चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता
अपने दैनिक जीवन में
कुछ हादसे ऐसे भी होते हैं
जो पूरी व्यवस्था और न्याय तंत्र
पर ही एक सवालिया
निशान छोड़ दिया करता है। उन
हादसों के बारे में
अखबार और अन्य संचार
माध्यम काफी कुछ लिख डालते हैं; अलग अलग सम्प्रदाय और राजनीति से
जुड़े लोगों कुछ कर गुजरने के
लिए मार्ग मिल जाना एक स्वाभाविक सी
बात ही समझें।
सवाल कुछ बड़ा सा तब पैदा
हो गया जब चिकित्सा विज्ञान
से जुड़े किसी छात्र को हादसों का
शिकार होना पड़ा। यह
तो सच ही है
कि उन हादसों को
अनजाम देनेवालों पर क़ानून का
शिकंजा कसने का उपक्रम एक
जांच का विषय है। उस
हादसे को एक सामान्य
घटना बोलकर शाशन पक्ष के नेताओं ने
समग्र चिकित्सक सम्प्रदाय के साथ साथ
सभी नागरिकों को भी शर्मिंदा
कर दिया।
विषय तब और ज्यादा
बिगड़ जाती है जब हम
पाते हैं कि हादसों से
जुड़े सबूत को मिटा डालने
कीप्रक्रिया चल पड़े और
फिर उस प्रक्रिया में
शाशन की कुछ लोगों
के जुड़े होने कि खबर चलने
लगे। कुछ
मतलबी, खुदगर्ज और हिंसा से
ग्रसित लोग ही अक्सर हादसों
को अंजाम दे दिया करते
हैं; यह कोई नयी
बात
नहीं; सुर - असुर का संग्राम काफी
पुराना ही मानें।
हम कितना सभ्य और व्यवस्थित हो
पाए होंगे इसका आकलन इसी बात से लगाया जा
सकेगा जब हम उन
आंकड़ों की और
ध्यान देंगे जहां स्त्रियों को समाज में
सुरक्षित रहने की बात
कि जा सकेगी।
सिर्फ इतना ही नहीं किसी
भी जीव के प्रति हिंसा
का प्रमाण कितना पाया जा रहा है। कई माने में
अपने समाज में भी स्त्रियों को
सुरक्षित रख पाना एक
चुनौती मानी जा रही है।
सवाल यह भी पैदा हो रहा है जिसके अंतर्गत
हम यह समझना चाहेंगे कि आखिर किस आकर्षण से विद्यार्थी चिकित्सा विज्ञान को सबसे पहली
प्राथमिकता के रूप में मानने लग जाते हों और उस स्पर्धा के लिए तन, मन और धन लगा दिया
करते हों; यहां तक कि जीवन का बड़ा हिस्सा उस पदवी को पाने के लिए लगा डालते होंगे जिसके
पाने के बाद उन्हें यह भी लगता होगा कि उन्होंने जीवन एक बड़ा पड़ाव पार कर लिए हों
! असलियत यह है कि चिकित्सा विज्ञान को सबसे सुरक्षित रोजगार का माध्यम माना जाने लगा।
ख़ास तौर पर एक ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर लिया गया जहां चिकित्सक को समाज
में काफी सफल किरदार माना जाने लगा। उन्हें
भी ऐसा लगाने लगा वे कुछ ख़ास ही हैं } और शायद
अन्य लोगों का जीवन उनके बिना बिलकुल बेकार ही है। एक और विडम्बना इस बात को लेकर बनती चली गई जब यह
पाया गया कि उन्हें ख़ास परीक्षा के जरिये ही
चिकित्सा कर पाने कि पारंगति विषयक प्रमाणपत्र पाना होगा।
पैसों
का पैमाना
पैसा ही जहां रोजगार और प्रगति का पैमाना
हो गया हो वहां किसी भी किरदार का घमंडी हो जाना एक स्वाभाविक सी बात ही समझें। इसी पैमाने के अंतर्गत चिकित्सक वर्ग खुद को अक्सर
समाज के सामान्य जनों से खुद को अलग कर लिया करते होंगे , और उसी भावना के जरिये अन्य
