श्रीमद्भागवद्गीता में जगदीश्वर एक स्थितप्रज्ञ भक्त के बारे में बताते हैं: आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकारके दुःखोंके प्राप्त होनेमें जिसका मन उद्विग्न नहीं होता ; विचलित नहीं होता; सर्वता अप्पने उद्देश्य पर अडिग रहता है; अपने दायित्व और कर्तव्य को सर्वोपरि समझता है; समाज में अपनी भूमका पालन करने के लिए सदा सचेष्ट रहता है; उद्विग्न न होने की स्थिति के बारे में कहा जाता है। [1] सुख पाने की स्पृहा नष्ट हो गई है; अग्नि में गहि डालने से जिस रकार अग्नि बढाती है उस प्रकार सुख की कामना से व्यक्ति के मन में लालसा का उदय और संवर्धन होता है; परजनालोक में उस लालसा का लोप हो जाएगा; साधक का मन ईश्वर अनुराग से भर जाएगा; इस स्थिति को विगत-स्पृह कहा जाता है।
वीतरागभयक्रोध की स्थिति में आसक्ति, भय
और क्रोध नष्ट हो जाता है; ईश्वर के पास शरण लेने की स्थिति में भी वासी ही स्थिति
का निर्माण होता है; उस गन के अधिकारी को ही स्थितप्रज्ञ कहा जाएगा। उस गन के अधिकारी
किसी को भी अपना शत्रु नहीं मानते, न ही किसी से द्वेष करते हैं; सबको प्रेम का ही
सन्देश देते रहते हैं। हर एक अवयव में ही जगदीश्वर
का अनुसंधान कर लेते हैं। मुनि या सन्यासी का स्थितप्रज्ञ होना तो अनिवार्य गन माना
गया; अतः स्वभावसिद्ध रूप से मुनि या सन्यासी स्थितप्रज्ञ ही होंगे; वैसी स्थिति न
पाने की स्थिति में कोई सन्यासी हो भी नहीं पाते होंग। सिर्फ बाहरी स्वरुप से अग्नि का त्याग, सम्पदा का
त्याग , या लोभ लालसा का त्याग करने के बाद भी अगर "वीतरागभयक्रोध " त्यागने
की स्थिति नहीं बन पाती होगी तो फिर वैसे साधक को स्थितप्रज्ञ नहीं मान पाएंगे।
सर्वत्र *अर्थात शरीर जीवन आदि तक में
) किसी के भी प्रति स्नेह से रहित हो चुके ; शुभ और अशुभ की स्थिति में न तो उद्विग्न
होते और न ही प्रसन्न होते; हर प्रकार से हर्ष और विषाद से मुक्त हो पाते होंगे; उनकी
प्रज्ञा को स्थिर माना जाएगा; उस मुनि को (या साधक को) स्थितप्रज्ञ मान पाएंगे । [2] इन्द्रियों
की तुष्टि करने से वह शांत नहीं होती; ठीक वैसे ही जैसे अग्नि में घी डालने से वह क्रमश
बढ़ाते ही रहता है।[3]
संसार में विरक्ति आने की स्थिति और भगवत्प्राप्ति की स्थिति परस्पर सम्पर्कयुक्त दशा
माना गया। संत महात्मा भी अपने अपने भाष्य
में उस अवस्था का उल्लेख करते रहे; उस परिस्थिति पाने के बाद साधक की क्या मनोदशा होती
होगी उस विषय में भी एक स्पष्ट धारणा बनी।[4] जिस प्रज्ञालोक के बारे में हम चर्चा कर रहे हैं
वहाँ सहज रूप से ही इन्द्रिय को उनके विषयों से हटाना संभव हो जायेगा; ऐसा नहीं हो
पाने की स्थिति को प्रज्ञालोक का वाचन नहीं मानेंगे; अग्नि के संसर्ग से दूर रखने की
स्थिति में घी का पिघलना रुका रहेगा; वैसे ही विषयों से दूर रह पाने की स्थिति में
इन्द्रियों के जरिये मन जगदीश्वर के विषयों में बना रहेगा; ऐसी स्थिति प्रज्ञालोक का
वाचक माना गया।
परम सत्ता के प्रति दिव्य प्रेम ही भक्ति
है; उस अवस्था में साधक को भूख - प्यास तक नहीं लगती; पीड़ा, प्रमाद और ख़ुशी तो दूर
की बात रही। इन्द्रिय के विषयों से मन आविष्ट हो जाता है; उसमें बाधा आने की स्थिति
में मन क्रोधित हो जाता है; क्रोधित मन मोहवश
इन्द्रिय आदि पर अपना नियंत्रण खो बैठता है; वैसी अवस्था से ही स्मृति का दिग्भ्रमित
होना और व्यक्ति का अपने ध्येय से भटक जाना अनिवार्य माना गया।[5] विषयों
से निवृत्त हो जानेपर ही मन को सम्पूर्ण रूप से इन्द्रिय ग्राह्य विषयों से हटा पाना
सभव हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है; मन के सूक्ष्म स्टार पर लालसा बनी भी रह
