
मानस
को
मूर्त
रूप
दे
पाए
| शुद्ध
भागवत
प्रेम
के
कारण
ही
संत
विनोवा
ब्रह्म
विद्या
जैसे
मंगल
विचार
को
जन्म
दे
पाए
| ब्रह्म
के
स्वरूप
पर
उनका
गहन
चिंतन
चलता
था
और
उन्हें इसमें भरपूर
आनंद
भी
मिलता
था
| शुद्ध
प्रेम
ही
भक्त
को
भगवान
के
सान्निध्य
का
सम्यक
ज्ञान
भी
करा
देता
है
| यही
कारण
है
कि
सृष्टिकर्ता
को
अगर
समझना
है
तो
हमें
उसके
अनवद्य
सृष्टि
को
उसके
सही
स्वरूप
में
देखना
होगा
|
दक्षिण
भारत
में
एक
स्वनामधन्य
वकील
हुए
जो
प्रभु
भक्त
होने
के
साथ
साथ
निष्ठावान
तथा
परोपकारी
भी
थे | अपने
जीवन
में
भी
तरक्की
पाकर
जज
बने
| उनके
पास
अदालत
में
एक
साहूकार
ने
मुक़दमा
दाखिल
करते
हुए
एक
किसान
पर
उधार
चुकता
ना
करने
का
आरोप
लगाया
| जज
साहब
ने
उस
किसान
के
खिलाफ
फरमान
निकालते
हुए
उसे
अदालत
में
हाजिर
होने
के
लिए
कहा
| ग़रीब किसान साहूकार के साजिश का शिकार हो चुका था | उसने सरलता से साहूकार पर विश्वास किया जिसका मोल चुकाने उसे अदालत आना पड़ा | सबूत पूछे जाने पर किसान ने कहा कि
जब
वो
साहूकार
को
उधार
के
पैसे
दे
रहा
था
तब
वहाँ
प्रत्यक्ष
दर्शी
के
रूप
में
श्री
रागुनाथजी
उपस्थित
थे
| जजसाहब
ने
उस
रघुनाथजी
के
नाम
का
भी
फरमान
निकाला
| जजसाहब
को
किसान
की
बातें
यकीन
करने
लायक
लग
तो
रही थी,
पर
अदालत
को
सबूत
चाहिए,
जो
कि
जुटाकर
लाना
उस
किसान की
ज़िम्मेदारी
थी
| किसान
जिसको
रघुनाथजी
मान
रहा
था
वो
तो
अवतार
स्वरूप
भगवान
ही
थे,
उनका
एक
मंदिर
भी
गाँव
में
था
| इधर
जजसाहब
मान
रहे
थे
कि
रघुनाथ
नाम
का
कोई
व्यक्ति
उसके
गाँव
में
ही
रहता
है
जो
कि
इस
पूरी
घटना
को
जनता
है
| अतः
उनका
रघुनाथ
के
नाम
फरमान
निकालना
स्वाभाविक
ही
था
| डाकिया
कई
बार
पत्र
लेकर
घूमकर
वापस
आ
गया
| ऐसा
कोई
व्यक्ति
था
ही
नहीं
| अंततोगत्वा
एक
संवादप्रेरक
अदालत
से
ही
विशेष
रूप
से
इसी
काम
के
लिए
भेजा
गया
जो
किसान
के
बताए
पते
पर
पत्र
देनेवाला
था
| पर
किसान
के
बताए
पते
पर
एक
मंदिर
था
! मंदिर
के
पुजारीजी
के
कहने
पर
श्री
रघुनाथजी
के
नाम
का
समन उस
मंदिर
में
ही
दिया
गया
| पुजारीजी
ने
भी
उस
पत्र
को
श्री
रघुनाथजी
के
पैरों
तले
रख
दिया
| पुजारीजी
उस
किसान
से
मिलकर
श्री
रघुनाथजी
के
नाम
के
फरमान
निकालने
का
कारण
पूछा
| किसान
ने
कहा
, "रघुनाथजी
तो
सर्वत्र
विद्यमान
हैं,
अतः
साहूकार
के
प्रपंच
और
झूठ
के
बारे
में
भी
अवश्य
जानते
होंगे,
ऐसा
विश्वास
हमें
रखना