सामान्य जनों को स्वीकार करते होंगे। उन्हें
कभी कभी जन रोष का भी सामना जरूर करना पड़ता होगा।
परिस्थिति अगर विपरीत हो जाए तो उन्हें भी रोष का सामना करना ही पड़ता होगा। बीच बचाव करने के लिए सरकार बहादुर के सिपाही ही
शायद उनका ही पक्ष लेकर मैदान में उतरते होंगे।
अब हम उन परिस्थितियों के बारे में सोच पाएं भी या नहीं, जिस परिस्थिति के अंतर्गत
मानव अंगों कि तस्करी, यहां तक मुर्दा घर से मुर्दों के गायब हो जाने लायक गंभीर विषय
हमारे दृष्टिगोचर कराये जाते हों। उस परिस्थिति
के बारे में सोचकर भी शायद आम जनों को डर लगता होगा।
कभी कभी ऐसा भी लगने लगता है जैसे औषधि
के बिना पूरा जीवन ही बेकार हो गया ; कुछ ऐसे
भी मरीज पाए जाएंगे जिनके औषधि का दैनिक खर्च
भोजन के लिए होनेवाले खर्च से कहीं ज्यादा हो जाता है। कुछ लोग इस बात को लेकर शान भी जताते होंगे जैसे
ज्यादा औषधि लेना शायद अमीरी की एक पहचान बन गई हो। आये दिन परिस्थितियां बदतर होती चली जा रही है। समग्र समाज दिन प्रतिदिन एक ऐसे दलदल में फंसती चली
जा रही है जहां से निकल पाना कभी कभी असंभव सा ही लगाने ागता है। आये दिन नयी दवा, नए रोग और नयी व्यवस्था से हमारा
सामना हो जाता है; अभी अभी समग्र दुनिया को एक विकराल परिस्थिति से काफी प्रयत्न के
बाद ही मुक्त करा पाना संभव हो सका।
व्यक्ति
के लिए व्यवस्था
एक और द्विविधा की बात कुछ ऐसी है जब
हम यह पता करना चाहते हैं कि आखिर व्यक्ति के लिए व्यवस्था बनायी जाती होगी या फिर
व्यवस्था में व्यक्ति को ढलते राणा होगा ? इस शंका का समाधान करने के लिए हमें पहले
यह पता लगाना होगा कि क्या सभी नागरिक चिकित्सा सुविधा पाने कि पात्रता रख पाते हैं?
क्या उन सभी नागरिकों को सामान रूप से उत्तम चिकित्सा सुविधा मिल पाती होगी; या फिर
उनमें से कईयों को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता
होगा। काफी दिन से यह भी शिकायत मिलती आई कि
चिकित्सक अक्सर अस्पताल से बाहर रहकर मरीज देखकर अधिक पैसा कमाने में ज्यादा रूचि रखते
आये हैं, न कि अस्पताल में दाखिल मरीजों उत्तम चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए
प्रयास करते हुए पाए जाते हैं । व्यक्ति को किसी व्यवस्था के अधीन अगर छोड़ दिया जाए
तो उस व्यवस्था को बिखरते हुए भी देखा जाएगा; कुछ लोग विकल्प व्यवस्था बनाने का भी
प्रयास करते हुए पाए जाएंगे। हमारे लिए चिकित्सा
विज्ञान का विषय आज कोई नया नहीं; और न ही हम पूरी तरह औषधि विज्ञान की गुलामी करना
पसंद करना चाहेंगे। हमारी सनझ हमें ऐसा करने
के लिए शायद ही अनुमति दे ! तकनीक और शल्य चिकित्सा कि अपनी ही कुछ मर्यादा रहती होगी। हम उस विधान का भी सम्मान करना चाहेंगे जिसके अंतर्गत
कई मरीजों को जीवन दान मिल जाता हो। हम उस
विधान को भी पनपते हुए देखना चाहेंगे जहां नयी विधि और नए प्रकल्पों को अनजाम दिया
जाता होगा। पर हर विधान के पीछे एक और मर्यादा
