विचार के साथ अर्थ ( पैसा , सम्पद, ज़मीन आदि ) का रिश्ता ही कुछ अजीब सा है | लोग पैसों के बल पर हर एक को झुका देने की तमन्ना रखते हैं | कभी कभी उन्हें इतिहास के पन्नों
से सीख लेते हुए
अपनी भूमिका तय करना होगा | हम सब यह भली भाँति जानते हैं कि एक लुटेरा जब भारत से लूट का पैसा लेकर जा रहा था तो वह अपने ही साथियों के हाथों मारा गया | वो पैसा आख़िर किसी के भी काम न आ सका | अगर किसी को यह लगता है कि मंगल विचार के धनी सिर्फ़ पैसों के लिए काम करेंगे तो उन्हें अनति विलंब अपना विचार बदलते हुए यह समझ लेना हूगा कि पैसों की ओर भागने वाला व्यक्ति मंगल और क्रांतिकारी विचार का धनी कदापि नहीं हो सकता | जिन संस्थाओं के पास पैसे, ज़मीनें और इमारतें आ चुकी है उन्हें लगता है कि अब दुनिया को किसी भी तरफ मोड़ सकेंगे और जनता जनार्दन को उनके पास आना ही होगा | उन संस्था प्रमुखों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि क़ानून का शिकंजा कभी भी कसा जा सकता है और किसी लोकतांत्रिक ढाँचों में इसकी संभावना कुछ ज़्यादा ही रहेगी | अतः कुछ ऐसा संतुलन बनाकर संस्थाओं को चलना होगा जिससे जनता जनार्दन के बीच उन संस्थाओं के चलते किसी प्रकार का रोष उत्पन्न न हो | एक ऐसी भी संस्था के बारे में पता चला जिन्होंने अपने ही कार्यकर्ताओं को काफ़ी अपमानित करके उनकी भावनाओं को कुचलकर काम से निकाल बाहर करने का निर्णय लिया | कभी कभी हमें भावनाओं का भी ध्यान रखना होता है; ताकि कोई व्यक्ति आवेश में आकर कोई ग़लत कदम न उठा ले | जिन कार्यकर्ताओं को निकाला गया उनमें से अधिकांश लोगों का नौकरी पाने का उम्र ही निकल चुका था और वो न तो नई व्यवस्था में ढलने के लिए मानसिक रू से तैयार थे | इसका यह अर्थ भी नहीं है कि संस्थाओं को कामगार लोगों की संख्या में कटौती करने का कोई हक ही नहीं है | संस्था उन अधिकारों का उपयोग करते समय वयक्ति की भावनाओं का भी यथोचित सम्मान करे | किसी नौकर के अपमानजनक कारनामों का असर संस्था प्रमुख और उनके साथ जुड़े लोगों की प्रतिष्ठा को भी चपेट में ले सकता है | और यह एक प्रकार की मूर्खता ही है जिसके बदौलत कोई संस्था बने बनाए कुशल कार्यकर्ताओं को छोड़ दे |
कार्यकर्ता निर्माण
अपने देश में ऐसे और भी संस्थाओं का परिचय हमें मिलता है जिनका मुख्य काम ही है कार्यकर्ता निर्माण | उनके पास कई युवा जीवन की तलाश में आते हैं और उनमें से कई पूर्ण रूप से जुड़ जाते हैं और ध्येय मार्ग पर अडिग भी रहते हैं | उन संस्थाओं की प्रगति इन दिनों तीव्र गति पर है और धीरे धीरे भारत के प्रत्यन्त भागों तक फैल रही है | इसको किसी दबी पाँव चलनेवाले तूफान से भी तुलना कर सकते हैं जिसमें खर पतवारों के साथ साथ बड़े पेड़ पौधों को भी उड़ा ले जाने की असीम शक्ति है; उनका भान भी कुछ इस प्रकार का ही है | इस बात से समझदार लोगों को एक तो मौका मिल ही जाएगा कि वो अपने बिखरे हुए वस्तुओं को समेटकर उस तीव्र तूफान के वापस जाने का इंतजार करते रहें या फिर खुद को किसी सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित कर लें | नासमझ और घमंडी लोगों के लिए आने वाला काल और अधिक विकराल होने जा रहा है |
संस्था का प्रमुख काम ही है विचार का संकर्षन और उस विचार पर चल पड़ने वाले लोगों का संरक्षण |
कभी बंगाल के एक आश्रम से एक युवा सन्यासी यह कहकर निकल गये कि उन्हें उपयाचक और परिव्राजक
का जीवन बिताना है | उपयाचक का अर्थ हुआ किसी से कुछ न माँगना और परिव्राजक
से उनका अभिप्राय था
कहीं भी ज़्यादे दिन का प्रवास न करना | उन्होंने गुरु माँ से अनुमति माँगकर निकलने का फ़ैसला भी कर लिया | सबसे ज़्यादा चिंता उस गुरु माँ को होने लगी; कारण था कि जिस देश में बिना माँगे पानी भी नहीं मिलता उस देश में कहीं इस युवा का हौसला न टूट पाए | उस यूवा का आश्रम से निकल आने का कारण तो कुछ और ही था | कभी कभी हमें कड़वाहट
को गुप्त रखना होता है ताकि लोगों की भावनाओं को अनावश्यक ठेस न पहुँचे | इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि हमारे किसी कारनामे से दूसरों की प्रगति बाधित न हो | कभी कभी दूरियाँ बना लेना मंगलकारक भी होता है | उस युवा सन्यासी ने आश्रम से दूरी इसलिए भी बना लिया था ताकि और साथियों को काम करने का अनुभव प्राप्त हो और उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारियों से नवाजा जा सके |
हर समय संकट की बात करें और समाधान का कोई सूत्र न हो ऐसा कभी हो ही नहीं सकता | हम जिस व्यवस्था से निकलकर आते हैं हमारी मानसिकता और दैनिक व्यवहार भी उसी के मुताबिक बन जाता है , और फिर उसमें आधुनिकता का कुछ अंश मिल जाता है | कोई सूचना और प्रौद्योगिकी का विद्यार्थी एक सरलता और सादगी का जीवन जी रहा है इस बात से लोग परेशान हो उठते हैं और कभी कभी ऐसा उन्हें यकीन भी नहीं होता | जाहिर सी बात लोग किसी भी स्थिति का जायजा अपने नज़रिए से ही लेते हैं और उन्हें उसी नज़रिए से समाधान सूत्र भी दिखने लगता है | आधुनिक प्रबंधन विज्ञान कहता है कि जिसे जिस प्रकार की भूख लगी उसे उसी प्रकार
का भोजन दिया जाय नहीं तो विरोध का बादल मंडराने लगेगा | पर सर्वोदय का विज्ञान इससे बिल्कुल ही अलग है : प्रबंधन को तभी कारगर और यशस्वी माना जाएगा जब परिसर में रहने वाले जानवर तक को भोजन और आसरा मिले | महात्मा का भी इसी से मिलता जुलता एक विचार था कि किसी परिसर में अहिंसा की प्रतिष्ठा है कि नहीं इसका पता लगाने के लिए हमें वहाँ रहनेवाले जानवरों और उनके साथ किए जाने वाले व्यवहारों को देखकर पता चलता है |
आत्म प्रत्यय का विज्ञान यह कहता है कि प्रयास करते रहना है | निरंतर प्रयास करते रहने से शत्रु का भी
दिल जीता जा सकेगा | उसी आत्म प्रत्यय से अर्जुन को सारथि के रूप में श्री कृष्ण का साथ मिला और उतनी बड़ी सेना को परास्त करने में कामयाब हुए | मौके मिलते रहें और निरंतर समय जाता रहे यह भी संतोष पाने लायक नहीं हो सकता | लंका नरेश रावण के सामने उसी के उपास्य देवता का रुद्र अवतार जीवन बचाने के उद्देश्य से समझाने आया और घमंड के बादलों से घिरे रावण को नियती के कराल ग्रास से बच नहीं पाया | उस समय कई ऐसे भी दिन बीत रहे थे जब रावण नर्ताकियों और किन्नरों से घिरा रहता था और मर्यादा
पुरुषोत्तम घास के मखमली विस्तर पर चंद्रमा को निहारते हुए निद्रा विहीन रातें बिताया करते थे | बजरंगी के पराक्रम और उनके शौर्य, धैर्य के पहिए वाले धर्म रथ ने उन्हें विजय श्री दिलवाया |
कभी कभी हम यह भी समझ नहीं पाते कि अगर संहार वृत्ति का प्रयोग करना भी रहा तो यह कैसे समझ लें कि वो समय अब आ चुका! जब हमारे
देश में आश्रम परम्परा का विद्यालय चलता था उन दिनों एक आश्रम के कुछ विद्यार्थियों को नज़दीक के गाँव में एक कुटिया में आग की चिंगारी दिखी
| उन्होंने अपने गुरु को बताया और उन्हें लगा कि गुरुदेव तुरंत ही आग बुझाने के काम में जुट जाने का आदेश देंगे | पर गुरुदेव ग्रामींन के संकुचित वृत्ति से भली भाँति परिचित थे | उन्होंने इंतजार करने और स्थिति का जायज़ा लेते रहने के लिए कहा और खुद भी जागे रहे , और दूर से ही सही उस घटना को निहारते रहे | आग और बढ़ी, तब भी गुरुदेव चुप रहे और अन्य शिक्षुओं से भी चुप्पी बनाए रखने के लिए कहा | जब ग्रामीणों के बीच से "बचाओ, बचाओ " ऐसी पुकार आने लगी तब गुरुजी खुद कमर कसकर दौड़ पड़े, जाहिर सी बात थी कि उनके सभी विद्यार्थी साथ हो लिए | पूरी प्रक्रिया और आग बुझाने का काम पूरा होने के बाद जब विद्यार्थियों ने गुरुजी के ऐसे काम करने का कारण पूछा तो शिक्षक बोले , "लोगों की सामान्य वृत्ति का ही फल है कि उनके मन में किसी के भी प्रति सहज रूप से संदेह पैदा हो जाया करता है | अगर उन्हें नींद से उठाकर हम कहें कि हम उनके इमारत में लगे आग को बुझाने आए हैं तो उनके मन में हमारे ऐसा करने को लेकर संदेह पैदा होगा | उन्हें ऐसा भी लग सकता है कि हम कुछ चोरी करने आए हैं और आग लगने का बहाना बना रहे हैं | बुलावा आने से हमारा वहाँ जाना यह हमारा एक सहज मानव धर्म है | "
