ब्रह्म विषयक जिज्ञासा [1] से ही अपने मन में यह वृत्ति को उजागर होते हुए देखा जा सकेगा जिसके आधार पर हम उस शक्तियमान के स्वरुप के बारे में सम्यक ज्ञान पाने का प्रयास करते रहे; शास्त्रों का निर्माण हुआ; व्याख्यान
रचे गए; श्रुतियों में भी उन सभी तत्वों को पिरोया गया; ज्ञान काण्ड और कर्म काण्ड
की शाखाएं पल्लवित होती रही। महर्षि वेदव्यास ने ब्रह्म को विश्व चराचर जगत का उपादान और निमित्त कारण माना। [2]
(सौम्या को सम्बोधित करते हुए) जिस ब्रह्मांड को आप अब तक कई सिद्धांतों और उद्देश्यों के साथ प्रत्यक्ष करते आ रहे होंगे, इसके निर्माण से पहले ऐसा नहीं था, बल्कि "सत्" का रूप में मौजूद था; जिसका सूक्षम भेद करना कठिन ही मान सकेंगे ।[3] "सत्" की इच्छा थी कि "मैं बहुसंख्यक (विस्तारित-स्तूला) चित और अचित तत्त्व यानि ब्रह्मांड बन जाऊँ।" “सत्” अभिलाषा और प्रयोजन के मुताबिक़ अनेकों हो गई; इसे "सत्" का प्रथम संकल्प ही मानेंगे ।
आरंभ
में विश्व चराचर में हर वस्तु (परा और अपरा प्रकृति ) विपरीत आत्मा ही थी। और कुछ भी सक्रिय नहीं था। जीव के अस्तित्व में आने का तो प्रश्न ही न था । सिर्फ जड़ प्रकृति का ही वर्चस्व बना था ; सर्वशक्तिमान ने सोचा `(अब) वास्तव में मैं दुनिया का निर्माण कर लूंगा।[4] इस भांति संसार की रचना को हम आज वास्तवाईत होता हुआ देख पाएंगे।
ईष्ट के प्रति कहा जाता है: उन्होंने (स्वयं) कामना की, "मैं एक से अनेक हो जाऊं,
मेरा विश्व चराचर जगत में जन्म हो जाए।" वह (ब्रह्म) सृष्टि को रचकर उसी में प्रविष्ट
हो गया। और वहां प्रवेश करके, वह मंच और निराकार, परिभाषित और विशिष्ट, धारण करने वाला
और न टिकने वाला, चेतन और अचेतन, सत्य और असत्य ; इस भांति परस्पर विरोधाभाषी तत्व
स्वरुप बन गया; सत्य (जिसे ईश्वर का एक और स्वरू मान सकेंगे) वह सब कुछ बन गया जो वहाँ
है। वे उसे (जिसे ब्राह्मण भी मानते हैं ) सत्य कहते हैं। आरंभ में यह सब अव्यक्त/सूक्ष्म
(ब्राह्मण) ही था और विवर्तन की क्रमिक धारा में प्रकट होता चला आया ; इस धारा को आज
भी निरंतर प्रवाहित होता हुआ देख सकेंगे। [5] ब्रह्म स्वरुप और उसके सर्वव्यापी अधिष्ठान के बारे
में भी यही मान्यता चलती चली आई कि ब्रह्म
को सर्वव्यापी परम सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया ; आदि में
ब्रह्मा ही थे।[6]
ब्रह्म अस्वीकृत आनंद का स्रोत है; उस स्रोत के संपर्क में आने से व्यक्ति खुश हो जाता है। कौन सांस लेगा, और कौन छोड़ेगा, अगर यह आनंद परम स्थान (हृदय के अंदर) में नहीं है; जीवंत रचना है; जब कभी भी कोई साधक इस अगोचर, अशरीरी, अनिर्वचनीय और निराधार ब्रह्म में निर्भयतापूर्वक अधिष्ठान पाता है; तो वह अकुतोभय की स्थिति में पहुँच जाएगा ; यह अंतर्ज्ञान उत्पन्न करने के साथ साथ विद्वान व्यक्ति के लिए भय का कारण भी बनेगा; ख़ास टूर पर पर उनके लिए जिनमें एकतावादी दृष्टिकोण का अभाव
हो जाएगा