ही
होगा
|"
अगले दिन अदालत में एक बूढ़ा आदमी किसान के पक्ष में गवाही देने आया | उसे आस पास के इलाक़े में पहले किसी ने नहीं देखा था | गवाही देते हुए रघुनाथ ने यह भी बताया कि असली रसीद उस साहूकार के घर पर ही मिलेगा , किसान ने व्याज समेत पूरा पैसा वापस दे दिया है | पूरी घटना का विवरण देते हुए साहूकार के घर पर रखी तिजोरी में सबूत मिलने का संकेत बताकर गवाह चला गया | साहूकार के हिसाब खाते में पैसे मिलते रहने की बात दर्ज है | किसान ने रसीद नहीं लिया, इस सरलता तथा विश्वास का ग़लत फ़ायदा उठाते हुए साहूकार प्रपंच कर रहा है | पूरी घटना का यथावत विवरण देने के पश्चात तथा अकाट्य प्रमाण मिलने के बाद रघुनाथजी चले गये | किसान सभी आरोपों से मुक्त हो गया |
इस
घटना
के
कुछ
दिनों
के
बाद
कौतूहलवश
जज
साहब
उस
गाँव
में
किसान
से
मिलने
आए
| उसके
रघुनथजी
से
मिलने
के
लिए
आग्रह
करते
रहे
|किसान
जज
साहब
को
रघुनाथजी
के
मंदिर
में
ले
आया
| संयोगवश
फरमान
का
पत्र
रघुनाथजी
के
पैर
के
पास
ही
रखा
था
| किसान
जब
बड़े
प्रेम
से
मंदिर
के
उस
विग्रह
को
अपने
रघुनाथजी
के
रूप
में
परिचय
देने
लगा
तो
जज
साहब
के
दोनों
आँख
भर
आए
| जासाहब
तो
उस
किसान
को
ही
देखते
रहे
जिसके
पास
रघुनाथजी
पर
अपार
श्रद्धा
तथा
विश्वास
रूपी
अमोल
धन
था
| एक किसान प्रभु प्रेम का इतना धनी था कि भगवान भी अदालत में आकर
उसके पक्ष
में
गवाही
देने
लगे
|
इस
घटना
से
जज
साहब
बहुत
प्रभावित
हुए
और
अपने
कर्म
जीवन
से अवकाश
लेकर
मथुरा, वृंदावन
में
रहने
लगे
| उन्होंने भक्ति मार्ग
को
ही अपने जीवन
का
पाथेय
बनाया
| जीवन
भर
यही
सोच
विचार
करते
रहे
की
सरलता
और
सादगी
का
धनी
वह
किसान
कैसे
रघुनाथजी
से
संवाद
करता
होगा
| उन्होंने
कभी
मंदिर
के
मूल
वेदी
पर
न
उठने
का
निश्चय
किया
और
अपने
आप
को
देव
नगरी
में
ही
शेष
जीवन
ईश्वर
चिंतन
में
बिताते
रहने
के
लिए
तैयार
किया
| निरंतर
यही
अभ्यास
करते
रहे
कि
कभी
न
कभी
रघुनाथ
जी
से
दर्शन
मिल
ही
जाएगी
|
विशुद्ध
प्रेम
ही
था
जो
किसान
को
अपने
निकट
श्री
रघुनाथ
के
मौजूद
होने
का
दिव्य
सत्य
प्रतिभासित
होने
लगा
और
श्री
रघुनाथ
भी
उसे
संकटापन्न
परिस्थिति
से
नकालने
के
लिए
अवतरित
होने
के
लिए
अदालत
में
आ
गये
|
शुद्ध
प्रेम
के
इस
मर्म
को
जिसने
जाना
वो
अलीक
कल्पना
से
अलग
होकर
उसी
शुद्ध
प्रेम
के
बल
पर
ईश्वर
को
करीब
पाने
का
प्रयास
करते
रहा
|
शुद्ध
प्रेम