सहज़ीवन की कला से भी हम यही सीखते हैं कि मदद माँगे जाने पर मुँह नहीं मोड़ना चाहिए | हमें हमारी हैसियत के मुताबिक लोगों तक मदद का हाथ बढ़ा देना चाहिए | संस्था को अगर समाज के लिए बनाया गया होगा तो उस संस्था को समाज से हटकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए | कभी कभी संस्था चालकों में भी वैचारिक मतभेद पनपने लगता है और उन्हें लगता है कि संस्था की हर गतिविधि से आमदनी हो | अगर आम के पेड़ से फल पाते पाते हमें यह लगने लगे कि उसकी जड़ों को भी निकाल लें और किसी न किसी काम में लगा डालें तो यह हमारी वैचारिक दीनता समझी जाएगी न कि सैद्धांतिक परिपक्वता | हम कभी कभी शराफ़त का चोला पहनकर कड़वाहट से दूर भागना चाहते हैं, पर कभी परछाईं व्यक्ति का साथ नहीं छोड़ता ; अतः हमें दोनों को साथ लेकर ही एक निर्णायक की भूमिका में खरा उतरना होगा | अगर हम उस नेतृत्व शक्ति के आदि न बन पाते हों तो तुरंत उस व्यवस्था और परिसर से हट जाना होगा | यही वक्त की नज़ाकत होने के साथ साथ सार्विक समाधान का सूत्र भी है | जीवन में स्वाध्याय की अहमियत सिद्ध होती है |
शिक्षण या आत्मिक विकास
शिक्षण एक निरंतर चलने वाली सतत प्रक्रिया है | इसे सिर्फ़ विद्यालय तक सीमित नहीं माना जा सकता | हमारे निसर्ग के प्रत्येक कण में शिक्षण पाने लायक तत्व भरा पड़ा है | चाहिए एक सकारात्मक दृष्टि ताकि उन बिखरे विचार को हम सफलता पूर्वक ले सकें | मां, बाप, गुरु, संत, बच्चे इनमें यदि हम परमात्मा न देख सकें, तो फिर किस रूप में देखेंगे ? इससे उत्कृष्ट रूप परमेश्वर का दूसरा नहीं है। ईसप के राज्य में
सियार कुत्ते‚ कौए‚ हिरन‚ खरगोश‚ कछुए‚ सांप‚ केंचुए- सभी बातचीत करते हैं‚ हंसते हैं। एक प्रचंड सम्मेलन ही समझिए नǃ ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है।
मानव के बौद्धिक और वैचारिक प्रगती से हमारा यही अभिप्राय रहता है कि उसमें कुछ ऐसा परिवर्तन आ जाए जिसके आधार पर उसे समाज में कारगर और यशस्वी बनाया जा सके | हम यह भी चाहते हैं कि व्यक्ति में अच्छे बुणों का समावेश हो और दुर्गुणों का नाश हो | व्यक्ति में दोनों विरुद्ध विचारों का होना एक नैसर्गिक नियति है | कभी भी शुद्ध सात्विक या फिर शुद्ध तामसिक कोई व्यक्ति नहीं बन सकता | उसमें तीन गुणों के अंश में बदलाव भले ही आ जाएँ पर किसी एक गुण से व्यक्ति को संपूर्ण रूप से मुक्त कर पाना कभी संभव ही नहीं हो सकता | हमें यह भी देखना होगा कि शिक्षण प्रक्रिया सिर्फ़ सात्विक गुणों का संवर्धन करने वाला है या उस प्रक्रिया में तामसिक गुणों से व्यक्ति को मुक्त करने की विधा भी सम्मिलित की गई है | इस काम के लिए हम सिर्फ़ विद्यालय पर निर्भर रहें यह भी उचित नहीं माना जा सकेगा, न ही वास्तविक | व्यक्ति विद्यालय के बाहर भी काफ़ी समय तक विविध गतिविधियों के ज़रिए सक्रिय रहता है ; अतः उन सभी नैसर्गिक तत्वों से भी व्यक्ति कुछ न कुछ नैसर्गिक शिक्षण प्राप्त कर लेता है |
निसर्ग से, परिवार से, माता पिता से शिक्षण पाने के बारे में सचेत रहते हुए हमें उन सभी तत्वों के बीच एक कड़ी स्थापित
करने का प्रयास करना चाहिए जिससे शिक्षण प्रक्रियाओं को एक दूसरे से जोड़ा जा सके और पूरी प्रक्रिया को अधिक कारगर बनाया जा सके |.
इस विषय में हम यह भी उम्मीद रखते हैं कि निरंतर चलने वाली शिक्षण प्रक्रिया के क्रम में व्यक्ति ज़मीन से जुड़ा रहे और उसके सांस्कृतिक और वैचारिक परिपक्वता का संवर्धन हो सके, न कि किसी विरोधाभाषी विचारों का संकर्षन होता हुआ द्वंद उतन्न हो | व्यक्ति क्रमशः द्वंद के साथ रहना सीख लेता है ; प्रकृति का द्वंद, कर्म क्षेत्र का द्वंद और व्यक्ति जीवन का द्वंद उत्पन्न होते रहता है | उन सभी द्वंद को झेलते हुए व्यक्ति को क्रियाशील बने रहना है | शिक्षा का यह भी अभिप्राय है कि व्यक्ति को द्वंद झेलने की सहज कला का ज्ञान हो सके | रात- दिन, ऋतु परिवर्तन, लाभ हानि, भला -बुरा , आदि सभी द्वंद की ही परिस्थितियाँ हैं | जिस व्यक्ति में बुद्धि की स्थिरता और विचार की परिपक्वता आ चुकी उसे किसी भी द्वंद के कारण कोई समस्या के प्रकोप मे नहीं पड़ना है | बल्कि उसे कुशलता पूर्वक द्वंद को झेलते हुए अपनी भूमिका बनाते हुए समाज में और निसर्ग में क्रियाशील रहने की कला आ जाएगी |
हमें यह भी समझना होगा कि शिक्षण की प्रक्रिया कभी भी न रुकनेवाली प्रक्रिया है | यह विषय कुछ वैसा ही है जब हम नाव लेकर किसी विस्तीर्ण जलराशि में नौका विहार के लिए उतरे हों और दूसरे पड़ाव के आने का इंतजार करते हों; दूसरा पड़ाव इतना दीर्घ है जिसके आने का हम बस इंतजार करते रहते हैं और जीवन बीत जाता है | इसे हम नमक के पुतले का सागर नापने के विषय से भी मिलाकर देख सकते हैं | सागर नापने का काम होते होते नमक का पुतला पिघल जाता है | हम सब पुतले ही हैं; कोई छोटा तो कोई बड़ा | आख़िर सबको पिघलना ही है और अपार ज्ञान का सागर हमारे लिए अछूता ही रहनेवाला |
कुछ ऐसी भी बातें हैं जो हमारे व्यक्ति जीवन में निखार लाने और हमें कुछ सिखाने के लिए पर्याप्त माने जाएँगे | हम दैनिक चहल पहल से खुद को अलग रखने का कितना भी प्रयास करें उन तत्वों से हमें शायद ही कोई अलग कर पाए | यह भी कहा जाता है कि हमारे जीवन में शास्त्र का भी काफ़ी महत्व है, हम मित्रों से भी प्रभावित होते रहते हैं | इस विषय को एक व्यवस्थित क्रम से समझना ही ठीक रहेगा |
शास्त्र की महत्ता
एक पंडित शास्त्रार्थ करने काशी आए | कबीर दास जी से उनका शास्त्रार्थ कराया गया | कबीर दासजी उस पंडित से पूछने लगे, "आप पढ़कर
समझे हैं या समझकर फिर पढ़े हैं?"
इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के क्रम में ही बहुत बड़ा शास्त्रार्थ हो गया | जिसने दो अक्षर वाले शब्द "प्रेम" का सही अर्थ जान लिया हो उसका पढ़ना ही सार्थक मानें |
भगवान का पता अगर किसी से पूछें तो उसपर व्याख्यान करने के लिए सभी जन तुरंत प्रस्तुत हो जाते हैं | भगवान सर्वत्र भले ही रहें पर उन्हें प्राप्त करने का मार्ग तो प्रेम की सांकरी गली से ही निकलेगा | लोग तो यह भी कहेंगे
ईश्वर खोजने वाले के भीतर ही मिलेंगे |
एक पढ़ा लिखा व्यक्ति बनारस की गंगा में नौका विहार पर निकला | माझी से विनोद में पूच बैठा, "अँग्रेज़ी जानते हो?"
"नहीं हुजूर, मैं भला अँग्रेज़ी आदि का क्या जानूँ ! मुझे तो लिखना पढ़ना भी भी नहीं आता }"
"तब तो तुम्हारा बारह आने जीवन ही बेकार है |"
माझी मन ही मन मुस्कुरा रहा था और चुप रहना ही मुनासिब समझा | संयोग वश बीच नदी में नाव डगमगाया | अब वो अजनबी पढ़ा लिखा व्यक्ति घबराया |
"हुजूर आपको तो तैरना आता ही होगा !" माझी पूछ बैठा |
"नहीं मेरे भाई मुझे तैरना बिल्कुल ही नहीं आता | कोई उपाय निकालो और नाव को किनारे ले चलो |"
उस व्यक्ति की घबराहट देखकर अब माझी को भी विनोद करने का मौका मिल गया , "तब तो आपकी सोलह आने जीवन ही बेकार हो गई !"
