रविवार, 18 फ़रवरी 2024

भाष्य और भाषा

 

क्या यह जरूरी है की हर वक्त तत्ववेत्ता ऋषि महात्मा जब भी भाष्य लिखें तो वह संस्कृत में ही हो और उसे ही शास्त्रीय योगदान माना जाएगा? क्या अन्य विविध भाषा में लिखे कथामाला और व्याख्यान को भाष्य नहीं माना जाएगा?

            वस्तुतः भाष्य किसी भी भाषा में लिखे गए हों, अगर शास्त्र की गंभीरता और तत्वगत विवेचना विघ्नित न होती हो तो उस हास्य को शास्त्रीय योगदान मान लेने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए; उन तत्व विवेचना को किसी भी परिस्थिति में स्वीकार  कर लेनेवालों की संख्या भी बढ़ती ही रहेगी; इस मार्ग में तत्व वेत्ता ऋषियों में आपसी  सामंजस्य भी रह जाती है; हम उन सभी ऋषियों और विदूषकों से जब भी भाष्य सुनें तो उन सभी प्रस्तुति में भी सामंजस्य का निदर्शन मिलता ही रहेगा ; वस्तुतः शास्त्र विषयक चिंतन और विमर्श में तर्क की कोई संभावना है ही नहीं।

            भाषा के विषय में परस्पर भेद बुद्धि का विषय कुछ ऐसा ही है जैसे विविध नदियों की धारा विविध स्थान से निकलकर बीहडों, पहाड़ियों, खाड़ी और अरण्य भूमि के बीच से होते हुए अंततः सागर में ही जा मिलता और एकरूप हो जाता; इस पूरे सफर में रहते हुए भी जलबिंदु अपने तत्वगत स्वरुप को बनाये रख लेता और फिर से उस जलचक्र में समाविष्ट होने के लिए और आकाश मार्ग से विचरते हुए उच्च स्थानों पर जाकर फिर से नदी की धारा का हिस्सा बन जाता है; यह निरंतर चलनेवाली एक नैसर्गिक चक्र होने के साथ जीवन का समर्थन , संवर्धन और सम्पोषण करने लायक एक तत्व-सांगत चक्र भी बन जाता।  विज्ञान के आधार पर अगर विचार करें तो व्याख्यान की भाषा और स्वरुप भी बदल जाएगा; अगर धर्म दर्शन के सन्दर्भ को सामने रखकर विचार करते रहें तो शास्त्र की भाषा कुछ और प्रकार की होगी; विज्ञान की प्रगति के साथ सामंजस्य रखते हुए हमें भी अब उन अनजाने तत्व को अपनी चर्चा का हिस्सा बना लेना होगा जिसके बारे में हमारे पूर्वज कुछ हद तक अनभिज्ञ थे; सृष्टि और विनाश विषयक चक्र में, बतौर उदाहरण भी अगर चर्चा करें तो पायेह्गे, जैसी कल्पना वेदों और पुराणों में दर्ज थी उसी के मुताबिक़ कृष्ण अंचल में पूरे नक्षत्र मंडल और आकाश गंगा को ही समाविष्ट होते हुए और विनाश लीला का सामना करते हुए देखा गया।  कितना ही प्रयास और यत्न क्यों न कर लें सावर मंडल के साथ अपने इस आकाश गंगा का भी वही अंजाम होनेवाला है जो अन्य सर्जन को होता हुआ परिलक्षित किये जा रहे हैं। जगत को नाशवान समझते हुए भी हमारे मन में व्याप्त सभी भेद बुद्धि का प्रशमित हो जाना और ब्रह्म ज्ञान का उत्सर्जन एक सहज प्रगति के रूप में ही देखा जाना चाहिए, न कि किसी रूप से थोपा गया अनचाहे उत्सर्जन के रूप में।

अभिन्न परम सत्ता

सृष्टि के आदि काल से ही हम यह प्रत्यक्ष करते रहे हैं कि विश्व चराचर के विक्सित होने के हर क्रम में ब्रह्म स्वरुप परम सत्ता की उपस्थिति आवश्यम्भावी माना जाएगा।  कण मात्र को भी जो हम अस्तित्व में आते हुए और विक्सित होते हुए देख रहे हैं उसके पीछे उस परम तत्व की ही भूमिका मानी जा सकेग्गी; उसे ही चिरंतन अविनश्वर सत्ता भी मानेंगे। [1]  परमात्मा को प्रकट करनेवाला सत्ता भी स्वप्रभ ज्ञान ही है; [2] इसे अक्षर ब्रह्म को ध्यान में रखकर भी कहा गया। यही अक्षर ब्रह्म हमें अज्ञानता से छुटकारा पाने के लिए और परमात्मा के सान्निध्य को अनुभव करने के लिए सहायक बना रहेगा। [3]  