। [7] एक कथा ऐसी
भी प्रचलित हुई जिसमें पिता अपने पुत्र को कुछ लवण देकर पानी में डालकर आने के लिए
कहे; दूसरे दिन फिर से पुत्र से वही नमक वापस मांगी गई, उस वक्त पुत्र को वह नमक नहीं
मिला; वो पूरी तरह पानी में घुल-मिल चूका था। फिर उस जल का स्वाद कहीं से भी लेने के
लिए कहा गया; और हर बार उस जल का स्वाद एक जैसा (नमकीन) ही पाया गया। [8] हम वटवृक्ष के बीज को भी अगर खोलकर देखने का प्रयास
करें तो हमें उस बीज के अंकुरण से निकलनेवाले नए वटवृक्ष को नहीं देख पाते। [9] न ही चराचर
जगत उत्पन्न करनेवाले उस परम सत्ता के अधिष्ठान को ही महसूस कर पाते। क्या किसी डाल
पर प्रहार करने से किसी वृक्ष का जीवन नाश किया जा सकेगा? क्या वृक्ष के तनों
पर प्रहार करने से उसके जीवन का नाश किया जाना संभव हो पायेगा? क्या यह भी संभव है
किसबके सब डाल काट दिए जाएँ तो वृक्ष की जीवन लीला समाप्त हो जाए ? [10] क्या नदी को इस बात का ज्ञान हो पायेगा
कि उसके उत्पत्ति और समाप्ति का निमित्त कारण समुद्र ही होता रहेगा? समुद्र में मिल
जाने के बाद फिर उसके (नदी के और उसमें बहनेवाले जा कणों के) अस्तित्व ही कहाँ रह जाता
होगा ! [11]
यज्ञ संस्कृति अपने समुदाय में प्रचलित एक
उत्तम संस्कृति का परिचायक बना; लोग विविध प्रकार से कर्म काण्ड और ज्ञान काण्ड के
आलोक में इसे अपनाते रहे; विविध कर्म अनुष्ठान को यज्ञ का रूप दिया गया; गुरुगृह में
शिक्षु भी ज्ञान यज्ञ में भाग लेकर खुद को ज्ञानवान बनाने के लिए जुटेंगे; चिकित्सक
का यज्ञार्थ कर्म चिकित्सा नहीं, शिक्षक का शिक्षण नहीं, कृषक का खेती नहीं; सबका यज्ञार्थ
कर्म शुद्ध रूप से ईश्वर आराधना को ही समझें; हर काम में लगे रहते समय भी निर्लिप्त
भाव का होना अनिवार्य माना जाएगा।[12] शरीर,
इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं है- यह सिद्धांत
है। अतः अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने से स्वतः एक दूसरे की उन्नति होती है। निःस्वार्थ
भाव से उन संबंधियों की सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें; हमारे जितने भी सांसारिक संबंधी-
माता-पिता, स्त्री- पुत्र भाई- भौजाई आदि हैं, उन सब की हमें सेवा करनी है; मर्यादा
के अनुसार उन्हें सुख पहुँचाना ; उनसे कोई आशा रखना और उन पर अपना अधिकार मानना नहीं;
उनकी सेवा करना, हमारा कर्तव्य है। देवता से प्राप्त
सामग्री का यथोचित व्यवहार न करने कि स्थिति में: देवता भी
(दोनों से भावित हुए) कर्तव्य पालन की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे।
उन प्राप्त हुई सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है।
[1]
“भृगुर्वै
वारुणिः।
वरुणं
पितृमुपासर।
अधिहि
भगवो
ब्रह्मेति।
तस्मा
एतत्प्रोवाच।
अन्नं
प्राणं
चक्षुः
श्रोत्रं
मनो
वाचमिति।
यतो
वा
इमानि
भूतानि
जायन्ते।
येन
जन्मनि
जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।
तद्विजिज्ञस्व.