ऐसा जीवन ही किस काम का जिसे मुसीबतें झेलना न आता हो ! अब उस आगंतुक को अपने घमंडी होने के कारण लज्जा हो रही थी | अपने न तैर पाने के कारण और ज़्यादा लज्जित हो रहा था | बीच नदी में से उसे बचाकर निकाल लाने के लिए उसका ज्ञान किसी काम न आएगा |
ऐसे कई प्रसंग मिलेंगे जिसके बारे में हम पाएँगे कि ग्रंथों
से मिली शिक्षा की अपनी सीमाएँ हैं और प्रत्यक्ष अनुभव से मिलने वाले ज्ञान की व्यवहार कुशलता कहीं अधिक होती है | उस कौशल की प्राप्ति के लिए हम और अधिक सघन रूप से ज्ञान मंथन और कर्म चंचलता पा सकेंगे | परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए भी हमें व्यवहार कुशल होना होगा | कौन ब्रह्म ज्ञानी है और कौन मूर्ख इसका आकलन तो परिस्थिति के मुताबिक ही किया जा सकेगा | आकाश मार्ग से हवाई जहाज़ से जाते समय उस नौका के माझी का अनुभव कोई काम में नहीं आएगा | जहाँ जिसकी भूमिका बनती है उसी सीमा में उसके कौशल्य की प्रतिष्ठा मानी जाएगी | हम किसी ब्रह्मा ज्ञानी से अन्य किसी ब्रह्म ज्ञानी की तुलना भी हर परिस्थिति में नहीं कर सकेंगे | अनेकांति विचार की दृष्टि से हर व्यक्ति उतना ही अहम है जितना अहम हम खुद को मानेंगे |
भारतीय परंपरा के महर्षि और संतगण भी अपने दार्शनिक विचार के माध्यम से उस मैत्री के महामंत्र की ही प्रतिष्ठा माने जिसे वेद में भी स्वीकृति मिली हुई है | कृष्ण भगवान अर्जुन
को युद्ध भूमि में
भली भाँति तत्व दर्शन और कर्तव्य बुद्धि का पाठ दे सके और इसमें उनको काफ़ी सफलता मिली इसका एक ही कारण है कि उन्होंने अर्जुन से अपना मित्रवत व्यवहार रखा | सर्वशक्तिमान के उस मैत्री का स्वरूप ही था जिसके कारण उन्हें अर्जुन की शंकाएँ दूर करने में सहजता मिली |
व्यवहार कुशलता
दंडकारण्य में दो राक्षस रहते थे एक का नाम था आसाती दूसरे का नाम था वासाती | दोनों मिलकर कई संतों को
मिटा चुके
थे | आसाती संतों को बुलाकर लाता और वासाती खुद को भोजन के रूप में परोस देता | भोजन के बाद जब भी संत उन दोनों को भी भोजन कर लेने का आग्रह करते तो
आसाती अपने भाई
वासाती को पुकारने लगता | नतीजा यह होता कि वासाती संतों का उदर चीरते हुए बाहर निकल आता |
काफ़ी दिन तक यह सिलसिला निरंतर चलता रहा | संतों ने अगस्त मुनि से इस समस्या का हल निकालने के लिए कहा | अगस्त मुनि भी उसी तरह आसाती के निमंत्रण पर आए और भोजन करने के बाद आसाती से आग्रह करने लगे कि वो अपने भाई को खाने पर बुला ले; पर इस बार श्री मुनि उसके भाई को पूरी तरह पचा चुके थे | जाहिर सी बात है कि वासाती मुनि का पेट चीरकर बाहर निकलने में असमर्थ रहा | इसी विरह में आसाती भी समाप्त हो गया |
पढ़ने लिखने का फल यह भी नहीं होना चाहिए कि व्यक्ति समाज और व्यवस्था से ही दूर हो जाए | अपने दैनिक जीवन में आनेवाले कुछ काम तो उसे कर लेने के लिए तत्पर
भी रहनी चाहिए |
बंबई में रास्ते से गुजरने वाले एक बड़े व्यापारी के सफ़र करते समय की एक घटना हम याद कर सकते हैं | उनकी गाड़ी बीच रास्ते में अचानक खराब हो गई और एक पहिया बदलने की नौबत आ गई | गाड़ी का चालक कीमती वस्त्र पहने हुए था इसलिए उसने करीब के किसी कारीगर को बुलाने का प्रयत्न करने लगा | इतने में उस बड़े व्यापारी ने अपना कोर्ट जूते आदि उतारकर काम पर लगना ही मुनासिब समझा
ताकि थोड़ा समय बचाया जा सके | इस घटना को देखते हुए गाड़ी का चालक भी अपने वस्त्र की परवाह न करते हुए काम में लगा और जल्द से जल्द उस काम को पूरा करने का प्रयास करते रहा |
सभा में पहुँचने में विलंब तो हुई पर ज़्यादा परेशानी से वो बच गये | अगर अपना अभिमान लिए व्यापारी और गाड़ी चालक कारीगर का इंतजार करते रहते तो शायद सभा में पहुँच ही नहीं पाते , पर उन्होंने समझदारी दिखाते हुए समय बचा लिया |
नीति परायणता का उदाहरण रामायण में भी जगह जगह पर मिलता है | रण में मेघनाद मारे जाने के बाद उसकी पत्नी सुलोचना रावण से आग्रह करने लगी कि उसे सती होने का मौका दिया जाय | ऐसा कहकर सुलोचना श्री रामजी के शिविर में जाने के लिए निकल पड़ी | सबने रोकने का प्रयास किया और रावण से कहा कि सुलोचना को शत्रु के शिविर में जाने से रोकें | रावण को उसे रोकने का कोई उचित कारण नहीं लग रहा था | सुलोचना को रोककर भी राम बदले की भावना से ग्रसित होकर काम कर सकता है, ऐसी शंका व्यक्त करने के बाद रावण ने कहा , "यह काम रावण का हो सकता है पर राम का नहीं | जिस शिविर में बालक ब्रह्मचारी होते हों उस शिविर में ऐसा काम हो ही नहीं सकता |"
कहने का तात्पर्य है कि रावण को भी यह ज्ञान हो गया था कि श्री राम और उनके साथी नीति परायण होकर युद्ध करते रहेंगे | उनके शिविर में किसी का भी
नीति भ्रष्ट होने की कोई संभावना ही नहीं है | नीति परायण होने का सीधा संबंध अगर ज्ञान आहरण से होता तो रावण को भी नीति परायण होना था, पर हक़ीकत में ऐसा हमें देखने के लिए नहीं मिलता | हर तरफ पढ़ने लिखने की ही ज़्यादा चर्चा होती है | पढ़ने लिखने की ओर लोगों का रुझान भी काफ़ी बढ़ा | इसी क्रम लोगों में कर्म प्रधानता की कमी देखी जा रही है |
शिक्षा सर्वेक्षण के काम से दलमा घाटी के आस पास बसे ग्रामीणों के बीच घूमते समय शिक्षा के प्रति ग्रामीणों का
आग्रह कम होने
का कारण पता लगाना था | घाटी में बसे एक गाँव के एक वरिष्ठ का कहना था कि विद्यालय जाने वाले बच्चे हल जोतना भूल जाते हैं, कुछ दिनों के बाद अन्य कोई काम करना भी नहीं चाहते | बेहतर होता यदि सबके सब विद्यालय बंद कर दिए जाते | इस विरोधाभाषी विचार से ओत प्रोत होने के बाद शोधकर्ता यह तलाश करने में जुट गये कि कुछ ऐसा सुधार करें जिससे उन ग्रामीणों का शिक्षण संस्थानों पर विश्वास बन सके | आज तक ऐसा कोई पहल हो ही नहीं पाया |
महात्मा और बाबा विनोबा के पास इसका काफ़ी व्यवस्थित हल था, जिसको आधार मानकर बच्चे कम से कम हल जोतना नहीं भूलते और लोहे के बैल से होनेवाली समस्या का भी निराकरण कर पाते | पर अपनी व्यवस्था आधुनिकता के चक्रवात
में फँस चुकी है | आए दिन कठिनाइयों का नया समीकरण सन्दर्भित हो रहा है |
संस्कृति की जड़ें
भारत में अँग्रेज़ी हुकूमत का एक लंबा दौड़ चला | नीति परायणता के चलते पृथ्वीराज चौहान पहले ही हार चुके थे | चारों ओर से भारत में दस्तक देने का द्वार खुल चुका था और एक के बाद एक लुटेरों की घुसपैठ चलती रही | उपद्रवियों के बीच आपसी लड़ाइयाँ भी चली | उन सबमें ज़्यादा कौशल्य रखने वाले अँग्रेज़ों को लगा क्यों न भारतवर्ष को अँग्रेज़ी हुकूमत का अभिन्न अंग बना लिया जाय | इस काम में एक ही बाधा
आ रही थी और वो
था भारतीय मूल के लोगों में व्याप्त संस्कृति की मजबूत जड़ | उस मजबूत जड़ के कारण उन्हें पूर्णतः गुलाम नहीं बनाया जा सकता | उन दिनों बंबई प्रांत में एल्फ़ींसटोन नामक एक अंग्रेज अधिकारी राज करता था | उसने अपने राजा को वफ़ादारी दिखाते हुए यह वादा किया कि अगर भारतीय मूल के लोगों को
अँग्रेज़ी सिखा
दिए जाएँ और अँग्रेज़ी अदब क़ायदे का अभ्यास करा दिया जाय तो वो अपनी संस्कृति से अलग होकर
अँग्रेज़ी संस्कृति के आदि हो जाएँगे और उस परिस्थिति
में सुदूर लंदन से भी भारत पर लगाम कसा जा सकेगा | हक़ीकत तो यह ही है कि अपना देश आज भी गुलामी और वैचारिक दीनता
जैसी परिस्थिति का सामना कर रहा है | विविध विचारों में एकरूपता का सूत्र पिरोना सचमुच ही काफ़ी कठिन, और कभी कभी असंभव सा ही प्रतीत हो रहा है |
अँग्रेज़ों को यह भी लगने लग गया था कि जिस प्रकार से राष्ट्रीयता का ऊफान सन ४७ में व्याप्त हो रहा था उससे यह लगने लग गया था कि स्वतंत्र भारत
बड़ी तेज़ी से प्रगति करेगा | इस प्रगति की गति को कम करने का एक ही उपाय है: मानव संसाधन और नैसर्गिक संसाधनों के बीच बटवारा करा दिया जाय | इसी क्रम में हिन्दुस्तान, पाकिस्तान का जन्म हो गया | बँटवारे की लकीर को जान बूझकर डाली गई ताकि आस पास रहनेवाले समुदाय कभी कमर कसकर सीधा खड़ा भी न हो सकें; मज़हबी अलगाव पहले से तो थे ही | विडंबना
ऐसी बढ़ी कि मज़हबी खींच तान लंबी अवधि से चलते चले आ रहे हैं | अँग्रेज़ों को अपनी
सफलता पर गर्व भी होता होगा | छोटी छोटी बातों के लिए लड़ जाने और मार मिटने की प्रस्तुति के बारे में सुनकर दुनिया के लोग इन दोनों मुल्कों की निंदा भी करते ही होंगे | अपना नुकसान होता हो और हमें समझ में न आता हो यह काफ़ी चिंता का विषय है | इस परिस्थिति में नई
पीढ़ी के लोग समग्र विषयों पर पुनरावलोकन करना ज़रूर पसंद
करेंगे |
साझी संस्कृति का रथ
आधुनिक सभ्यता के साथ ताल मिलाकर चलने के लिए हम सबको एक ऐसी संस्कृति का आदि होना होगा जिसमें सभी मनुष्यों के अरमानों और हितों की रक्षा हो सके | कर्म प्रधानता के साथ साथ मूल तत्वों का भी संरक्षण हो सके | विज्ञान को आधार मानकर चलने वाले इस संस्कृति के रथ दो ही पहिए हो सकते हैं: शौर्य और धैर्य का पहिया | कहते हैं ऐसा ही रथ श्री रामजी को जंग भूमि में विजय दिलाया था | इंद्र का सम्मान करते हुए उन्होंने इंद्र के द्वारा भेजे गये रथ को भले ही रख लिए हों पर उनका यह हनुमान रूपी दिव्य रथ ही मुश्किल की घड़ी में काम आया | आधुनिकता का नशा इतना भी न हो कि हम मानव मुल्यबोध पर आधारित संस्कृति से उखड़ जाएँ और शैवाल दल की भाँति जलाशय में तैरते रहें | वह तो नीरभिमानी रुद्र अवतार श्री बजरंग बली का ही प्रताप था जिसके कारण रावण को धराशायी होना पड़ा | उसका ज्ञान दस मस्ताकों के समान था (रूपक में उन्हें दसानन कहते थे) | इतने पर भी अहंकार और दंभ का बादल उस ज्ञान को ढक
दिया था| बजरंगी तो अपनी कुछ करामात मानते भी नहीं थे |
समाज का स्वरूप बड़ी तेज़ी से बदल रहा है | सूचना तंत्र का ही प्रतिफल है कि अपने पास काफ़ी जानकारियाँ आ चुकी, पर किस जानकारी का कहाँ उपयोग करना है इसे बताने वालों की कमी आज भी ख़टकती है | कभी रामायण के युग में जब अगस्त मुनि के आश्रम से आगे
का मार्ग श्री राम पता लगाने लगे तो मार्ग बताने वाले पचासों आ गये | उनमें से गिने चुने चार संतों को श्री अगस्त मुनि ने श्री राम के साथ भेजा और पंचबटी का मार्ग बताया गया | चार संत से अभिप्राय चार वेद का था और पंचबटी से पाँच इंद्रिय का अभिप्राय था | शरीर के साथ ज्ञान का उचित समन्वय होने के बाद ही व्यक्ति पूर्णता प्राप्ति के मार्ग पर कुशलता पूर्वक आगे
बढ़ सकेगा | किसी भी कार्य में उतरने के पहले साधु मत लेने की अपनी प्राचीन परंपरा है ; और भी विधान में ऐसी परंपरा सन्दर्भित होती है |
एकबार अपने ही देश में
राष्ट्रपति को नींद न आने की पीड़ा सता रही थी | प्रचलित इलाज से कोई काम नहीं हो रहा था | उन्होंने एक फकीर बाबा से परामर्श लेना उचित समझा | उनके चुने हुए सिपाही श्री राष्ट्रपति महोदय का संदेश लेकर फकीर बाबा के पास पहुँचे और कहे, "हमारे राष्ट्रपति जी ने आपको याद किया है, आप हमारे साथ उनसे मिलने के लिए चलिए |"
फकीर बाबा कुछ गिने चुने
मरीजों से मिलने के लिए बाहर निकलने की तैयारी कर रहे थे, "तुम्हारे सुलतान के दरबार में भला मुझ जैसे फकीर का क्या काम ! उन्हें जाकर कह दो मैं नहीं आ सकता | "
सिपाहीगण अपने ही साथ खड़े अपने मुखिया को कहने लगे, "अगर आपका आदेश हो तो .... |"
मुखिया वापस जाकर अपने राष्ट्रापापति को बताना मुनासिब समझा और उनके दिए आदेश के मुताबिक काम करने का निश्चय करते हुए वहाँ से वापस आ गये |
"फकीर बाबा को जाकर कह दो मैं ही उनसे मिलने आना चाहूँगा |", राष्ट्रपति महोदय इतना तो समझ ही गये कि सिपाहियों ने उस फकीर से ठीक से बात नहीं किया होगा |
"फकीर बाबा आज आप घर पर ही रहें, आपसे सुलतान मिलने के लिए आ रहे हैं | ", सिपाही गण कुछ नम्र होकर उस फकीर से निवेदन करने लगे |
फकीर भला कहाँ रुकने वाला था,
वो यथावत अपने नित्य काम से निकल गया | उसके पास और भी मरीजों से मिलने की योजना पहले से तय थी ; उस दिन भी मुलाकात नहीं हो पाई | तीसरे दिन राष्ट्रपति काफ़ी देर से आए और फकीर बाबा के डेरे पर इंतजार करने लगे | आख़िर बड़ी इंतजार के बाद मुलाकात हुई, " ऐसी क्या तकलीफ़ है आपको?"