में
तर्क
की
कोई
प्रतिष्ठा
है
ही
नहीं
, जहाँ
तर्क
का
बादल
है
वहाँ
फिर
प्रेम
को
शुद्ध
नहीं
मान
सकते
|
श्री
मदभागवत
में
भक्ति
के
नौ
रूपों
का
वर्णन
किया
गया
है
| ऐसा ही वर्गीकरण मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अपने अरण्य जीवन के समय सबरी माता को सुनाए और उसके लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया |
श्रवणं
- भगवन
के
नाम
और
महिमा
सुनना।
कीर्तनं
- भगवान
के
स्तुतियों
का
गायन।
स्मरणं
- भगवान
को
याद
करना।
पाद
सेवनं
- भगवान
के
कमल
रूपी
पैरों
की
सेवा
करना।
अर्चनं
- भगवान
की
पूजा
करना।
वन्दनं
- भगवान
की
प्राथना
करना।
दास्यं
- भगवान
को
स्वामी
मानना
और
उनकी
सेवा
दास
भाव
से
करना।
सख्यं
- मित्र
भाव
से
भगवान
की
सेवा
करना।
आत्म
निवेदनं
- के
प्रति
खुद
को
पूरी
तरह
से
समर्पित
कर
देना
|
तत्व चिंतन के विविध आयाम गीता के क्रमिक गति के साथ साथ परत दर परत खुलते चले जाएंगे; इस विधान में हमें और अधिक परिवक्व अवधारणा तब तक नहीं होगी जबतक हम इस दिव्य कृति के अंतिम पड़ाव तक न पहुँच पाएं; "सर्व धर्मान परित्यज्य। ।। यह वही उच्च कोटि का विज्ञान है जिसके आधार पर क्षात्र धर्र्म, ब्रह्म उपासना आदि से शुद्ध भक्ति को पवित्र और सर्वोपरि माना गया। इसमें समर्पण का तत्व भी कुशलता पूर्वक पिरोया गया; प्रश्न यह भी निर्माण हो जाता होगा कि वर्ण धर्म की बात कहने से पहले भी तो सर्व धर्म परित्याग की बात कही जा सकती थी; इतनी बड़ी भूमिका, इतने इतने व्याख्यान और कर्म विषयक रहस्य पर चर्चा करने के बाद फिर उन धर्मों को त्यागकर ईश्वर के शरण में आने बात क्यों कही गई? हकीकत तो यह है कि धर्म (वर्ण के अनुसार कर्तव्य कर्म) त्याग कीबात बिना कुछ समझदारी के नहीं की जा सकती; ऐसा करना भी मंगलकारक नहीं हो सकता; ईश्वर प्राप्ति तो प्राप्त की ही प्राप्ति समझें। गीता ज्ञान की रूपरेखा कुछ ऐसा ही समझने जिसके क्रम में साधक किसी भी स्तर तक की उन्नति हासिल कर सकेगा; इसके लिए साधक स्वतंत्र होने के साथ साथ स्वच्छंद भी है। मनुष्य संसार में किस तरह बर्ताव करें? किसी की हिंसा मत करना, [1] नीति से चलो, सच बोलो, गुरु और बड़ों का सम्मान करो, चोरी और व्यभिचार मत करो इत्यादि सब धर्मों में पाई जाने वाली साधारण आज्ञाओं का यदि पालन किया जाय, तो ऊपर लिखे कर्तव्य-अकर्तव्य के झगड़े मे पड़ने की क्या आवश्यकता है?
