सोमवार, 19 फ़रवरी 2024

नैसर्गिक शिक्षा

 

शिक्षण एक निरंतर चलने वाली सतत प्रक्रिया है | इसे सिर्फ़ विद्यालय तक सीमित नहीं माना जा सकता | हमारे निसर्ग के प्रत्येक कण में शिक्षण पाने लायक तत्व भरा पड़ा है | चाहिए एक सकारात्मक दृष्टि ताकि उन बिखरे विचार को हम सफलता पूर्वक ले सकें | मां, बाप, गुरु, संत, बच्चे इनमें यदि हम परमात्मा देख सकें, तो फिर किस रूप में देखेंगे ? इससे उत्कृष्ट रूप परमेश्वर का दूसरा नहीं है। ईसप के राज्य में  सियार कुत्तेकौएहिरनखरगोशकछुएसांपकेंचुए- सभी बातचीत करते हैंहंसते हैं। एक प्रचंड सम्मेलन ही समझिए ǃ ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है।

 

मानव के बौद्धिक और वैचारिक प्रगती से हमारा यही अभिप्राय रहता है कि उसमें कुछ ऐसा परिवर्तन जाए जिसके आधार पर उसे समाज में कारगर और यशस्वी बनाया जा सके | हम यह भी चाहते हैं कि व्यक्ति में अच्छे बुणों का समावेश हो और दुर्गुणों का नाश हो | व्यक्ति में दोनों विरुद्ध विचारों का होना एक नैसर्गिक नियति है | कभी भी शुद्ध सात्विक या फिर शुद्ध तामसिक कोई व्यक्ति नहीं बन सकता | उसमें तीन गुणों के अंश में बदलाव भले ही जाएँ पर किसी एक गुण से व्यक्ति को संपूर्ण रूप से मुक्त कर पाना कभी संभव ही नहीं हो सकता | हमें यह भी देखना होगा कि शिक्षण प्रक्रिया सिर्फ़ सात्विक गुणों का संवर्धन करने वाला है या उस प्रक्रिया में तामसिक गुणों से व्यक्ति को मुक्त करने की विधा भी सम्मिलित की गई है | इस काम के लिए हम सिर्फ़ विद्यालय पर निर्भर रहें यह भी उचित नहीं माना जा सकेगा, ही वास्तविक | व्यक्ति विद्यालय के बाहर भी काफ़ी समय तक विविध गतिविधियों के ज़रिए सक्रिय रहता है ; अतः उन सभी नैसर्गिक तत्वों से भी व्यक्ति कुछ कुछ नैसर्गिक शिक्षण प्राप्त कर लेता है |

 

निसर्ग से, परिवार से, माता पिता से शिक्षण पाने के बारे में सचेत रहते हुए हमें उन सभी तत्वों के बीच एक कड़ी स्थापित  करने का प्रयास करना चाहिए जिससे शिक्षण प्रक्रियाओं को एक दूसरे से जोड़ा जा सके और पूरी प्रक्रिया को अधिक कारगर बनाया जा सके |.   इस विषय में हम यह भी उम्मीद रखते हैं कि निरंतर चलने वाली शिक्षण प्रक्रिया के क्रम में व्यक्ति ज़मीन से जुड़ा रहे और उसके सांस्कृतिक और वैचारिक परिपक्वता का संवर्धन हो सके, कि किसी विरोधाभाषी विचारों का संकर्षन होता हुआ द्वंद उतन्न हो | व्यक्ति क्रमशः द्वंद के साथ रहना सीख लेता है ; प्रकृति का द्वंद, कर्म क्षेत्र का द्वंद और व्यक्ति जीवन का द्वंद उत्पन्न होते रहता है | उन सभी द्वंद को झेलते हुए व्यक्ति को क्रियाशील बने रहना है | शिक्षा का यह भी अभिप्राय है कि व्यक्ति को द्वंद झेलने की सहज कला का ज्ञान हो सके | रात- दिन, ऋतु परिवर्तन, लाभ हानि, भला -बुरा , आदि सभी द्वंद की ही परिस्थितियाँ हैं | जिस व्यक्ति में बुद्धि की स्थिरता और विचार की परिपक्वता चुकी उसे किसी भी द्वंद के कारण कोई समस्या के प्रकोप मे नहीं पड़ना है | बल्कि उसे कुशलता पूर्वक द्वंद को झेलते हुए अपनी भूमिका बनाते हुए समाज में और निसर्ग में क्रियाशील रहने की कला जाएगी |

 

हमें यह भी समझना होगा कि शिक्षण की प्रक्रिया कभी भी रुकनेवाली प्रक्रिया है | यह विषय कुछ वैसा ही है जब हम नाव लेकर किसी विस्तीर्ण जलराशि में नौका विहार के लिए उतरे हों और दूसरे पड़ाव के आने का इंतजार करते हों; दूसरा पड़ाव इतना दीर्घ है जिसके आने का हम बस इंतजार करते रहते हैं और जीवन बीत जाता है | इसे हम नमक के पुतले का सागर नापने के विषय से भी मिलाकर देख सकते हैं | सागर नापने का काम होते होते नमक का पुतला पिघल जाता है | हम सब पुतले ही हैं; कोई छोटा तो कोई बड़ा | आख़िर सबको पिघलना ही है और अपार ज्ञान का सागर  हमारे  लिए  अछूता ही रहनेवाला |

एक पंडित शास्त्रार्थ करने काशी आए | कबीर दास जी से उनका शास्त्रार्थ कराया गया | कबीर दासजी उस पंडित से पूछने लगे, "आप पढ़कर  समझे हैं या समझकर फिर पढ़े हैं?"

इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के क्रम में ही बहुत बड़ा शास्त्रार्थ हो गया | जिसने दो अक्षर वाले शब्द "प्रेम" का सही अर्थ जान लिया हो उसका पढ़ना ही सार्थक मानें |

भगवान का पता अगर किसी से पूछें तो उसपर व्याख्यान करने के लिए सभी जन तुरंत प्रस्तुत हो जाते हैं | भगवान सर्वत्र भले ही रहें पर उन्हें प्राप्त करने का मार्ग तो प्रेम की सांकरी गली से ही निकलेगा | लोग तो यह भी कहेंगे  ईश्वर खोजने वाले के भीतर ही मिलेंगे |

 

एक पढ़ा लिखा व्यक्ति बनारस की गंगा में नौका विहार पर निकला | माझी से विनोद में पूच बैठा, "अँग्रेज़ी जानते हो?"

 

"नहीं हुजूर, मैं भला अँग्रेज़ी आदि का क्या जानूँ ! मुझे तो लिखना पढ़ना भी भी नहीं आता "

 

"तब तो तुम्हारा बारह आने जीवन ही बेकार है |"

 

माझी मन ही मन मुस्कुरा रहा था और चुप रहना ही मुनासिब समझा | संयोग वश बीच नदी में नाव डगमगाया | अब वो अजनबी पढ़ा लिखा व्यक्ति घबराया |

 

"हुजूर आपको तो तैरना आता ही होगा !" माझी पूछ बैठा |

 

"नहीं मेरे भाई मुझे तैरना बिल्कुल ही नहीं आता | कोई उपाय निकालो और नाव को किनारे ले चलो |"

 

उस व्यक्ति की घबराहट देखकर अब माझी को भी विनोद करने का मौका मिल गया , "तब तो आपकी सोलह आने जीवन ही बेकार हो गई !"

 

ऐसा जीवन ही किस काम का जिसे मुसीबतें झेलना आता हो ! अब उस आगंतुक को अपने घमंडी होने के कारण लज्जा हो रही थी | अपने तैर पाने के कारण और ज़्यादा लज्जित हो रहा था | बीच नदी में से उसे बचाकर निकाल लाने के लिए उसका ज्ञान किसी काम आएगा |

 

ऐसे कई प्रसंग मिलेंगे जिसके बारे में हम पाएँगे कि ग्रंथों  से मिली शिक्षा की अपनी सीमाएँ हैं और प्रत्यक्ष अनुभव से मिलने वाले ज्ञान की व्यवहार कुशलता कहीं अधिक होती है | उस कौशल की प्राप्ति के लिए हम और अधिक सघन रूप से ज्ञान मंथन और कर्म चंचलता पा सकेंगे | परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए भी हमें व्यवहार कुशल होना होगा | कौन ब्रह्म ज्ञानी है और कौन मूर्ख इसका आकलन तो परिस्थिति के मुताबिक ही किया जा सकेगा | आकाश मार्ग से हवाई जहाज़ से जाते समय उस नौका के माझी का अनुभव कोई काम में नहीं आएगा | जहाँ जिसकी भूमिका बनती है उसी सीमा में उसके कौशल्य की प्रतिष्ठा मानी जाएगी | हम किसी ब्रह्मा ज्ञानी से अन्य किसी ब्रह्म ज्ञानी की तुलना भी हर परिस्थिति में नहीं कर सकेंगे | अनेकांति विचार की दृष्टि से हर व्यक्ति उतना ही अहम है जितना अहम हम खुद को मानेंगे |  भारतीय परंपरा के महर्षि और संतगण भी अपने दार्शनिक विचार के माध्यम से उस मैत्री के महामंत्र की ही प्रतिष्ठा माने जिसे वेद में भी स्वीकृति मिली हुई है | कृष्ण भगवान अर्जुन  को युद्ध भूमि में  भली भाँति तत्व दर्शन और कर्तव्य बुद्धि का पाठ दे सके और इसमें उनको काफ़ी सफलता मिली इसका एक ही कारण है कि उन्होंने अर्जुन से अपना मित्रवत व्यवहार रखा | सर्वशक्तिमान के उस मैत्री का स्वरूप ही था जिसके कारण उन्हें अर्जुन की शंकाएँ दूर करने में सहजता मिली |

 

 

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