तद्ब्रह्मेति।“
“वरुण के प्रसिद्ध पुत्र भृगु, अपने पिता के पास (औपचारिक रूप से आवेदा निवेदन करते हुए ) आशीर्वाद के साथ निवेदन करते हुए कहते हैं: , 'हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दें। ' उन्होंने (वरुण ने) कहा: 'अन्न, प्राण, आंख, कान, मन, वाणी - ये ब्रह्म के ज्ञान के साधन हैं। जिससे ये सभी जीव जन्म लेते हैं, जीवित रहते हैं और मृत्यु के बाद फिर से इस चराचर जगत में ही विलीन हो जाते हैं । उसे जिस महान तत्व को महसूस करने की लालसा रहा करेगी , वह ब्रह्म है। “
तैत्तिरीय उपनिषद ३ - १
[2]
" जन्माद्यस्य
यतः
।"
, "यह विश्व चराचर जगत (जड़-चेतनात्मक व्याप्ति) का उपादान और निमित्त कारण ब्रह्म ही है। " ( ब्रह्म सूत्र - १,१.२ )
[3]
"सदेव
सोम्येदमग्र
असीडेकमेवद्वितीयम्।
तद्धैक
अहुर्सदेववेदमग्र
असीडेकमेवाद्वितीयं
तस्मादसतः
सज्जयत्
॥
तदैक्षत्
बहु
स्यां
प्रजायेयति
तत्तेजोऽसृजत्
तत्तेज्
अक्षत्
बहु
स्यां
प्रजायेयति
तदपोऽसृजत्।
छान्दोग्य
उपनिषद
6.2.1॥"
[4]
आत्मा
वा
इदमेक
अवाग्र
आसीत्।
नान्यत्
किंचन
मिष्ट।
स
एकत्
लोकान्नु
सृजा
इति। स इमाळलोकानसृजत्।।।ऐतरेय उपनिषद् 1.1.1।।
[5]
सोऽकाम्यत्।
बहुस्यां
प्रजायेयति।
तत्सृष्ट्र।
तदेवानुप्रविशत्।
तदनुप्रविश्य।
सच्च
त्यच्च्भवत्।
निरुक्तं
चानिरुक्तं
च।
नीलयनं
चानिलेनं
च।
विज्ञानं
चाविज्ञानं
च।
सत्यं
चानृतं
च
सत्यमभवत्।
यदिदं
किंच।
यदिदं
किंच।
तत्सत्यमित्यचक्षते।
असद्वा
इदमग्र
आसीत्।
ततो
वै
सदजायत।
तैत्तिरीय
उपनिषद
2.6
[6]
"ब्रह्मा
वा
इदम्
अग्र
असित।
"।।। बृहदारण्यक 1.4.10; मैत्री उपनिषद 6.17
[7]
रसो
वै
सः।
रश्नयेवायं
लब्ध्वनन्दि
भवति।
को
ह्येवन्यात्कः
प्रणयत्।
तदेष
आकाश
आनन्दो
न
स्यात्।
एष
ह्येवानंदयाति।
यदा
हयेवैष
एतस्मिन्नदृष्टिएऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं
प्रतिष्ठां
विन्दते।
अथ
सोऽभयं
गतो
भवति।
यदा
ह्यैवैष
एतस्मिन्नुदरमन्तरं
कुरुते।
अथ
तस्य
भयं
भवति।
तत्त्वेव
भयं
विदुषोऽमन्वानस्य।
तदपयेश्
श्लोको
भवति।।
तैत्तिरीय
उपनिषद
2.7.1।।
[8]
लवणमेतदुदकेऽवधायाथ
मा
प्रातरुपसीदथा
इति
स
ह
तथा
चकार
तँ्
होवाच
यद्दोषा
लवणमुदकेऽवाधा
अङ्ग
तदाहरेति
तद्धावमृश्य
न
विवेद
।।
6.13.1 ।।