सभी धर्मों में अहिंसा के अवस्थान विषयक तत्व अपने लिए कोई नया नहीं ; और न ही इस विषय पर प्रकाश डालने के लिए हमारे पास निबंध और ग्रन्थ की अप्रचूरता है। सिर्फ उन सभी तत्वों को एक सूत्र में पिरोने के लिए काफी प्रयास करने की आवश्यकता रहेगी। पर हमें यह भी ध्यान में रखना ही होगा किअहिंसा कोई कायरों का धर्म नहीं हो सकता; और न ही सैन्य दाल के किसी कार्यकर्ता से कहा जा सकेगा कि रण भूमि में शत्रु के प्रति उन्हें अहिंसक बने रहना होगा और मार खाते रहना होगा; प्रश्न जहां आत्म रक्षा और राष्ट्र की गरिमा रक्षा का हो वहां उन्हें समयोचित निर्णय लेते हुए ही कार्यरत रहना होगा । अपने यहाँ अहिंसा का एक उच्च स्तर का विज्ञान है [2] , जिसके आधार पर हमें परायापन का त्याग करना होगा और परस्पर के सहावस्थान को सुनिश्चित करना होगा; अपितु हमें किसी भी जीव को अनावश्यक हानि पहुंचाने से बचना होगा।[3] किसी सच्चे तन प्राणी को किसी प्रकार दुःखित न करना [4] ही अहिंसा [5] है।
वन पर्व एक कथा है कि कोई ब्राह्मण क्रोध से किसी पतिवृता स्त्री को भस्म कर डालना चाहता था; परन्तु जब उसका यत्न सफल नहीं हुआ तब वह उस स्त्री की शरण में गया। धर्म का सच्चा रहस्य समझ लेने के लिये उस ब्राह्मण को उस स्त्री ने किसी व्याध के यहाँ भेज दिया। यहाँ व्याध मांस बेचा करता था; परन्तु था अपने- माता- पिता का बड़ा पका भक्त। इस व्याध का यह व्यवसाय देखकर ब्राह्मण को अत्यंत विस्मय और खेद हुआ। तब व्याध ने उसे अहिंसा का सच्चा तत्त्व समझकर बतला दिया। इस जगत में कौन किसको नहीं खाता" जीवो जीवस्य जीवनम्"- यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। आपतकाल में तो "प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्" यह नियम सिर्फ स्मृतिकारों ने ही नहीं कहा है, किंतु उपनिषदो में भी स्पष्ट कहा गया है [6]। यदि सब लोग हिंसा छोड़ दे तो क्षात्रधर्म के अस्तित्व पर ही हमें पुनः विचार करना होगा; मरने और मारने का विज्ञान भी प्रकृति के अधीन चलनेवाली एक स्वयंक्रिया [7] ही समझने; जिसके आधार पर जीव अपने लिए उदार पूर्ति का प्रबंध कर लिया करते हैं। नीति के सामान्य नियम के साथ साथ व्यक्ति का व्यवहार कुशल [8] होना भी काफी महत्त्व का समझें; कुछ ऐसे काम हो जाया करेंगे जो हमें लगे कि शायद अन्याय ही कुछ हुआ; शेर हो दूसरे प्राणी का शिकार नहीं करना चाहिए; पर प्रकृति के गुणों से उस प्राणी को जिम्मेदारी नैसर्गिक रूप से उसे दी गई उसी गुण के अधीन जीव को कार्यरत रहना होगा; किसी और जीव का धर्म उसके लिए प्राणघाती भी साबित हो सकता है।
दूसरा तत्त्व "सत्य"[9] है । सभी धर्मों से अधिक महत्त्व का धर्म [10] भी सत्य को ही माना गया। सत्य कि प्रतिष्ठा विषयक चर्चा एक विशेष अध्याय में अलग से ही करेंगे। भीष्म पितामह प्राण छोड़ने के पहले" सत्येषु यतितव्यं "वः सत्यंहि परमं बलं" इस वचन को सब धर्मों का सार समझकर उन्होंने सत्य ही के अनुसार व्यवहार करने के लिये उपदेश किया है [अनुशासन पर्व ]। जो सत्य इस प्रकार स्वयं सिद्ध और चिर स्थायी है, उसके लिये भी कुछ अपवाद होंगे ! व्यवहार कुशल साधक यही कहेंगे कि निरपराधी जीवों की हिंसा , फरेब और धोखा से बचाना, संरक्षण देना, सत्य ही के समान महत्त्व का धर्म माना जा सकेगा; उसे आचरण में भी उतारा जा सकेगा। अब यह प्रश्न निर्माण हो