कि लकीर संदर्भित हो जायेगी जहां हम विज्ञान और प्रकल्प कि गुलामी नहीं करना चाहेंगे; बल्कि उन प्रकल्पन और विजान के अनुभवों
पर एक कुशल नियंत्रण रखना होगा।
व्यक्ति को अगर किसी व्यवस्था के अधीन
रहने के लिए बाध्य किया जाए तब उस स्थिति में हर व्यक्ति तक सुविधा पंहुचा पाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं; ख़ास करके तब जब
कोई भी कार्यकर्ता अपने विधायक कर्म के प्रति एक पैमाने तक समर्पित और कर्तव्यनिष्ठ
न हों। व्यवस्था कुछ ऐसी बने जिसके अंतर्गत आम जरूरतों को स्थानिक तौर पर पूरी किया
जा सके; छोटी से छोटी जरूरतों के लिए व्यक्ति
को इधर उधर भागना न पड़े।
उत्तम
कोटि का विधान
किसी भी हिंसा का दमन करने के लिए और
बड़ी हिंसा का सहारा लिया जाना -- यह कोई प्रगति का विज्ञान नहीं। इसके जरिये
हम कुछ ख़ास हासिल भी नहीं कर पायेंगे और न ही जनता जनार्दन के लिए न्याय का दरवाजा
खोल सकेंगे। नियम कुछ ऐसे बनें जहां हर नागरिक
को कुशलता पूर्वक न्याय प्रक्रिया के साथ जोड़ी जा सके और हर मुद्दे का राजनीतिकरण न
हो। किसी मुद्दे का राजनीतिकरण हो रहा है कि
नहीं यह देखने के लिए बाहर से शायद कोई आये और हमें दिशा निर्देशित करे। हमें अपने विवेक से काम लेते हुए अपराध, अपराध करनेवाले
तत्व और उन उपद्रवी तत्वों को शरण देनेवालों से सुरक्षित दूरी बनाकर चलना होगा ; यह
भी हमें ही तय करना होगा कि हर सस्थान में अपराध दमन विषयक मुद्दों से निपटने के लिए
प्रजा संकुल का एक जत्था सक्रिय रहे। सिर्फ इतना ही नहीं उस प्रजा संकुल के जत्थे को
सदैव ही राजनीति से दूर रखने का प्रयास होता रहे।
अपने देश में इस बात की ही विड़म्बना
संदर्भित हो रही है कि हर मुद्दे का अक्सर राजनीति करन हो ही जाता है। मौजूदा परिस्थिति में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है;
इन सबसे बचते हुए नागरिक संकुल को आगे बढकर अन्य सभी नागरिकों को भी विश्वास में लेना
होगा। हम यह भी नहीं मान सकते कि सबके सब राज नेताओं का विवेक पूरी तरह
शून्य हो चूका है, या फिर उनके पास विवेक नाम
कि चीज है ही नहीं। उन्हें भी इस बात का ज्ञान
हो ही जाता है कि आखिर नुकसान किसका हो रहा है।
उस नुकसान को कम करने के लिए और क्या करना चाहिए इसके लिए उनके पाने कुछ पैमाने
जरूर बन जाते होंगे। मोटे तौर पर अपराध, भ्रष्टाचार,
फरेब , धोखा आदि से किसे लम्बी अवधि का नुकसान झेलना पड़े इसके बारे में भी उनकी अपनी
कुछ साझेदारी जरूर बनती होगी। इन सभी मुद्दों
को ध्यान में रखकर भी अपने सभी नागरिक संकुल को और ज्यादा सक्रीय बनाना होगा।
जनता
का चिकित्सक
एक
उम्र दराज माता की कथा है;
उनके सुबह सुबह के नित्यक्रिया के
समय अनायास ही एक मक्षी
गन्दगी से उठाकर खुले
मुख के जरिये सीधे
खाद्य नाली के मुहाने तक
जा पहुंचा और उदर मंडल में जा पहुंचा।
फिर तो कहना ही
क्या! जो भी खाये
सीधे उलटी कर दे। कुछ भी न पचे
; और भी कई जटिलताओं
का तांता लगा। इस
व्याधि ने और भी
कई व्याधियों को साथ लाया
और फिर कन्नम्मा को कई दवाख़ाना