"तकलीफ़ तो है , रात को नींद नहीं आती |"
"एक सुलतान को भला नींद कैसे आ सकती!" , फकीर बाबा स्पष्ट ही बोल गये |
"माने!"
"नींद इंसान को आती है , सुलतान को नहीं | बिस्तर पर जाने के पहले भूल जाया करो कि तुम किसी मुल्क का मुखिया हो तो सहज ही नींद आ जाएगी |"
"इतना भी सरल है!"
"इतना ही सरल है, करके देखो |"
हक़ीकत में ऐसा करने से सुलतान को नींद आने लगी | उस फकीर के चमत्कार से काफ़ी प्रभावित हुए |
आख़िर मन ही है जो व्यक्ति को कई तरह प्रभावित करते रहता है | मन अगर स्वाभिमान से ज़्यादा ग्रसित होने लगे तो समझना चाहिए परेशानी बढ़ी | अपने शंकर भगवान से जुड़ी एक कथा से हम उनके महायोगी होने का और पार्वती के तत्वज्ञानी होने का प्रमाण प्रत्यक्ष कर पाते हैं | सती के गुजर जाने के बाद आदि देव अक्सर ध्यान मग्न ही रहने लगे | महादेव को ध्यान से उठाने का जटिल काम श्री कामदेव को दिया गया ताकि अन्य देवताओं का कल्याण हो सके |
योगी, जटिल , आकाम मन, अमंगल वेश धारी, मातृहीन, गृहहीन , जटाधारी , क्षीण और दीन ऐसे ही अवगुणों के धनी हैं अपने महादेव | श्री नारद मुनि से परिचय पाकर पार्वती के माता पिता तो काफ़ी चिंतित हो उठे पर कुमारी का मन हर्षित हो उठा ! जिसे मुनि अवगुण गिना रहे थे वे सबके सब असल में उनके ईश्वर अभिमुखी होने का ही प्रमाण दे रहा था | शिव और पार्वती को मिलाने में श्री नारद मुनि ही अहम भूमिका निभा रहे थे | उन्होंने शंकर भगवान के मन में भी काम उत्पन्न करने का प्रयास किया ; और महादेव ही थे जिन्होंने काम को जलाने का निश्चय कर लिया | काफ़ी अनुनय करने के बाद वो मान तो गये पर उनको देखते ही पार्वती की माँ मैना के हाथ से आरती की थाल गिर गई | एक पार्वती ही थी जिसे महादेव से व्याह करने की ज़िद पड़ी थी | नियति को जो मंजूर था वो तो होना ही था ; अंततः दोनों एकरूप हुए | आदि शक्ति और जगन्माता जगदंबा की
ही एकरूपता थी जिसकी कल्पना देवगण किया करते थे | हम उस मिलनेवाले और मिलानेवाले दोनों के समझदारी और सूझबूझ की सराहना करते हैं जिन्होंने लोक हितार्थ कुछ निर्णय ले पाए थे | पार्वती की भी
समझदारी इस बात से आकलित
की जाएगी जिसके बल पर उन्होंने अवागुणों में गुणों को तलाश लिया | संवेदनशील होना दिव्य पुरुषों और देवत्व के गुणों से पुष्ट महाजनों की पहचान है | हज़रत मोहम्मद को एक माता ने कुछ फल भेंट में देने आई | मोहम्मद तुरंत खाने लगे और सबके सब फल अन्य किसी को न दिए खा गये | उस माता को बहुत अच्छा लगा, संतोष मिला और वापस आ गई | आम तौर पर मोहम्मद बाँट कर ही खाया करते थे , पर इसबार किसी को एक भी फल न देने का कारण उनसे पूछा गया | उनका कहना था कि फल मीठे नहीं थे, और इसका पता चलने पर उस माता को अच्छा नहीं लगता यही कारण है कि मोहम्मद ने फल के खट्टे होने की बात को छिपा
लिया ताकि उस माता को बुरा न लगे | उनकी इस संवेदनशीलता और तत्परता के लिए सभी भक्त उनसे इस बात की सीख लेने लगे |
कभी कभी हक़ीकत जानकार भी बताना उचित नहीं होता |
सेवा भाव या सेवा का भाव!
अपने देश में सेवा भाव से काम करनेवाली संस्थाओं की कमी नहीं है | उस संस्थाओं को देश विदेश से सेवा कार्य और ग़रीब कल्याण के नाम से पैसे भी मिल जाते हैं | इस प्रकार से सेवा करने के लिए बनी संस्थाओं की गतिविधि चलती चली आ रही है | उसी संस्था के आस पास समान विचारधारा वाले और समरूप तत्वज्ञान से प्रबुद्ध होकर कार्य करनेवालों का जमावड़ा भी होता आ रहा है | जब कोई व्यक्ति किसी दरिद्र व्यक्ति तक आसानी सा पहुँचना चाहे तो भी इन सेवा भावी संस्थानों के ज़रिए पहुँचने का प्रयास किया जाता है ताकि दान को महिमा मंडित किया जा सके और उस सेवा भाव का मूल मकसद सध सके | आचार्य चाणक्य कहा करते थे कि सत्य अगर कड़वा हो और अप्रिय हो तो न कहा जाय | पर सत्य को अगर हम इश्वर मान लें तो असत्य कहना या सत्य को छिपाने के लिए गोल मटोल बातें करना भी कहाँ तक मानी हो सकेगा !
संस्थाओं के बनने की प्रक्रिया में कई ध्येय को सामने रखा जाता है और उस ध्येय को पाने के लिए संस्था की गतिविधियाँ बनाई जाती है | अगर ध्येय की प्राप्ति हो गई या फिर गतिविधियों को चलाने के लिए कोई माध्यम न बचा हो तो संस्था का निष्क्रिय होना स्वाभाविक है | उस परिस्थितीई में संस्था को कुछ ऐसे तट का चुनाव करना होता है जहाँ से विकास कार्य में लगे लोगों की उदर पूर्ति का काम चलता रहे | यह विषय सभी संस्थाओं के लिए सत्य नहीं भी हो सकता; जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य जैसा विषय निरंतर ही चलनेवाला है ; किसी ख़ास तत्व को ध्यान में रखकर नागरिकों का प्रबोधन, भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलना और धर्माचरण से नागरिकों को जोड़ना आदि विषय नित्य जीवन का अंग है | अतः ऐसे विषयों से जुड़ी संस्थाओं की अहमियत भी सदा के लिए रहने ही वाली है | प्रश्न उन संस्थाओं के बारे में निर्माण होता है जिन्हें ग़रीबी उन्मूलन का बीड़ा उठाते हुए जनता जनार्दन तक पहुँचना है और ग़रीब कल्याण योजनाओं के ज़रिए राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका अदा करना है |
ग़रीबी उन्मूलन अगर किसी संस्था का ध्येय हो सकता तो सरकार बहादुर का भी यही ध्येय है और उनका प्रयास भी यही है कि ग़रीब नागरिक के ग़रीबी से ग्रसित होना का सही कारण पता करते हुए उसे उस ग़रीबी के जाता जाल से छुड़ा सके |
पुराण और वेदों में ऐसे काफ़ी उदाहरण मिलते हैं जिसके ज़रिए हम एक सम्राट और एक नागरिक के संवेदनशीलता को समझ सकें | एकबार भक्त सुदामा के परिवार वर्ग ने सुझाया कि उनके मित्र श्री कृष्ण कन्हैया सम्राट बन चुके , अब तो सुदामा को इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते हुए अपनी ग़रीबी दूर कर लेनी चाहिए ! पर सुदामा के मन में कुछ संकोच था; जिस मित्र को एक मुट्ठी चावल की भुजिया नहीं दे पाए थे उसी मित्र से कुछ कैसे माँगा जाय ! और फिर मित्र भला किसी मित्र से कहाँ कुछ माँगता है ! मित्र से सिर्फ़ मैत्री का ही संबंध रहता है | उस मैत्री के संबंध में स्वार्थ का आना उचित नहीं है और ऐसा करना भी नहीं चाहिए |
काफ़ी अनुनय विनय करने के बाद सुदामा मान तो गये पर उनके मन में किसी और कारण से आनंद और हर्ष का बाढ़ आया ; काफ़ी लंबी अवधि के बाद उन्हें अपने मित्र से मिलने का मौका मिलेगा और इस मौके को सुअवसर में बदलते हुए सुदामा वही भेंट लेकर निकल पड़े आश्रम प्रवास के समय जो कृष्ण के माँगने पर भी नहीं दे पाए थे | उस कारण से बने आत्म ग्लानि को धो डालने का समय आया है यह जानकार भी सुदामा हर्षित हो रहे थे |
गिरिधारी का मित्र वह भी ऐसी दशा में ! विश्वास भला किसे हो पाता ,
अतः सैनिकों
का भ्रमित होना भी जायज़ था | सुदामा को कृष्ण के सिंह द्वार पर ही रोका गया | अंदर जानकारी भेजी गई, और फिर क्या;
गिरिधारी अपने उस मित्र को गले लगाने के लिए दौर पड़े और अपने परिषदों को अचंभे में डाल दिया | उस मित्र को अपने ही आसान पर बिठाया और दोनों का प्रेम संवाद फिर देखते ही बन रहा था |