जाना स्वाभाविक ही समझें कि सत्य और ससत्य, धर्म और अधर्म, न्याय और अन्याय विषयक भेद बुद्धि के बारे में कोई निर्णय कैसे ले ? शास्त्र में विस्तृत विवेचन भले ही रहे हों पर सूक्षम स्तर के भेद बुद्धि [11] से हम कभी कभी अनजान ही रह जाते होंगे। [12] यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके तो कुछ भी हो, बोलना नहीं चाहिये; और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से दूसरों को कुछ संदेह होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक प्रशस्त है।[13] इसका तुरंत में यह भी अर्थ नहीं निकाल लें कि भगवान सत्य के बदले असत्य का आश्रय लेने के लिए प्रेरणा दे रहे हैं। जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो वह आचरण, सिर्फ इसी कारण से निंदय नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयथार्थ है। जिससे सभी की हानि हो, वह न तो सत्य ही और न अहिंसा ही।
शास्त्रों का यह कथन नहीं है कि झूठ बोल कर किसी खूनी की जान बचाई जा सके; न ही इस बात का प्रतिपादन कराती कि असत्य , प्रपंच और धोखे को शास्त्र में प्रतिष्ठा मिले; शास्त्रों में किसी कि हत्या करनेवाले आदमी के लिये देहांत प्रायश्चित अथवा वध दंड की सजा कही गई है; इसलिये वह सजा पाने अथवा वध करने ही योग्य है। [14] सत्य विषयक अपवाद को उजागर करने के लिए अन्य कई बाहरी श्रोत से भी उद्धरण लिए जा सकेंगे।[15]
वर्तमान समय के उदाहरणार्थ, सिजविक [16] की राय: "सब से अधिक लोगों का सब से अधिक सुख”; छोटे लड़कों को और पागलों को उत्तर देने के समय और इसी प्रकार बीमार आदमियों को, अपने शत्रुओं को, चोरों को और जो अन्याय से प्रश्न करें उनको उत्तर देने के समय अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है; यही रियासत पादरियों और सिपाहियों को मिलती है।
यह भी शायद ही समीचीन हो कि हमारी दृष्टी में सत्य के कौन से पैमाने रहे हों और बाहरी दुनिया किसे सत्य मान लिया करेगी; क्या वह माणसा, वाचा और कर्मणा तक ही सीमित रहे या फिर उसे तत्व के चर्म उत्कर्ष तक लाकर हम यह भी कह सकें कि ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या !
[1] सब वर्ण के लोगों के लिये नीति धर्म के पाँच नियम बतलाये हैं "अहिंसा सत्यमस्तेयं शोचमिन्द्रियनिग्रहः"
अहिंसा,
सत्य,
अस्तेय,
काया,
वाचा और मन की शुद्धता, एवं इंन्द्रिय निग्रह। आचार्य मनु
[2] अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग: ।। पातंजल योग प्रदीप 35 ।।
जहां अहिंसा की प्रतिष्ठा हो चुकी उस सन्निधि में सभी प्राणियों या जीव -जन्तुओं का आपसी वैरभाव छूट जाता है ।
[3] गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्रह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायांतं हन्यादेवाविचारयन्।।
अर्थात्" ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरु है, बूढा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है"। शास्त्रकार कहते है कि ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता, किंतु आततायी मनुष्य अपने अधर्म ही से मारा जाता है। यज्ञ में पशु का वध करना वेद ने भी प्रशस्त माना है; परन्तु पिष्ट पशु के द्वारा वह भी टल सकता है। तथापि हवा, पानी, फल इत्यादि सब स्थानों में जो सैकडों जीव-जन्तु हैं उनकी हत्या कैसे टाली जा सकती है!