सकती है; वैसी स्थिति में पूर्ण "प्रज्ञा " की सम्प्राप्ति नहीं मान पाएंगे।
रस
शब्द राग ( आसक्ति ) का वाचक रूप से प्रसिद्ध
है क्योंकि स्वरसेन प्रवृत्तो रसिको रसज्ञः इत्यादि वाक्य शाश्त्र में लिपिबद्ध हुए; उस प्रकार का रागात्मक सूक्ष्म आसक्ति भी इस यतिकी परमार्थतत्त्वरूप
ब्रह्मका प्रत्यक्ष दर्शन होनेपर निवृत्त हो जाती है; " मैं (अहम्) ही वह ब्रह्म हूँ इस प्रकारका भाव दृढ़ हो जानेपर
उसका " विषयविज्ञान" या विषयन में विचरण करने के वृत्ति सम्पूर्ण रूप से
नष्ट हो जाती है। अतः यथार्थ ज्ञान हुए बिना रागका मूलोच्छेद नहीं होता; उस यथाथ
ज्ञान के जरिये ही बुद्धि को स्थिर किया जाना संभव हो पायेगा; यह जान लेने के बाद साधक
को बौद्धिक स्थिरता पाने का प्रयास करना चाहिए।
-------- [चन्दन सेनगुप्ता]
[1] दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः
स्थितधीर्मुनिरुच्यते श्रीमद्भागवद्गीता ।। अध्याय २ श्लोक ५६ ।।
[2] यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य
शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति
न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय २ श्लोक ५७ ।।
[3] न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति
।
हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। (श्रीमद्भागवतम्-९
.१९ .१४ )
"आग में घी
डालने से जिस प्रकार अग्नि की लपटें बढ़ती रहती है ठीक उसी प्रकार विषयों में लगे हुए
इन्द्रिय को और अधिक विषयों में लगे रहने की लालसा बढ़ती ही रहेगी; इन्द्रियों को विषयों
से हटाना बहुत ही कठिन हो जाता है; कभी कभी अधिकाधिक विषयों की उपस्थिति में इन्द्रिय
क उन विषयों से हटा पाना असंभव सा ही हो जाता है। "
[4] रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्धवाऽऽनन्दी
भवति।
(तैत्तिरीयोपनिषद्-२
.७ )
" जगदीश्वर सात-चित-आनंद हैं; उनकी सन्निधि को महसूस
कर लेने के बाद साधक का मन सहज ही तुच्छ सांसारिक विषयों से हैट जाता है ।"
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥श्रीमद्भागवद्गीता
अध्याय २, श्लोक ५९ ॥
"जगदीश्वर को जान लेने के बाद; उनके विषयों में ध्यान
लगाने के बाद इन्द्रिय ग्राह्य विषयों से साधक का मन हैट जाता है; यद्यपि संसार में
रहते हुए ऐसा कर पाना बहुत ही कठिन माना गया। "
[5] ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते
।
सङ्गत्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
-----श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय २ श्लोक ६२ ६३ ॥
"इन्द्रिय ग्राह्य विषयों के आवेश में मन मोहित हो
जाता है; आसक्ति कामना की ओर ले जाती है और कामना से क्रोध का उत्पन्न होना अनिवार्य
है। क्रोध व्यक्ति के निर्णय लेने की क्षमता
को क्षीण करता है; इससे स्मृति भ्रम हो जाता
है; स्मृति भ्रमित हो जाने के बाद बुद्धि का नाश हो जाता है। उस अवस्था में ही विपर्यय
आ जाता है; व्यक्ति का नैतिक पतन भी हो जाता है ।“
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
न दुह्यन्ति मन:प्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ।।
(श्रीमद्भागवतम्-९ .१९ .१३ )
"संसार के
सभी सुख, सुविधा, धन, सम्पदा पाने के बाद भी मन में से उन्हें पाने की लालसा को प्रशमित
नहीं किया जा सकता; इसीलिए बुद्धिमान मनुष्य वैसी लालसा का सर्वोपरि त्याग कर देते
हैं। "
"यदि कोई मनुष्य सभी प्रकार के धन, संपदा, ऐश्वर्य
और संसार के इंद्रिय भोग-विलास भी प्राप्त कर ले तो भी उसकी कामनाओं की समाप्ति नहीं
होगी इसलिए इसे दुःखों का कारण मानते हुए बुद्धिमान पुरुष को कामनाओं का त्याग करना
चाहिए।"
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