                ब्रह्म की संगति भक्त को परम आनंद देनेवाला ही है। [4] बुद्धिमान साधक सदा सर्वदा विद्वान और विनम्र ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और असंस्कारी को समान मानते हैं । [5] ब्रह्म में दृढ़, ब्रह्म को जाननेवाला, शांत बुद्धि वाला और मोह रहित व्यक्ति कोई प्रिय वस्तु प्राप्त होने पर उत्साहित नहीं होता, और न ही कोई अप्रिय वस्तु प्राप्त होने पर निराश होता है। [6]

पगड़ी  

योगी पुरुष, परिब्राजक युवा , रेगिस्तान के पथ कड़ी धूप में पैदल ही जा रहे थे; उस प्रकार की कड़ी धुप से कुछ अनभिज्ञ भी थे।  सर पर केशराशि भी काफी कम ही बचे थे। पहले तो गला सूखने लगा ; उन्हें लगा कुछ और दूर जाकर जरूर कोई छत्र छाया मिल ही जायेगी, पर दूर दूर तक इस प्रकार से कोई पगडंडी या फिर आसरे और जलछत्र का नाम मात्र भी  नहीं था।  पानी मिले या न मिले कम से कम  कड़ी धूप से राहत मिले तो भी बात बन जाती; मीलों तक उसकी भी कोई संभावना न थी।  कुछ देर चलने के बाद युवा महाराज जी का सर चकराने लगा। 

       "अरे गिरा, गिरा। " , ऐसा कहते हुए चार पांच अपने गागरोन को दर किनार रखते हुए दौड़ पड़ीं ; करीब आकर उस युवा सन्यासी के सर पर और मुख मंडल पर पानी का छिड़काव किया गया।  एक बाला ने अपना ओढ़ना निकालकर महाराज जी के लिए लपेटा बनाकर सेर पर डालते हुए फटकार भी लगाने लगी, "इस रेगिस्तान में रहते हुए और इस तरह कड़ी धूप में चलते हुए इस पगड़ी को बनाये रखना , समझ गए?"

बिना समझे कोई उपाय भी न था; उनके लिए वह लपेटा एक सीख ही बनकर आया।  ज्ञान पाने से किसी भी रूप में घमंड आना संभव ही नहीं हो सकता; अगर घमंड, दम्भ आदि आया तो समझो और बहुत कुछ सीखना शेष है ।  वैसे भी अगर कहा जाय तो मनुष्य जीवन भर कुछ न कुछ सीखते ही रहता है; उसके यह सीखने का सिलसिला कभी ख़त्म ही नहीं होनेवाला, भले ही जीवन चर्या ही क्यों न ख़त्म हो जाए।    



[1] सन्दर्भ गीता अध्याय १५: गीता में जिसे अक्षर ब्रह्म स्वरुप माना गया;

[2] 'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥' –

'जिसने ज्ञान के द्वारा आत्मा के अज्ञान को नष्ट कर दिया है, उसके लिए वह ज्ञान, सूर्य की तरह, परमात्मा को प्रकट करता है (गीता .१६)

[3] 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' - 'सत्यं ज्ञानम् अनंतम् ब्रह्म' - 'अक्षरब्रह्म शाश्वत, ज्ञानस्वरूप और असीम है' (तैत्तिरीय उपनिषद . ) 'प्रज्ञानं ब्रह्म' - 'प्रज्ञानं ब्रह्म' - 'अक्षरब्रह्म ज्ञान का स्वरूप है' (ऐतरेय उपनिषद . )

उपरोक्त श्लोक का सार यह है कि अक्षरब्रह्म गुरु हमें अज्ञानता से छुटकारा पाने और परमात्मा की प्राप्ति का साधन है।

[4] ' ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्ष्यमश्नुते' - ' ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षय्यमश्नुते' - 'जो ब्रह्म की संगति पाता है; मन, वचन और कर्म से अक्षरब्रह्म गुरु की संगति करता है; वह शाश्वत आनंद पाने का अधिकारी बन जाता है;अपनी आत्मा में परमात्मा के रूप में दृढ़ विश्वास, परम भक्ति, स्वेच्छा सेवा आदि गुणों को प्राप्त कर लेता है और ब्रह्मरूप बन जाता है  (गीता .२२ )

[5]  'विद्याविन्यस पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव स्वप्नकेच पण्डिताः समदिशानः॥' –  (गीता .१८ )

[6] प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसंमूढ़ो ब्रह्मविद्ब्राह्मणि स्थितः॥  – - अर्थ:  (गीता .२०)

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