[4] सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोअपि निपातेन येषां स्यात् स्कंधपर्ययः।। [महाभारत]
"इस जगत में ऐसे ऐसे सूक्ष्मजन्तु हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से दिखाई नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आखों के पलक हिलावें तो उतने ही से उन जन्तुओं का नाश हो जाता हैं"।
[5] अहिंसा धर्म, सब धर्मों में, श्रेष्ट माना गया है।
[6] वेसू. 3.4.28; छां.र 5.2.1; बृ. 6.1.14
[7] नीतिशास्त्र के प्रधान नियम- अहिंसा- में भी कर्तव्य-अकर्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है। अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शांति आदि गुण शास्त्रों में कहे गये हैं;
[8] प्रल्हाद ने अपने नाती, राजा बलि से कहा हैः- न श्रेयः सततं तेजो ने नित्यं श्रेयसी क्षमा। तस्मान्नित्यं क्षमा तात पंडितैरपवादिता।। सदैव क्षमा करना अथवा क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं होता। इसीलिये, हे तात! पंडितों ने क्षमा के लिये कुछ अपवाद भी कहे हैं
[9] सारी सृष्टि की उत्पति के पहले 'ऋत' और 'सत्य' उत्पन्न हुए; और सत्य ही से आकाश, पृथ्वी, वायु आदि पंचमहाभूत स्थिर हैं।- "ऋतंत्र सत्यं चाभीद्धातपसोअध्यजायत", "सत्येनोतभिता भूमिः"। "सत्य" शब्द का धात्वर्थ भी यही हैं- 'रहने वाला' अर्थात जिसका कभी अभाव न हो' अथवा 'त्रिकाल अबाधित'। इसीलिये सत्य के विषय में कहा गया है कि 'सत्य के सिवा और धर्म नहीं है।'. कि 'नास्ति सत्यात्परो धर्मः| यह भी लिखा है किः- अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलना धृतम्। अश्वमेघसहस्रादि सत्यमेव विशिश्यते।। "हजार अश्वमेघ और सत्य की तुलना की जाय तो सत्य ही अधिक होगा"; “वाच्यर्था नियताः सर्वे वाड़मूला वाग्विनिः सृताः। तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।“ …मनु । "मनुष्यों के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते हैं। एक के विचार दूसरे को बताने के लिये शब्द के समान अन्य साधन नहीं हैं। वही सब व्यवहारों का आश्रय-स्थान और वाणी का मूल श्रोता है। जो मनुष्य उसको मलिन कर ड़ालता है, अर्थात जो वाणी की प्रतारणा करता है, वह सब पूंजी ही की चोरी करता है ।"
'सत्यपूतां
'वदेद्वाचं';
जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोला जाय।
[10] उपनिषद में भी कहा है 'सत्यं वद। धर्म चर'।
[11] " नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न” चान्यायेन पृच्छतः … मनु”- जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना न चाहिये और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे तो पूछने पर भी उत्तर नहीं देना चाहिये। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान कुछ हू हू करके बात देना चाहिये-” जान अपि हि मेधावी जडवलोक आचरेतू।”
[12] “न व्याजेनचरेद्धर्म …. महाभारत” धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिये; क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते, तुम खुद धोखा खा जाओगे।
[13] अकूजनेन चेन्मोक्षो नावकूजेत्कथंचन।
अवश्य कूजितव्ये वा शकरेन्वाप्यकूजनात्।
श्रेयस्तआनृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम्।। .. भगवान श्रीकृष्ण , कर्णपर्व; शांतिपर्व;
[14] “सच बोलना अच्छा है; परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सब प्राणियों का हित हो; क्योंकि जिससे सब प्राणियो का अत्यंत हित होता है, वही हमारे मत से सत्य है।“ … सनत कुमार के आधार पर नारद जी शुकजी से (शांति पर्व)
“हमारे सच बोलने से निरपराधी आदमियों की जान जाने की आशंका हो, तो उस समय क्या करना चाहिये? ऐसे मौकों पर नीतिशास्त्र मूक हो जाते हैं। …. ग्रीन नामक एक अंग्रेज ग्रंथकार; नीतिशास्त्र का उपोदघात नामक ग्रंथ;
“अहिंसा सत्य वचनं सर्वभूत हितं परम्”…. महाभारत के वन पर्व में, ब्राहाण और व्याध के संवाद;
[15] “यदि मेरे असत्य भाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है अर्थात ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है तो इससे मैं पापी क्यों हो सकता हूँ”…. फ्राईस्ट का शिष्य पॉल; बाइबल;
नीतिशास्त्र, किसी को धोखा देकर या भुला कर धर्मभ्रष्ट करना, न्याय नहीं मानेंगे; परन्तु वे भी यह कहने को तैयार नहीं हैं कि सत्य धर्म अपवाद-रहित है।
[16] सिजविक अपने ग्रंथ में यह भी लिखता है कि “यद्यपि कहा गया है कि सब लोगों को सच बोलना चाहिये तथापि हम यह नहीं कह सकते कि जिन राजनीतिज्ञों को अपनी कार्रवाई गुप्त रखनी पड़ती है वे औरों के साथ, तथा व्यापारी अपने ग्राहकों से, हमेशा सच ही बोला करें ”
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