की सैर करा लाया। सभी
कीमती दवा पड़ा ही रहा। कन्नम्मा को बड़े से
बड़े डिग्रीधारी चिकित्सक भी ठीक नहीं
कर पाए।
आधुनिक
शिक्षा का धनी उनका
परिवार वर्ग किसी भी जादू टोना,
झाड़ फूंक, टोटका आदि में भला क्यों भरोसा करने लगा ! आखिर पड़ोस के सबसे निकम्मे
चिकित्सक के पास कन्नम्मा
को लाया गया। तबतक
तन और धन से
उस परिवार से काफी कुछ
निचोड़ा जा चूका था। सभी
कागजों एक बण्डल ही
बन चूका था। पहले पहल तो कमल डाक्टर के पास
वे लोग आना मुनासिब नहीं समझ रहे थे; पर आखिर दम पर तो दांव खेलने जैसा ही समझना होगा
जब परिवार वर्ग की गाड़ी कन्नम्मा को लेकर कमल डाक्टर के झोपड़े के पास आकर रुकी। उस चिकित्सक का विशेष चिकित्सा कक्ष भी एक नीम के
पेड़ के नीचे बना है ; वहीँ काफी संख्या में किसान, मजदूर आदि निदान पाने की आश लगाए
बैठक लगाया करते हैं। कन्नम्मा की स्थिति देखते
ही कमल डाक्टर तत्पर हो उठे और परिवार वालों से अभय लेने के बाद कन्नम्मा का हाल पूछने
पास बैठे। पूरी बात समझने का प्रयास भी करने
लगे।
"कुछ
खाना पीना आदि किये हो?"
जबाब
बहुत धीरे से आया, शायद ही कोई समझ सके, पर चेहरों पर बानी लकीरें बता रही थी कि कन्नम्मा
कुछ खाना ही नहीं चाहती। उसे एक छोटी वाली उलटी कि दवा दी गई और आराम फरमाने के लिए
बताकर फिर अन्य मरीजों को देखने के लिए कमल डाक्टर अन्य सब झोपड़ों में बारी बारी से
जाने लगे।
आखिर
कन्नम्मा को उलटी कराने
के लिए बरामदे पर लाया गया
; वहां चिकित्सक महाशय भी आये और
उसे बरामदे पर ही उलटी
करने के लिए कहा
गया। कमल
डाक्टर पहले से एक मक्षी
को मारकर हाथ में दबाकर इंतज़ार करते रहे। उलटी
में पानी छोड़कर और निकालता ही
क्या! उसके सेहत को निचोड़कर सभी
चिकित्सक और पदवी धारी,
डिग्रीधारी महानुभव वर्ग पहले ही सब खा
पीकर बराबर कर चुके थे। उसी
उलटी को गौर से
देखते हुए
कन्नम्मा के नज़रों से
बचते हुए मक्षी रानी को उलटी के
जगह पर डालकर मिला
दिए और फिर धीरे
से एक कांटे के
सहारे उठाते हुए कन्नम्मा के पास लाकर
पूछने लगे , "क्या यही वो मक्षी है?"
कन्नम्मा
कुछ बोल पाने लायक दम भी नहीं
भर पा रही थी,
सिर्फ सर हिलाकर उनकी
बातों को सत्यापित कर
पाई ; बस और क्या
कहना! एक घंटे बाद
ही कन्नम्मा कुछ खाने के लिए माँगने
लगी। उसे
एक नरम भोजन का कौर दिया गया। खाना
शुरू करके चार पांच घंटे में ही घर वापस
जाने के लिए अनुमति
माँगने लगी; उसे
भूख भी लगाने लगी।
परिवार
के लोग कमल डाक्टर के करामात को
बड़ी बड़ी आँखों से देख रहे
थे। अब
शायद डाक्टर एक मोटी रकम
मांग बैठेगा; सबके चहरे भी उतर चुके
थे। पर
कमल तो कमल और
कोमल भी थे; कहे,
"अस्सी रुपये जमा कर दो, वो
भी काली माता के विग्रह के
पास रखे डब्बी में ही डाल देना,
घर जाकर कन्नम्मा को खिलाना पिलाना;
थोड़ा जतन लेना, अब वो ठीक
हो जायेगी। "
ऐसा
आश्वासन लेते हुए और विग्रह को
प्रणाम करते हुए परिवार वर्ग के लोग कन्नम्मा
को कमल डाक्टर के चिकित्सा पड़ाव
से घर की और
बढ़ते चले ।