विचार के साथ अर्थ ( पैसा , सम्पद, ज़मीन आदि ) का रिश्ता ही कुछ अजीब सा है | लोग पैसों के बल पर हर एक को झुका देने की तमन्ना रखते हैं | कभी कभी उन्हें इतिहास के पन्नों से सीख लेते हुए अपनी भूमिका तय करना होगा | हम सब यह भली भाँति जानते हैं कि एक लुटेरा जब भारत से लूट का पैसा लेकर जा रहा था तो वह अपने ही साथियों के हाथों मारा गया | वो पैसा आख़िर किसी के भी काम न आ सका | अगर किसी को यह लगता है कि मंगल विचार के धनी सिर्फ़ पैसों के लिए काम करेंगे तो उन्हें अनति विलंब अपना विचार बदलते हुए यह समझ लेना हूगा कि पैसों की ओर भागने वाला व्यक्ति मंगल और क्रांतिकारी विचार का धनी कदापि नहीं हो सकता | जिन संस्थाओं के पास पैसे, ज़मीनें और इमारतें आ चुकी है उन्हें लगता है कि अब दुनिया को किसी भी तरफ मोड़ सकेंगे और जनता जनार्दन को उनके पास आना ही होगा | उन संस्था प्रमुखों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि क़ानून का शिकंजा कभी भी कसा जा सकता है और किसी लोकतांत्रिक ढाँचों में इसकी संभावना कुछ ज़्यादा ही रहेगी | अतः कुछ ऐसा संतुलन बनाकर संस्थाओं को चलना होगा जिससे जनता जनार्दन के बीच उन संस्थाओं के चलते किसी प्रकार का रोष उत्पन्न न हो | एक ऐसी भी संस्था के बारे में पता चला जिन्होंने अपने ही कार्यकर्ताओं को काफ़ी अपमानित करके उनकी भावनाओं को कुचलकर काम से निकाल बाहर करने का निर्णय लिया | कभी कभी हमें भावनाओं का भी ध्यान रखना होता है; ताकि कोई व्यक्ति आवेश में आकर कोई ग़लत कदम न उठा ले | जिन कार्यकर्ताओं को निकाला गया उनमें से अधिकांश लोगों का नौकरी पाने का उम्र ही निकल चुका था और वो न तो नई व्यवस्था में ढलने के लिए मानसिक रू से तैयार थे | इसका यह अर्थ भी नहीं है कि संस्थाओं को कामगार लोगों की संख्या में कटौती करने का कोई हक ही नहीं है | संस्था उन अधिकारों का उपयोग करते समय वयक्ति की भावनाओं का भी यथोचित सम्मान करे | किसी नौकर के अपमानजनक कारनामों का असर संस्था प्रमुख और उनके साथ जुड़े लोगों की प्रतिष्ठा को भी चपेट में ले सकता है | और यह एक प्रकार की मूर्खता ही है जिसके बदौलत कोई संस्था बने बनाए कुशल कार्यकर्ताओं को छोड़ दे |
कार्यकर्ता निर्माण
अपने देश में ऐसे और भी संस्थाओं का परिचय हमें मिलता है जिनका मुख्य काम ही है कार्यकर्ता निर्माण | उनके पास कई युवा जीवन की तलाश में आते हैं और उनमें से कई पूर्ण रूप से जुड़ जाते हैं और ध्येय मार्ग पर अडिग भी रहते हैं | उन संस्थाओं की प्रगति इन दिनों तीव्र गति पर है और धीरे धीरे भारत के प्रत्यन्त भागों तक फैल रही है | इसको किसी दबी पाँव चलनेवाले तूफान से भी तुलना कर सकते हैं जिसमें खर पतवारों के साथ साथ बड़े पेड़ पौधों को भी उड़ा ले जाने की असीम शक्ति है; उनका भान भी कुछ इस प्रकार का ही है | इस बात से समझदार लोगों को एक तो मौका मिल ही जाएगा कि वो अपने बिखरे हुए वस्तुओं को समेटकर उस तीव्र तूफान के वापस जाने का इंतजार करते रहें या फिर खुद को किसी सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित कर लें | नासमझ और घमंडी लोगों के लिए आने वाला काल और अधिक विकराल होने जा रहा है |
संस्था का प्रमुख काम ही है विचार का संकर्षन और उस विचार पर चल पड़ने वाले लोगों का संरक्षण |
कभी बंगाल के एक आश्रम से एक युवा सन्यासी यह कहकर निकल गये कि उन्हें उपयाचक और परिव्राजक का जीवन बिताना है | उपयाचक का अर्थ हुआ किसी से कुछ न माँगना और परिव्राजक से उनका अभिप्राय था कहीं भी ज़्यादे दिन का प्रवास न करना | उन्होंने गुरु माँ से अनुमति माँगकर निकलने का फ़ैसला भी कर लिया | सबसे ज़्यादा चिंता उस गुरु माँ को होने लगी; कारण था कि जिस देश में बिना माँगे पानी भी नहीं मिलता उस देश में कहीं इस युवा का हौसला न टूट पाए | उस यूवा का आश्रम से निकल आने का कारण तो कुछ और ही था | कभी कभी हमें कड़वाहट को गुप्त रखना होता है ताकि लोगों की भावनाओं को अनावश्यक ठेस न पहुँचे | इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि हमारे किसी कारनामे से दूसरों की प्रगति बाधित न हो | कभी कभी दूरियाँ बना लेना मंगलकारक भी होता है | उस युवा सन्यासी ने आश्रम से दूरी इसलिए भी बना लिया था ताकि और साथियों को काम करने का अनुभव प्राप्त हो और उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारियों से नवाजा जा सके |
हर समय संकट की बात करें और समाधान का कोई सूत्र न हो ऐसा कभी हो ही नहीं सकता | हम जिस व्यवस्था से निकलकर आते हैं हमारी मानसिकता और दैनिक व्यवहार भी उसी के मुताबिक बन जाता है , और फिर उसमें आधुनिकता का कुछ अंश मिल जाता है | कोई सूचना और प्रौद्योगिकी का विद्यार्थी एक सरलता और सादगी का जीवन जी रहा है इस बात से लोग परेशान हो उठते हैं और कभी कभी ऐसा उन्हें यकीन भी नहीं होता | जाहिर सी बात लोग किसी भी स्थिति का जायजा अपने नज़रिए से ही लेते हैं और उन्हें उसी नज़रिए से समाधान सूत्र भी दिखने लगता है | आधुनिक प्रबंधन विज्ञान कहता है कि जिसे जिस प्रकार की भूख लगी उसे उसी प्रकार का भोजन दिया जाय नहीं तो विरोध का बादल मंडराने लगेगा | पर सर्वोदय का विज्ञान इससे बिल्कुल ही अलग है : प्रबंधन को तभी कारगर और यशस्वी माना जाएगा जब परिसर में रहने वाले जानवर तक को भोजन और आसरा मिले | महात्मा का भी इसी से मिलता जुलता एक विचार था कि किसी परिसर में अहिंसा की प्रतिष्ठा है कि नहीं इसका पता लगाने के लिए हमें वहाँ रहनेवाले जानवरों और उनके साथ किए जाने वाले व्यवहारों को देखकर पता चलता है |
आत्म प्रत्यय का विज्ञान यह कहता है कि प्रयास करते रहना है | निरंतर प्रयास करते रहने से शत्रु का भी दिल जीता जा सकेगा | उसी आत्म प्रत्यय से अर्जुन को सारथि के रूप में श्री कृष्ण का साथ मिला और उतनी बड़ी सेना को परास्त करने में कामयाब हुए | मौके मिलते रहें और निरंतर समय जाता रहे यह भी संतोष पाने लायक नहीं हो सकता | लंका नरेश रावण के सामने उसी के उपास्य देवता का रुद्र अवतार जीवन बचाने के उद्देश्य से समझाने आया और घमंड के बादलों से घिरे रावण को नियती के कराल ग्रास से बच नहीं पाया | उस समय कई ऐसे भी दिन बीत रहे थे जब रावण नर्ताकियों और किन्नरों से घिरा रहता था और मर्यादा पुरुषोत्तम घास के मखमली विस्तर पर चंद्रमा को निहारते हुए निद्रा विहीन रातें बिताया करते थे | बजरंगी के पराक्रम और उनके शौर्य, धैर्य के पहिए वाले धर्म रथ ने उन्हें विजय श्री दिलवाया |
कभी कभी हम यह भी समझ नहीं पाते कि अगर संहार वृत्ति का प्रयोग करना भी रहा तो यह कैसे समझ लें कि वो समय अब आ चुका! जब हमारे देश में आश्रम परम्परा का विद्यालय चलता था उन दिनों एक आश्रम के कुछ विद्यार्थियों को नज़दीक के गाँव में एक कुटिया में आग की चिंगारी दिखी | उन्होंने अपने गुरु को बताया और उन्हें लगा कि गुरुदेव तुरंत ही आग बुझाने के काम में जुट जाने का आदेश देंगे | पर गुरुदेव ग्रामींन के संकुचित वृत्ति से भली भाँति परिचित थे | उन्होंने इंतजार करने और स्थिति का जायज़ा लेते रहने के लिए कहा और खुद भी जागे रहे , और दूर से ही सही उस घटना को निहारते रहे | आग और बढ़ी, तब भी गुरुदेव चुप रहे और अन्य शिक्षुओं से भी चुप्पी बनाए रखने के लिए कहा | जब ग्रामीणों के बीच से "बचाओ, बचाओ " ऐसी पुकार आने लगी तब गुरुजी खुद कमर कसकर दौड़ पड़े, जाहिर सी बात थी कि उनके सभी विद्यार्थी साथ हो लिए | पूरी प्रक्रिया और आग बुझाने का काम पूरा होने के बाद जब विद्यार्थियों ने गुरुजी के ऐसे काम करने का कारण पूछा तो शिक्षक बोले , "लोगों की सामान्य वृत्ति का ही फल है कि उनके मन में किसी के भी प्रति सहज रूप से संदेह पैदा हो जाया करता है | अगर उन्हें नींद से उठाकर हम कहें कि हम उनके इमारत में लगे आग को बुझाने आए हैं तो उनके मन में हमारे ऐसा करने को लेकर संदेह पैदा होगा | उन्हें ऐसा भी लग सकता है कि हम कुछ चोरी करने आए हैं और आग लगने का बहाना बना रहे हैं | बुलावा आने से हमारा वहाँ जाना यह हमारा एक सहज मानव धर्म है | "