यथा विलीनमेवाङ्गास्यान्तादाचामेति कथमिति लवणमिति मध्यादाचामेति कथमिति लवणमित्यन्तादाचामेति कथमिति लवणमित्यभिप्रास्यैतदथ मोपसीदथा इति तद्ध तथा चकार तच्छश्वत्संवर्तते तँ् होवाचात्र वाव किल सत्सोम्य न निभालयसेऽन्नैव किलेति ।।
6.13.2 ।।
[9]
न्यग्रोधफलमत
आहरेतीदं
भगव
इति
भिन्द्धीति
भिन्नं
भगव
इति
किमत्र
पश्यसीत्यण्व्य
इवेमा
धाना
भगव
इत्यासामङ्गेकां
भिन्द्धीति
भिन्ना
भगव
इति
किमत्र
पश्यसीति
न
किञ्चन
भगव
इति
।।
6.12.1 ।।
[10]
अस्य
सोम्य
महतो
वृक्षस्य
यो
मूलेऽभ्याहन्याज्जीवन्स्रवेद्यो
ध्येऽभ्याहन्याज्जीवन्स्रवेद्योऽग्रेऽभ्याहन्याज्जीवनस्रवेत्स
एष
जीवेनात्मानानुप्रभूतः
पेपीयमानो
मोदमानस्तिष्ठति
।।
6.11.1 ।।
अस्य
यदेकाँ्
शाखां
जीवो
जहात्यथ
सा
शुष्यति
द्वितीयां
जहात्यथ
सा
शुष्यति
तृतीयां
जहात्यथ
सा
शुष्यति
सर्वं
जहाति
सर्वः
शुष्यति
।।
6.11.2 ।।
एवमेव
खलु
सोम्य
विद्धीति
होवाच
जीवापेतं
वाव
किलेदं
म्रियते
न
जीवो
म्रियत
इति
|
[11]
इमाः सोम्य नद्यः पुरस्तात्प्राच्यः
स्यन्दन्ते पश्चात्प्रतीच्यस्ताः समुद्रात्समुद्रमेवापियन्ति स समुद्र एव भवति ता यथा
तत्र न विदुरियमहमस्मीयमहमस्मीति ।। 6.10.1 ।।
[12]
इष्टान्भोगान्हि
वो
देवा
दास्यन्ते
यज्ञभाविताः
।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ।। 12 ।।
‘इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः’-
‘इष्टभोग’: शब्द का अर्थ इच्छित पदार्थ नहीं हो सकता।
भोगों की इच्छा रहते परम कल्याण कभी हो नहीं सकता।
‘इष्ट’ शब्द ‘यज्’ धातु से निष्पन्न होने से तथा
‘भोग’: आवश्यक सामग्री; “वे देवता यज्ञकरने की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे।“
‘यज्ञभाविताः देवाः’देवता तो अपना अधिकार समझकर मनुष्यों को आवश्यक सामग्री प्रदान करते ही हैं, केवल मनुष्यों को ही अपना कर्तव्य निभाना है।
‘तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते’- देवताओं के लिये ‘ते देवाः’ पदों का प्रयोग ; उनके सामने मनुष्य थे, देवता नहीं। परंतु यहाँ ‘एभ्यः’ समीपता का द्योतक है। भगवान के लिये सभी समीप ही हैं।
‘भुङ्क्ते’: केवल भोजन करन से ही नहीं है, प्रत्युत शरीर-निर्वाह की समस्त आवश्यक सामग्री[ को अपने सुख के लिये काम में लाने से है।
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