सहज़ीवन की कला से भी हम यही सीखते हैं कि मदद माँगे जाने पर मुँह नहीं मोड़ना चाहिए | हमें हमारी हैसियत के मुताबिक लोगों तक मदद का हाथ बढ़ा देना चाहिए | संस्था को अगर समाज के लिए बनाया गया होगा तो उस संस्था को समाज से हटकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए | कभी कभी संस्था चालकों में भी वैचारिक मतभेद पनपने लगता है और उन्हें लगता है कि संस्था की हर गतिविधि से आमदनी हो | अगर आम के पेड़ से फल पाते पाते हमें यह लगने लगे कि उसकी जड़ों को भी निकाल लें और किसी न किसी काम में लगा डालें तो यह हमारी वैचारिक दीनता समझी जाएगी न कि सैद्धांतिक परिपक्वता | हम कभी कभी शराफ़त का चोला पहनकर कड़वाहट से दूर भागना चाहते हैं, पर कभी परछाईं व्यक्ति का साथ नहीं छोड़ता ; अतः हमें दोनों को साथ लेकर ही एक निर्णायक की भूमिका में खरा उतरना होगा | अगर हम उस नेतृत्व शक्ति के आदि न बन पाते हों तो तुरंत उस व्यवस्था और परिसर से हट जाना होगा | यही वक्त की नज़ाकत होने के साथ साथ सार्विक समाधान का सूत्र भी है | जीवन में स्वाध्याय की अहमियत सिद्ध होती है |
शिक्षण या आत्मिक विकास
शिक्षण एक निरंतर चलने वाली सतत प्रक्रिया है | इसे सिर्फ़ विद्यालय तक सीमित नहीं माना जा सकता | हमारे निसर्ग के प्रत्येक कण में शिक्षण पाने लायक तत्व भरा पड़ा है | चाहिए एक सकारात्मक दृष्टि ताकि उन बिखरे विचार को हम सफलता पूर्वक ले सकें | मां, बाप, गुरु, संत, बच्चे इनमें यदि हम परमात्मा न देख सकें, तो फिर किस रूप में देखेंगे ? इससे उत्कृष्ट रूप परमेश्वर का दूसरा नहीं है। ईसप के राज्य में सियार कुत्ते‚ कौए‚ हिरन‚ खरगोश‚ कछुए‚ सांप‚ केंचुए- सभी बातचीत करते हैं‚ हंसते हैं। एक प्रचंड सम्मेलन ही समझिए नǃ ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है।
मानव के बौद्धिक और वैचारिक प्रगती से हमारा यही अभिप्राय रहता है कि उसमें कुछ ऐसा परिवर्तन आ जाए जिसके आधार पर उसे समाज में कारगर और यशस्वी बनाया जा सके | हम यह भी चाहते हैं कि व्यक्ति में अच्छे बुणों का समावेश हो और दुर्गुणों का नाश हो | व्यक्ति में दोनों विरुद्ध विचारों का होना एक नैसर्गिक नियति है | कभी भी शुद्ध सात्विक या फिर शुद्ध तामसिक कोई व्यक्ति नहीं बन सकता | उसमें तीन गुणों के अंश में बदलाव भले ही आ जाएँ पर किसी एक गुण से व्यक्ति को संपूर्ण रूप से मुक्त कर पाना कभी संभव ही नहीं हो सकता | हमें यह भी देखना होगा कि शिक्षण प्रक्रिया सिर्फ़ सात्विक गुणों का संवर्धन करने वाला है या उस प्रक्रिया में तामसिक गुणों से व्यक्ति को मुक्त करने की विधा भी सम्मिलित की गई है | इस काम के लिए हम सिर्फ़ विद्यालय पर निर्भर रहें यह भी उचित नहीं माना जा सकेगा, न ही वास्तविक | व्यक्ति विद्यालय के बाहर भी काफ़ी समय तक विविध गतिविधियों के ज़रिए सक्रिय रहता है ; अतः उन सभी नैसर्गिक तत्वों से भी व्यक्ति कुछ न कुछ नैसर्गिक शिक्षण प्राप्त कर लेता है |
निसर्ग से, परिवार से, माता पिता से शिक्षण पाने के बारे में सचेत रहते हुए हमें उन सभी तत्वों के बीच एक कड़ी स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए जिससे शिक्षण प्रक्रियाओं को एक दूसरे से जोड़ा जा सके और पूरी प्रक्रिया को अधिक कारगर बनाया जा सके |. इस विषय में हम यह भी उम्मीद रखते हैं कि निरंतर चलने वाली शिक्षण प्रक्रिया के क्रम में व्यक्ति ज़मीन से जुड़ा रहे और उसके सांस्कृतिक और वैचारिक परिपक्वता का संवर्धन हो सके, न कि किसी विरोधाभाषी विचारों का संकर्षन होता हुआ द्वंद उतन्न हो | व्यक्ति क्रमशः द्वंद के साथ रहना सीख लेता है ; प्रकृति का द्वंद, कर्म क्षेत्र का द्वंद और व्यक्ति जीवन का द्वंद उत्पन्न होते रहता है | उन सभी द्वंद को झेलते हुए व्यक्ति को क्रियाशील बने रहना है | शिक्षा का यह भी अभिप्राय है कि व्यक्ति को द्वंद झेलने की सहज कला का ज्ञान हो सके | रात- दिन, ऋतु परिवर्तन, लाभ हानि, भला -बुरा , आदि सभी द्वंद की ही परिस्थितियाँ हैं | जिस व्यक्ति में बुद्धि की स्थिरता और विचार की परिपक्वता आ चुकी उसे किसी भी द्वंद के कारण कोई समस्या के प्रकोप मे नहीं पड़ना है | बल्कि उसे कुशलता पूर्वक द्वंद को झेलते हुए अपनी भूमिका बनाते हुए समाज में और निसर्ग में क्रियाशील रहने की कला आ जाएगी |
हमें यह भी समझना होगा कि शिक्षण की प्रक्रिया कभी भी न रुकनेवाली प्रक्रिया है | यह विषय कुछ वैसा ही है जब हम नाव लेकर किसी विस्तीर्ण जलराशि में नौका विहार के लिए उतरे हों और दूसरे पड़ाव के आने का इंतजार करते हों; दूसरा पड़ाव इतना दीर्घ है जिसके आने का हम बस इंतजार करते रहते हैं और जीवन बीत जाता है | इसे हम नमक के पुतले का सागर नापने के विषय से भी मिलाकर देख सकते हैं | सागर नापने का काम होते होते नमक का पुतला पिघल जाता है | हम सब पुतले ही हैं; कोई छोटा तो कोई बड़ा | आख़िर सबको पिघलना ही है और अपार ज्ञान का सागर हमारे लिए अछूता ही रहनेवाला |
कुछ ऐसी भी बातें हैं जो हमारे व्यक्ति जीवन में निखार लाने और हमें कुछ सिखाने के लिए पर्याप्त माने जाएँगे | हम दैनिक चहल पहल से खुद को अलग रखने का कितना भी प्रयास करें उन तत्वों से हमें शायद ही कोई अलग कर पाए | यह भी कहा जाता है कि हमारे जीवन में शास्त्र का भी काफ़ी महत्व है, हम मित्रों से भी प्रभावित होते रहते हैं | इस विषय को एक व्यवस्थित क्रम से समझना ही ठीक रहेगा |
शास्त्र की महत्ता
एक पंडित शास्त्रार्थ करने काशी आए | कबीर दास जी से उनका शास्त्रार्थ कराया गया | कबीर दासजी उस पंडित से पूछने लगे, "आप पढ़कर समझे हैं या समझकर फिर पढ़े हैं?"
इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के क्रम में ही बहुत बड़ा शास्त्रार्थ हो गया | जिसने दो अक्षर वाले शब्द "प्रेम" का सही अर्थ जान लिया हो उसका पढ़ना ही सार्थक मानें |
भगवान का पता अगर किसी से पूछें तो उसपर व्याख्यान करने के लिए सभी जन तुरंत प्रस्तुत हो जाते हैं | भगवान सर्वत्र भले ही रहें पर उन्हें प्राप्त करने का मार्ग तो प्रेम की सांकरी गली से ही निकलेगा | लोग तो यह भी कहेंगे ईश्वर खोजने वाले के भीतर ही मिलेंगे |
एक पढ़ा लिखा व्यक्ति बनारस की गंगा में नौका विहार पर निकला | माझी से विनोद में पूच बैठा, "अँग्रेज़ी जानते हो?"
"नहीं हुजूर, मैं भला अँग्रेज़ी आदि का क्या जानूँ ! मुझे तो लिखना पढ़ना भी भी नहीं आता }"
"तब तो तुम्हारा बारह आने जीवन ही बेकार है |"
माझी मन ही मन मुस्कुरा रहा था और चुप रहना ही मुनासिब समझा | संयोग वश बीच नदी में नाव डगमगाया | अब वो अजनबी पढ़ा लिखा व्यक्ति घबराया |
"हुजूर आपको तो तैरना आता ही होगा !" माझी पूछ बैठा |
"नहीं मेरे भाई मुझे तैरना बिल्कुल ही नहीं आता | कोई उपाय निकालो और नाव को किनारे ले चलो |"
उस व्यक्ति की घबराहट देखकर अब माझी को भी विनोद करने का मौका मिल गया , "तब तो आपकी सोलह आने जीवन ही बेकार हो गई !"
ऐसा जीवन ही किस काम का जिसे मुसीबतें झेलना न आता हो ! अब उस आगंतुक को अपने घमंडी होने के कारण लज्जा हो रही थी | अपने न तैर पाने के कारण और ज़्यादा लज्जित हो रहा था | बीच नदी में से उसे बचाकर निकाल लाने के लिए उसका ज्ञान किसी काम न आएगा |
ऐसे कई प्रसंग मिलेंगे जिसके बारे में हम पाएँगे कि ग्रंथों से मिली शिक्षा की अपनी सीमाएँ हैं और प्रत्यक्ष अनुभव से मिलने वाले ज्ञान की व्यवहार कुशलता कहीं अधिक होती है | उस कौशल की प्राप्ति के लिए हम और अधिक सघन रूप से ज्ञान मंथन और कर्म चंचलता पा सकेंगे | परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए भी हमें व्यवहार कुशल होना होगा | कौन ब्रह्म ज्ञानी है और कौन मूर्ख इसका आकलन तो परिस्थिति के मुताबिक ही किया जा सकेगा | आकाश मार्ग से हवाई जहाज़ से जाते समय उस नौका के माझी का अनुभव कोई काम में नहीं आएगा | जहाँ जिसकी भूमिका बनती है उसी सीमा में उसके कौशल्य की प्रतिष्ठा मानी जाएगी | हम किसी ब्रह्मा ज्ञानी से अन्य किसी ब्रह्म ज्ञानी की तुलना भी हर परिस्थिति में नहीं कर सकेंगे | अनेकांति विचार की दृष्टि से हर व्यक्ति उतना ही अहम है जितना अहम हम खुद को मानेंगे | भारतीय परंपरा के महर्षि और संतगण भी अपने दार्शनिक विचार के माध्यम से उस मैत्री के महामंत्र की ही प्रतिष्ठा माने जिसे वेद में भी स्वीकृति मिली हुई है | कृष्ण भगवान अर्जुन को युद्ध भूमि में भली भाँति तत्व दर्शन और कर्तव्य बुद्धि का पाठ दे सके और इसमें उनको काफ़ी सफलता मिली इसका एक ही कारण है कि उन्होंने अर्जुन से अपना मित्रवत व्यवहार रखा | सर्वशक्तिमान के उस मैत्री का स्वरूप ही था जिसके कारण उन्हें अर्जुन की शंकाएँ दूर करने में सहजता मिली |
व्यवहार कुशलता
दंडकारण्य में दो राक्षस रहते थे एक का नाम था आसाती दूसरे का नाम था वासाती | दोनों मिलकर कई संतों को मिटा चुके थे | आसाती संतों को बुलाकर लाता और वासाती खुद को भोजन के रूप में परोस देता | भोजन के बाद जब भी संत उन दोनों को भी भोजन कर लेने का आग्रह करते तो आसाती अपने भाई वासाती को पुकारने लगता | नतीजा यह होता कि वासाती संतों का उदर चीरते हुए बाहर निकल आता | काफ़ी दिन तक यह सिलसिला निरंतर चलता रहा | संतों ने अगस्त मुनि से इस समस्या का हल निकालने के लिए कहा | अगस्त मुनि भी उसी तरह आसाती के निमंत्रण पर आए और भोजन करने के बाद आसाती से आग्रह करने लगे कि वो अपने भाई को खाने पर बुला ले; पर इस बार श्री मुनि उसके भाई को पूरी तरह पचा चुके थे | जाहिर सी बात है कि वासाती मुनि का पेट चीरकर बाहर निकलने में असमर्थ रहा | इसी विरह में आसाती भी समाप्त हो गया | पढ़ने लिखने का फल यह भी नहीं होना चाहिए कि व्यक्ति समाज और व्यवस्था से ही दूर हो जाए | अपने दैनिक जीवन में आनेवाले कुछ काम तो उसे कर लेने के लिए तत्पर भी रहनी चाहिए |
बंबई में रास्ते से गुजरने वाले एक बड़े व्यापारी के सफ़र करते समय की एक घटना हम याद कर सकते हैं | उनकी गाड़ी बीच रास्ते में अचानक खराब हो गई और एक पहिया बदलने की नौबत आ गई | गाड़ी का चालक कीमती वस्त्र पहने हुए था इसलिए उसने करीब के किसी कारीगर को बुलाने का प्रयत्न करने लगा | इतने में उस बड़े व्यापारी ने अपना कोर्ट जूते आदि उतारकर काम पर लगना ही मुनासिब समझा ताकि थोड़ा समय बचाया जा सके | इस घटना को देखते हुए गाड़ी का चालक भी अपने वस्त्र की परवाह न करते हुए काम में लगा और जल्द से जल्द उस काम को पूरा करने का प्रयास करते रहा |
सभा में पहुँचने में विलंब तो हुई पर ज़्यादा परेशानी से वो बच गये | अगर अपना अभिमान लिए व्यापारी और गाड़ी चालक कारीगर का इंतजार करते रहते तो शायद सभा में पहुँच ही नहीं पाते , पर उन्होंने समझदारी दिखाते हुए समय बचा लिया | नीति परायणता का उदाहरण रामायण में भी जगह जगह पर मिलता है | रण में मेघनाद मारे जाने के बाद उसकी पत्नी सुलोचना रावण से आग्रह करने लगी कि उसे सती होने का मौका दिया जाय | ऐसा कहकर सुलोचना श्री रामजी के शिविर में जाने के लिए निकल पड़ी | सबने रोकने का प्रयास किया और रावण से कहा कि सुलोचना को शत्रु के शिविर में जाने से रोकें | रावण को उसे रोकने का कोई उचित कारण नहीं लग रहा था | सुलोचना को रोककर भी राम बदले की भावना से ग्रसित होकर काम कर सकता है, ऐसी शंका व्यक्त करने के बाद रावण ने कहा , "यह काम रावण का हो सकता है पर राम का नहीं | जिस शिविर में बालक ब्रह्मचारी होते हों उस शिविर में ऐसा काम हो ही नहीं सकता |"
कहने का तात्पर्य है कि रावण को भी यह ज्ञान हो गया था कि श्री राम और उनके साथी नीति परायण होकर युद्ध करते रहेंगे | उनके शिविर में किसी का भी नीति भ्रष्ट होने की कोई संभावना ही नहीं है | नीति परायण होने का सीधा संबंध अगर ज्ञान आहरण से होता तो रावण को भी नीति परायण होना था, पर हक़ीकत में ऐसा हमें देखने के लिए नहीं मिलता | हर तरफ पढ़ने लिखने की ही ज़्यादा चर्चा होती है | पढ़ने लिखने की ओर लोगों का रुझान भी काफ़ी बढ़ा | इसी क्रम लोगों में कर्म प्रधानता की कमी देखी जा रही है |
शिक्षा सर्वेक्षण के काम से दलमा घाटी के आस पास बसे ग्रामीणों के बीच घूमते समय शिक्षा के प्रति ग्रामीणों का आग्रह कम होने का कारण पता लगाना था | घाटी में बसे एक गाँव के एक वरिष्ठ का कहना था कि विद्यालय जाने वाले बच्चे हल जोतना भूल जाते हैं, कुछ दिनों के बाद अन्य कोई काम करना भी नहीं चाहते | बेहतर होता यदि सबके सब विद्यालय बंद कर दिए जाते | इस विरोधाभाषी विचार से ओत प्रोत होने के बाद शोधकर्ता यह तलाश करने में जुट गये कि कुछ ऐसा सुधार करें जिससे उन ग्रामीणों का शिक्षण संस्थानों पर विश्वास बन सके | आज तक ऐसा कोई पहल हो ही नहीं पाया |
महात्मा और बाबा विनोबा के पास इसका काफ़ी व्यवस्थित हल था, जिसको आधार मानकर बच्चे कम से कम हल जोतना नहीं भूलते और लोहे के बैल से होनेवाली समस्या का भी निराकरण कर पाते | पर अपनी व्यवस्था आधुनिकता के चक्रवात में फँस चुकी है | आए दिन कठिनाइयों का नया समीकरण सन्दर्भित हो रहा है |
संस्कृति की जड़ें
भारत में अँग्रेज़ी हुकूमत का एक लंबा दौड़ चला | नीति परायणता के चलते पृथ्वीराज चौहान पहले ही हार चुके थे | चारों ओर से भारत में दस्तक देने का द्वार खुल चुका था और एक के बाद एक लुटेरों की घुसपैठ चलती रही | उपद्रवियों के बीच आपसी लड़ाइयाँ भी चली | उन सबमें ज़्यादा कौशल्य रखने वाले अँग्रेज़ों को लगा क्यों न भारतवर्ष को अँग्रेज़ी हुकूमत का अभिन्न अंग बना लिया जाय | इस काम में एक ही बाधा आ रही थी और वो था भारतीय मूल के लोगों में व्याप्त संस्कृति की मजबूत जड़ | उस मजबूत जड़ के कारण उन्हें पूर्णतः गुलाम नहीं बनाया जा सकता | उन दिनों बंबई प्रांत में एल्फ़ींसटोन नामक एक अंग्रेज अधिकारी राज करता था | उसने अपने राजा को वफ़ादारी दिखाते हुए यह वादा किया कि अगर भारतीय मूल के लोगों को अँग्रेज़ी सिखा दिए जाएँ और अँग्रेज़ी अदब क़ायदे का अभ्यास करा दिया जाय तो वो अपनी संस्कृति से अलग होकर अँग्रेज़ी संस्कृति के आदि हो जाएँगे और उस परिस्थिति में सुदूर लंदन से भी भारत पर लगाम कसा जा सकेगा | हक़ीकत तो यह ही है कि अपना देश आज भी गुलामी और वैचारिक दीनता जैसी परिस्थिति का सामना कर रहा है | विविध विचारों में एकरूपता का सूत्र पिरोना सचमुच ही काफ़ी कठिन, और कभी कभी असंभव सा ही प्रतीत हो रहा है |
अँग्रेज़ों को यह भी लगने लग गया था कि जिस प्रकार से राष्ट्रीयता का ऊफान सन ४७ में व्याप्त हो रहा था उससे यह लगने लग गया था कि स्वतंत्र भारत बड़ी तेज़ी से प्रगति करेगा | इस प्रगति की गति को कम करने का एक ही उपाय है: मानव संसाधन और नैसर्गिक संसाधनों के बीच बटवारा करा दिया जाय | इसी क्रम में हिन्दुस्तान, पाकिस्तान का जन्म हो गया | बँटवारे की लकीर को जान बूझकर डाली गई ताकि आस पास रहनेवाले समुदाय कभी कमर कसकर सीधा खड़ा भी न हो सकें; मज़हबी अलगाव पहले से तो थे ही | विडंबना ऐसी बढ़ी कि मज़हबी खींच तान लंबी अवधि से चलते चले आ रहे हैं | अँग्रेज़ों को अपनी सफलता पर गर्व भी होता होगा | छोटी छोटी बातों के लिए लड़ जाने और मार मिटने की प्रस्तुति के बारे में सुनकर दुनिया के लोग इन दोनों मुल्कों की निंदा भी करते ही होंगे | अपना नुकसान होता हो और हमें समझ में न आता हो यह काफ़ी चिंता का विषय है | इस परिस्थिति में नई पीढ़ी के लोग समग्र विषयों पर पुनरावलोकन करना ज़रूर पसंद करेंगे |
साझी संस्कृति का रथ
आधुनिक सभ्यता के साथ ताल मिलाकर चलने के लिए हम सबको एक ऐसी संस्कृति का आदि होना होगा जिसमें सभी मनुष्यों के अरमानों और हितों की रक्षा हो सके | कर्म प्रधानता के साथ साथ मूल तत्वों का भी संरक्षण हो सके | विज्ञान को आधार मानकर चलने वाले इस संस्कृति के रथ दो ही पहिए हो सकते हैं: शौर्य और धैर्य का पहिया | कहते हैं ऐसा ही रथ श्री रामजी को जंग भूमि में विजय दिलाया था | इंद्र का सम्मान करते हुए उन्होंने इंद्र के द्वारा भेजे गये रथ को भले ही रख लिए हों पर उनका यह हनुमान रूपी दिव्य रथ ही मुश्किल की घड़ी में काम आया | आधुनिकता का नशा इतना भी न हो कि हम मानव मुल्यबोध पर आधारित संस्कृति से उखड़ जाएँ और शैवाल दल की भाँति जलाशय में तैरते रहें | वह तो नीरभिमानी रुद्र अवतार श्री बजरंग बली का ही प्रताप था जिसके कारण रावण को धराशायी होना पड़ा | उसका ज्ञान दस मस्ताकों के समान था (रूपक में उन्हें दसानन कहते थे) | इतने पर भी अहंकार और दंभ का बादल उस ज्ञान को ढक दिया था| बजरंगी तो अपनी कुछ करामात मानते भी नहीं थे |
समाज का स्वरूप बड़ी तेज़ी से बदल रहा है | सूचना तंत्र का ही प्रतिफल है कि अपने पास काफ़ी जानकारियाँ आ चुकी, पर किस जानकारी का कहाँ उपयोग करना है इसे बताने वालों की कमी आज भी ख़टकती है | कभी रामायण के युग में जब अगस्त मुनि के आश्रम से आगे का मार्ग श्री राम पता लगाने लगे तो मार्ग बताने वाले पचासों आ गये | उनमें से गिने चुने चार संतों को श्री अगस्त मुनि ने श्री राम के साथ भेजा और पंचबटी का मार्ग बताया गया | चार संत से अभिप्राय चार वेद का था और पंचबटी से पाँच इंद्रिय का अभिप्राय था | शरीर के साथ ज्ञान का उचित समन्वय होने के बाद ही व्यक्ति पूर्णता प्राप्ति के मार्ग पर कुशलता पूर्वक आगे बढ़ सकेगा | किसी भी कार्य में उतरने के पहले साधु मत लेने की अपनी प्राचीन परंपरा है ; और भी विधान में ऐसी परंपरा सन्दर्भित होती है |
एकबार अपने ही देश में राष्ट्रपति को नींद न आने की पीड़ा सता रही थी | प्रचलित इलाज से कोई काम नहीं हो रहा था | उन्होंने एक फकीर बाबा से परामर्श लेना उचित समझा | उनके चुने हुए सिपाही श्री राष्ट्रपति महोदय का संदेश लेकर फकीर बाबा के पास पहुँचे और कहे, "हमारे राष्ट्रपति जी ने आपको याद किया है, आप हमारे साथ उनसे मिलने के लिए चलिए |"
फकीर बाबा कुछ गिने चुने मरीजों से मिलने के लिए बाहर निकलने की तैयारी कर रहे थे, "तुम्हारे सुलतान के दरबार में भला मुझ जैसे फकीर का क्या काम ! उन्हें जाकर कह दो मैं नहीं आ सकता | "
सिपाहीगण अपने ही साथ खड़े अपने मुखिया को कहने लगे, "अगर आपका आदेश हो तो .... |"
मुखिया वापस जाकर अपने राष्ट्रापापति को बताना मुनासिब समझा और उनके दिए आदेश के मुताबिक काम करने का निश्चय करते हुए वहाँ से वापस आ गये |
"फकीर बाबा को जाकर कह दो मैं ही उनसे मिलने आना चाहूँगा |", राष्ट्रपति महोदय इतना तो समझ ही गये कि सिपाहियों ने उस फकीर से ठीक से बात नहीं किया होगा |
"फकीर बाबा आज आप घर पर ही रहें, आपसे सुलतान मिलने के लिए आ रहे हैं | ", सिपाही गण कुछ नम्र होकर उस फकीर से निवेदन करने लगे |
फकीर भला कहाँ रुकने वाला था, वो यथावत अपने नित्य काम से निकल गया | उसके पास और भी मरीजों से मिलने की योजना पहले से तय थी ; उस दिन भी मुलाकात नहीं हो पाई | तीसरे दिन राष्ट्रपति काफ़ी देर से आए और फकीर बाबा के डेरे पर इंतजार करने लगे | आख़िर बड़ी इंतजार के बाद मुलाकात हुई, " ऐसी क्या तकलीफ़ है आपको?"
"तकलीफ़ तो है , रात को नींद नहीं आती |"
"एक सुलतान को भला नींद कैसे आ सकती!" , फकीर बाबा स्पष्ट ही बोल गये |
"माने!"
"नींद इंसान को आती है , सुलतान को नहीं | बिस्तर पर जाने के पहले भूल जाया करो कि तुम किसी मुल्क का मुखिया हो तो सहज ही नींद आ जाएगी |"
"इतना भी सरल है!"
"इतना ही सरल है, करके देखो |"
हक़ीकत में ऐसा करने से सुलतान को नींद आने लगी | उस फकीर के चमत्कार से काफ़ी प्रभावित हुए |
आख़िर मन ही है जो व्यक्ति को कई तरह प्रभावित करते रहता है | मन अगर स्वाभिमान से ज़्यादा ग्रसित होने लगे तो समझना चाहिए परेशानी बढ़ी | अपने शंकर भगवान से जुड़ी एक कथा से हम उनके महायोगी होने का और पार्वती के तत्वज्ञानी होने का प्रमाण प्रत्यक्ष कर पाते हैं | सती के गुजर जाने के बाद आदि देव अक्सर ध्यान मग्न ही रहने लगे | महादेव को ध्यान से उठाने का जटिल काम श्री कामदेव को दिया गया ताकि अन्य देवताओं का कल्याण हो सके |
योगी, जटिल , आकाम मन, अमंगल वेश धारी, मातृहीन, गृहहीन , जटाधारी , क्षीण और दीन ऐसे ही अवगुणों के धनी हैं अपने महादेव | श्री नारद मुनि से परिचय पाकर पार्वती के माता पिता तो काफ़ी चिंतित हो उठे पर कुमारी का मन हर्षित हो उठा ! जिसे मुनि अवगुण गिना रहे थे वे सबके सब असल में उनके ईश्वर अभिमुखी होने का ही प्रमाण दे रहा था | शिव और पार्वती को मिलाने में श्री नारद मुनि ही अहम भूमिका निभा रहे थे | उन्होंने शंकर भगवान के मन में भी काम उत्पन्न करने का प्रयास किया ; और महादेव ही थे जिन्होंने काम को जलाने का निश्चय कर लिया | काफ़ी अनुनय करने के बाद वो मान तो गये पर उनको देखते ही पार्वती की माँ मैना के हाथ से आरती की थाल गिर गई | एक पार्वती ही थी जिसे महादेव से व्याह करने की ज़िद पड़ी थी | नियति को जो मंजूर था वो तो होना ही था ; अंततः दोनों एकरूप हुए | आदि शक्ति और जगन्माता जगदंबा की ही एकरूपता थी जिसकी कल्पना देवगण किया करते थे | हम उस मिलनेवाले और मिलानेवाले दोनों के समझदारी और सूझबूझ की सराहना करते हैं जिन्होंने लोक हितार्थ कुछ निर्णय ले पाए थे | पार्वती की भी समझदारी इस बात से आकलित की जाएगी जिसके बल पर उन्होंने अवागुणों में गुणों को तलाश लिया | संवेदनशील होना दिव्य पुरुषों और देवत्व के गुणों से पुष्ट महाजनों की पहचान है | हज़रत मोहम्मद को एक माता ने कुछ फल भेंट में देने आई | मोहम्मद तुरंत खाने लगे और सबके सब फल अन्य किसी को न दिए खा गये | उस माता को बहुत अच्छा लगा, संतोष मिला और वापस आ गई | आम तौर पर मोहम्मद बाँट कर ही खाया करते थे , पर इसबार किसी को एक भी फल न देने का कारण उनसे पूछा गया | उनका कहना था कि फल मीठे नहीं थे, और इसका पता चलने पर उस माता को अच्छा नहीं लगता यही कारण है कि मोहम्मद ने फल के खट्टे होने की बात को छिपा लिया ताकि उस माता को बुरा न लगे | उनकी इस संवेदनशीलता और तत्परता के लिए सभी भक्त उनसे इस बात की सीख लेने लगे |
कभी कभी हक़ीकत जानकार भी बताना उचित नहीं होता |
सेवा भाव या सेवा का भाव!
अपने देश में सेवा भाव से काम करनेवाली संस्थाओं की कमी नहीं है | उस संस्थाओं को देश विदेश से सेवा कार्य और ग़रीब कल्याण के नाम से पैसे भी मिल जाते हैं | इस प्रकार से सेवा करने के लिए बनी संस्थाओं की गतिविधि चलती चली आ रही है | उसी संस्था के आस पास समान विचारधारा वाले और समरूप तत्वज्ञान से प्रबुद्ध होकर कार्य करनेवालों का जमावड़ा भी होता आ रहा है | जब कोई व्यक्ति किसी दरिद्र व्यक्ति तक आसानी सा पहुँचना चाहे तो भी इन सेवा भावी संस्थानों के ज़रिए पहुँचने का प्रयास किया जाता है ताकि दान को महिमा मंडित किया जा सके और उस सेवा भाव का मूल मकसद सध सके | आचार्य चाणक्य कहा करते थे कि सत्य अगर कड़वा हो और अप्रिय हो तो न कहा जाय | पर सत्य को अगर हम इश्वर मान लें तो असत्य कहना या सत्य को छिपाने के लिए गोल मटोल बातें करना भी कहाँ तक मानी हो सकेगा !
संस्थाओं के बनने की प्रक्रिया में कई ध्येय को सामने रखा जाता है और उस ध्येय को पाने के लिए संस्था की गतिविधियाँ बनाई जाती है | अगर ध्येय की प्राप्ति हो गई या फिर गतिविधियों को चलाने के लिए कोई माध्यम न बचा हो तो संस्था का निष्क्रिय होना स्वाभाविक है | उस परिस्थितीई में संस्था को कुछ ऐसे तट का चुनाव करना होता है जहाँ से विकास कार्य में लगे लोगों की उदर पूर्ति का काम चलता रहे | यह विषय सभी संस्थाओं के लिए सत्य नहीं भी हो सकता; जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य जैसा विषय निरंतर ही चलनेवाला है ; किसी ख़ास तत्व को ध्यान में रखकर नागरिकों का प्रबोधन, भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलना और धर्माचरण से नागरिकों को जोड़ना आदि विषय नित्य जीवन का अंग है | अतः ऐसे विषयों से जुड़ी संस्थाओं की अहमियत भी सदा के लिए रहने ही वाली है | प्रश्न उन संस्थाओं के बारे में निर्माण होता है जिन्हें ग़रीबी उन्मूलन का बीड़ा उठाते हुए जनता जनार्दन तक पहुँचना है और ग़रीब कल्याण योजनाओं के ज़रिए राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका अदा करना है |
ग़रीबी उन्मूलन अगर किसी संस्था का ध्येय हो सकता तो सरकार बहादुर का भी यही ध्येय है और उनका प्रयास भी यही है कि ग़रीब नागरिक के ग़रीबी से ग्रसित होना का सही कारण पता करते हुए उसे उस ग़रीबी के जाता जाल से छुड़ा सके |
पुराण और वेदों में ऐसे काफ़ी उदाहरण मिलते हैं जिसके ज़रिए हम एक सम्राट और एक नागरिक के संवेदनशीलता को समझ सकें | एकबार भक्त सुदामा के परिवार वर्ग ने सुझाया कि उनके मित्र श्री कृष्ण कन्हैया सम्राट बन चुके , अब तो सुदामा को इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते हुए अपनी ग़रीबी दूर कर लेनी चाहिए ! पर सुदामा के मन में कुछ संकोच था; जिस मित्र को एक मुट्ठी चावल की भुजिया नहीं दे पाए थे उसी मित्र से कुछ कैसे माँगा जाय ! और फिर मित्र भला किसी मित्र से कहाँ कुछ माँगता है ! मित्र से सिर्फ़ मैत्री का ही संबंध रहता है | उस मैत्री के संबंध में स्वार्थ का आना उचित नहीं है और ऐसा करना भी नहीं चाहिए |
काफ़ी अनुनय विनय करने के बाद सुदामा मान तो गये पर उनके मन में किसी और कारण से आनंद और हर्ष का बाढ़ आया ; काफ़ी लंबी अवधि के बाद उन्हें अपने मित्र से मिलने का मौका मिलेगा और इस मौके को सुअवसर में बदलते हुए सुदामा वही भेंट लेकर निकल पड़े आश्रम प्रवास के समय जो कृष्ण के माँगने पर भी नहीं दे पाए थे | उस कारण से बने आत्म ग्लानि को धो डालने का समय आया है यह जानकार भी सुदामा हर्षित हो रहे थे | गिरिधारी का मित्र वह भी ऐसी दशा में ! विश्वास भला किसे हो पाता , अतः सैनिकों का भ्रमित होना भी जायज़ था | सुदामा को कृष्ण के सिंह द्वार पर ही रोका गया | अंदर जानकारी भेजी गई, और फिर क्या; गिरिधारी अपने उस मित्र को गले लगाने के लिए दौर पड़े और अपने परिषदों को अचंभे में डाल दिया | उस मित्र को अपने ही आसान पर बिठाया और दोनों का प्रेम संवाद फिर देखते ही बन रहा था |